सम्पादकीय

उठी लपटें तो हम सब तक पहुंचेंगी

Rani Sahu
12 July 2022 8:16 AM GMT
उठी लपटें तो हम सब तक पहुंचेंगी
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मनुष्यों से संबंधित यह कहावत कि मन के छोटे लोगों का अहं बहुत बड़ा होता है, अक्सर समाजों पर भी लागू होती है

विभूति नारायण राय,

मनुष्यों से संबंधित यह कहावत कि मन के छोटे लोगों का अहं बहुत बड़ा होता है, अक्सर समाजों पर भी लागू होती है। उस पर तुर्रा यह कि ऐसा अहं बड़ी जल्दी आहत होता है। अंदर से प्रौढ़ समाज खुद को इतना असुरक्षित नहीं मानता कि किसी भी विवाद या परिहास से वह खतरे में पड़ जाए। पिछले दिनों जिस तरह छोटी-बड़ी टिप्पणियों पर देश भर में प्रदर्शनों और मुकदमों की बाढ़ आई है, उससे तो लगता है कि हमने अपने ऊपर हंसने की जो थोड़ी-बहुत क्षमता थी, उसे भी गंवाना शुरू कर दिया है।
मुझे याद है कि कुछ दशक पूर्व तक हमारे यहां गड़बड़ रामायण रचने की एक निर्दोष सी परंपरा थी। इसका कोई एक रचयिता नहीं होता था। गहरे आस्तिक और रामभक्त ही रामलीला के विभिन्न पात्रों को लेकर बिना किसी दुर्भावना के गड़बड़ रामायण में हास-परिहास के प्रसंग जोड़ते-घटाते रहते थे। लोग ठहाके लगाते, पर शायद ही कोई बुरा मानता। रामलीला के पात्र भी तो हाड़-मांस के पुतले ही होते हैं, अत: कोई आश्चर्य नहीं होता कि इनमें से कोई विश्राम के क्षणों में अपने पूरे मेकअप के साथ मंच के किसी कोने-अंतरे में बीड़ी सुटकते हुए दिख जाता। पहले की ही तरह आज भी वे शो खत्म होने के बाद पूरे मेकअप में दोपहिया वाहनों पर बाजार से गुजरते दिख जाएंगे। क्या इन दृश्यों से हमारा धर्म खतरे में पड़ जाना चाहिए? 1970-80 के दशक में सरिता, मुक्ता जैसी पत्रिकाएं लोकप्रियता के शिखर पर थीं और ये धड़ल्ले से तमाम कर्मकांडों, वर्ण-व्यवस्था या अंधविश्वासों पर व्यंग्य करती रहती थीं। आज तो शायद हर लेख पर उनके खिलाफ मुकदमे कायम हो जाते।
पिछले कुछ दिनो में देश किस बुरी तरह से विभाजित हुआ है, इसका पता उन प्रतिक्रियाओं से चलता है, जो एक ही अदालत के दो अलग-अलग फैसलों पर दस दिनों के अंदर आई हैं। भारतीय सर्वोच्च न्यायालय ने जकिया जाफरी की याचिका का निस्तारण करते हुए तीस्ता सीतलवाड़ तथा कुछ अन्य के खिलाफ टिप्पणियां कीं, तब वामपंथी, उदार व धर्मनिरपेक्ष सारा संकोच छोड़कर इस फैसले पर टूट पड़े। इसके कुछ ही दिनों बाद नूपुर शर्मा की एक याचिका पर उसी न्यायालय की एक अन्य पीठ ने जो टिप्पणियां कीं, वे दक्षिणपंथियों और हिंदुत्ववादियों को इतनी नागवार गुजरीं कि उन्होंने अलग-अलग माध्यमों पर पीठ के जजों पर खुला हल्ला बोल दिया। ये अतिरेकी प्रतिक्रियाएं इस बात का द्योतक हैं कि अब हमारा समाज किसी भी तरह की मुखालिफ राय सुनने के लिए तैयार नहीं है।
विभाजन का ही नतीजा है कि पिछले दिनों उदयपुर और अमरावती में दो व्यक्तियों का नृशंसतम तरीके से गला काट दिया गया। जितना राजनीतिक दलों ने देश के दो बड़े समुदायों- हिंदुओं और मुसलमानों के बीच की खाई को चौड़ा करने का काम किया है, मीडिया के गैर-जिम्मेदार तबके का योगदान उनसे किसी भी अर्थ में कम नहीं है। एक चैनल पर नूपुर शर्मा की बहस इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। वक्ती उत्तेजना में उनके मुंह से निकले कुछ वाक्यों ने इस विभाजन को और पुख्ता ही किया। टीवी चैनलों पर यह आम दृश्य हो गया है, जहां आप किसी संवेदनशील मुद्दे पर कुछ लोगों को बहस करते देख सकते हैं और इसमें भाग लेने वालों की भाषा और बोलने के अंदाज से कोई भी समझ सकता है कि सब कुछ प्रायोजित है। इन बहसों से सिर्फ चैनलों की टीआरपी ही नहीं बढ़ती, देश का क्षैतिज विभाजन भी और पुख्ता होता जाता है। कई बार तो ऐसा लगता है कि अनपढ़ या सही अर्थों में कुपढ़ धर्मगुरु जान-बूझकर उत्तेजनात्मक बातें कर रहे हैं, ताकि बहस को मसालेदार बनाया जा सके। इन बहसों में चैनल के एंकर की भूमिका ज्यादातर समय उत्तेजना कम करने का प्रयास करने की जगह इसे भड़काने वाले की ज्यादा दिखती है।


इस पूरी अफरा-तफरी में कुछ ऐसा भी हो रहा है, जो देश के संघीय ढांचे को ही नुकसान पहुंचा सकता है। स्वाभाविक है कि देश के प्रांतों में अलग-अलग दलों की सरकारें हैं। दुर्भाग्यपूर्ण है, बिना अपवाद के वे सभी अपनी पुलिस का दुरुपयोग कर रही हैं। पिछले दिनों कई बार ऐसा हुआ कि एक राज्य की पुलिस किसी दूसरे राज्य में गिरफ्तारी करने गई और वहां उसे स्थानीय पुलिस से मदद तो दूर, उसके शत्रुतापूर्ण व्यवहार का सामना करना पड़ा। कई बार तो दो राज्यों के पुलिस बल आपस में इस तरह भिड़े कि लगा दो शत्रु राष्ट्रों के सैनिक एक-दूसरे से लड़ रहे हैं। अक्सर जो मुकदमे कायम हुए, उनकी परिस्थितियां भी संदिग्ध रही हैं। बार-बार दोहराई जाने वाली इन प्रवृत्तियों से पुलिस सुधारों और पुलिस को राजनीतिज्ञों के चंगुल से मुक्त कराने वाली बहस एक बार फिर से तेज हुई है।
आजादी के 75वें वर्ष में अपेक्षा की जा रही थी कि हम अपने स्थायित्व या एकता के प्रति ज्यादा आश्वस्त होंगे, पर यहां तो उल्टा ही हो रहा है। क्या देशद्रोह के सबसे अधिक आरोप इसी साल लग रहे हैं? हाल में विस्थापन और पर्यावरण के मुद्दों पर जन-आंदोलन खड़ा करने वाली मेधा पाटकर के विरुद्ध एक मुकदमा दर्ज किया गया है, जिसके अनुसार, जनता से जुड़े मुद्दे उठाकर वह राष्ट्र-विरोधी कार्य कर रही थीं। इस धारणा के मुताबिक तो पर्यावरण की बात करनेे वाले देशद्रोही हैं। अभी तक हमारी समझ का भाग एक छोटा-सा तथ्य नहीं बन पाया है कि देश और सरकार अलग अवधारणाएं हैं और किसी भी समय की सरकार का विरोध जरूरी नहीं है कि राष्ट्र का विरोध हो।
हम इस अर्थ में भाग्यशाली हैं कि हमें दुनिया के बेहतरीन संविधानों में से एक मिला है। यह संविधान न्याय की सर्वोच्चता और बराबरी के सिद्धांतों की रक्षा तो करता ही है, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को भी एक पवित्र मूल्य मानता है। पर यह भी सही है कि संविधान के अंदर ही उसको संशोधित करने की भी व्यवस्था है। दुनिया की कई दूसरी व्यवस्थाओं की तरह यहां भी बहुत से अनदेखे-अनछुए पहलू हैं, जो परंपराओं से विकसित होते हैं और विकसित हो भी रहे थे। न्यायिक समीक्षाओं, काफी हद तक स्वतंत्र पत्रकारिता, अनुसूचित जाति, जनजाति या मानवाधिकार आयोगों के चलते कुछ परंपराएं बनी भी, पर अब तो लगता है कि घड़ी की सूइयां उल्टी घूमने लगी हैं। सांप्रदायिक सौहार्द जैसे आजादी की लड़ाई के मूल्यों से प्रभावित संविधान को हम क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थों के लिए खतरे में डाल रहे हैं। हम यह भूल रहे हैं कि एक होकर ही यह देश आगे बढ़ेगा और अगर घर में आग लगी, तो कोई एक तबका ही उसमें नहीं झुलसेगा। उसकी लपटें हम सब तक पहुंचेंगी।


Rani Sahu

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