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Government, Farmers' Organizations, Lakhimpur Kheri,
राजीव सचान। कायदे से कृषि कानूनों के विरोध में जारी आंदोलन का 26 जनवरी की दिल्ली की घटना के बाद ही पटाक्षेप हो जाना चाहिए था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। यद्यपि दोनों पक्ष-सरकार और किसान संगठन-बातचीत शुरू करने की जरूरत जताते रहे, लेकिन इस दिशा में कोई ठोस पहल नहीं हुई। सरकार कहती रही कि किसान संगठन कृषि कानूनों की खामियां बताएं, तो वह उन्हें दूर करने के लिए आगे बढ़े। इसके जवाब में किसान संगठन यह कहते रहे कि तीनों कृषि कानूनों को वापस लेने से कम कुछ भी मंजूर नहीं। सरकार इस पर राजी नहीं हुई, तो किसान संगठन भी अपना आंदोलन जारी रखने पर अड़ गए। उनकी ओर से कभी यह कहा गया कि 2024 तक उनका आंदोलन जारी रहेगा और कभी दस साल तक धरने पर बैठे रहने के इरादे प्रकट किए गए।
फिलहाल दस महीने बीत चुके हैं और दोनों पक्षों के बीच बातचीत शुरू होने के कोई आसार नहीं दिखते। शायद दोनों पक्षों ने यह तय कर लिया है कि कोई भी अपने रवैये से टस से मस नहीं होगा। अपने-अपने रवैये पर अडिग दोनों पक्ष बातचीत की जरूरत भले जताते रहे हों, लेकिन साथ में एक दूसरे के खिलाफ बयान भी दागते रहे। इसके नतीजे में तर्क की जगह कुतर्क लेते रहे। इससे कुल मिलाकर कटुता और वैमनस्यता ही बढ़ी। लखीमपुर खीरी की घटना की जड़ में यही कटुता और वैमनस्य है। इसी बैर भाव ने 26 जनवरी के दिन लाल किले की देश को शर्मिंदा करने वाली घटना को अंजाम दिया था।
सरकार और किसान आंदोलनकारियों के बीच जारी लंबे गतिरोध के बीच एक काम यह भी हुआ कि एक के बाद एक विपक्षी राजनीतिक दल किसान संगठनों के साथ खुलकर खड़े होने के लिए आगे आते रहे। वे अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने के लिए सरकार को कोसते रहे और किसान संगठनों की पीठ थपथपाते रहे। विपक्षी दलों के किसान संगठनों के साथ खड़े होने से उनके और सरकार के बीच जारी गतिरोध कम होने के बजाय और बढ़ गया। यह गतिरोध कहां तक पहुंच गया है, इसका अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि अभी जब प्रधानमंत्री अमेरिका की यात्र पर गए तो राकेश टिकैत ने ट्वीट कर जो बाइडन से भारत सरकार की शिकायत की। इस गतिरोध से न तो सरकार का कुछ बिगड़ा और न ही किसान संगठनों का, लेकिन उसका भुगतान देश करता रहा और शायद आगे भी करता रहेगा, क्योंकि लखीमपुर खीरी की खौफनाक घटना के बाद भी ऐसे कहीं कोई संकेत नहीं कि दोनों पक्ष बातचीत करने के लिए आगे आएंगे।
सरकार और किसान संगठनों के बीच जारी गतिरोध टूट सकता था, यदि सुप्रीम कोर्ट थोड़ी सक्रियता और साहस दिखाता, लेकिन उसे तो करीब नौ माह बाद यह याद आया कि किसान संगठन उन कृषि कानूनों के खिलाफ धरना-प्रदर्शन जारी रखे हुए हैं, जिनके अमल पर उसने इस वर्ष जनवरी में ही रोक लगा दी थी। ऐसा तब हुआ जब किसान संगठन दिल्ली को ही यानी जहां सुप्रीम कोर्ट स्थित है, घेर कर बैठे हैं। किसान संगठनों के इस लंबे आंदोलन के दौर में केवल लाल किले में उपद्रव से लेकर लखीमपुर खीरी में रक्तरंजित उत्पात तक ही नहीं हुआ, बल्कि अन्य अनेक घटनाएं हुईं।
पंजाब में सैकड़ों मोबाइल टावर तोड़े गए, हरियाणा में कई बार सड़कों को घेरकर धरना-प्रदर्शन करने के साथ भाजपा नेताओं के साथ मारपीट की गई, आंदोलन में शामिल होने आई एक युवती से दुष्कर्म हुआ, किसान संगठनों की रीति-नीति से नाराज एक शख्स को जलाकर मार दिया गया, कई जगह टोल प्लाजा पर कब्जा किया गया, धरना दे रहे कई किसानों की मौत हुई और तमाम रास्तों को बाधित किया गया। इस सबके बीच उन लाखों-करोड़ों आम लोगों की किसी ने सुध नहीं ली, जो किसान संगठनों के धरना-प्रदर्शन के कारण अपने गंतव्य तक आने-जाने में परेशान होते रहे और अपने समय एवं संसाधन की बर्बादी होते देखते रहे। इन असहाय और निरुपाय लोगों पर कोई नहीं पसीजा-न किसान संगठन, न सरकार और न ही न्यायपालिका। ऐसा तब हुआ जब सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों से यह सुनने को मिलता रहा कि लोग यह जानते हैं कि जब उनकी कहीं कोई सुनवाई नहीं होती तो शीर्ष अदालत उनकी मदद के लिए आगे आती है। ऐसा कुछ भी देखने को नहीं मिला।
क्या लखीमपुर खीरी की घटना के बाद हालात बदलेंगे? आसार कम हैं, क्योंकि किसान संगठनों की सक्रियता वाले दो प्रमुख राज्यों-पंजाब और उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव होने हैं। विपक्षी दलों के रुख-रवैये से यह साफ है कि उनकी दिलचस्पी इसमें है कि कम से कम विधानसभा चुनावों तक किसान संगठनों का आंदोलन जारी रहे। खुद किसान संगठन भी इसके संकेत दे रहे हैं। जहां किसान संगठनों को इससे मतलब नहीं कि कृषि कानूनों के अमल पर तो रोक लगी हुई है, वहीं सरकार इससे चिंतित नहीं दिखती कि यह रोक कब हटेगी? सुप्रीम कोर्ट को भी कोई जल्दी नहीं, क्योंकि वह उस रपट का संज्ञान लेने की जरूरत नहीं समझ रहा, जिसमें कृषि कानूनों की समीक्षा की गई है और वह भी खुद उसकी ओर से गठित समिति की ओर से।
कोई नहीं जानता कि आगे क्या होगा, लेकिन इतना तय है कि आरोपों-प्रत्यारोपों के साथ एक-दूसरे को दोषी ठहराने का सिलसिला और तेज होगा। लखीमपुर की घटना के बाद ऐसा होता हुआ दिख भी रहा है-ठीक वैसे ही जैसे लाल किले की घटना के बाद हुआ था। नि:संदेह यह भी तय है कि यदि सरकार और किसान संगठनों के बीच गतिरोध नहीं टूटा तो लाल किले और लखीमपुर खीरी जैसी घटनाएं आगे भी होंगी। ये घटनाएं और अधिक हिंसक भी हो सकती हैं और माहौल बिगाड़ने के साथ कानून एवं व्यवस्था को चुनौती देने वाली भी।
(लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं)
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