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- कर्म नहीं तो भाग्य...
मनीष कुमार चौधरी; अगर आम लोगों से पूछा जाए कि वह क्या है तो अधिकांश मामलों में उत्तर यही आएगा कि भाग्य ईश्वर द्वारा निर्धारित होता है और जिसके भाग्य में जो लिखा होता है, वही होता है। वास्तव में अगर हम इसी अर्थ में भाग्य को मान लें तो फिर कर्म और प्रतिफल की पूरी व्यवस्था ही बाधित हो जाएगी। अगर हर व्यक्ति के साथ वही होता है जो उसके भाग्य में है तो फिर उसका अपना अधिकार, उसके होने का अर्थ ही समाप्त हो जाएगा और वह कठपुतली की भांति हो जाएगा।
यों 'किस्मत' शब्द फारसी से आया है और 'डेस्टिनी' अंग्रेजी का शब्द है। यह अवधारणा विदेशी है। भाग्यशाली और दुर्भाग्यशाली होना भी अब शोध का विषय बन चुका है। कुछ समय पहले एक खबर आई थी, जिसके मुताबिक ब्रिटेन की एक संस्था ने अखबार में विज्ञापन देकर प्रतिभागियों को आमंत्रित किया और उनके स्वभाव पर बाकायदा शोध भी हुए।
इन सवालों के जवाब ढूंढ़ने की कोशिश की गई कि कुछ लोग हर मौके से चूक जाते हैं और कुछ लोग जीवन में सब कुछ पा लेते हैं। सच तो यह है कि आपकी तैयारियों की मुलाकात जब अवसर से होती है, तो उसे 'भाग्य' कहते हैं। शोध में पाया गया कि अपने आपको भाग्यहीन समझने वाले लोग अपेक्षाकृत ज्यादा तनाव में रहते हैं। वे उन अवसरों या मौकों पर नजर नहीं डाल पाते, जहां बाकी लोगों की पैनी नजर होती है।
जो लोग अपने को भाग्यशाली समझते हैं, भले ही तकदीर या भाग्य की मेहरबानी का कारण न जानते हों, लेकिन उनके जीवन का नजरिया और सोच ही उन्हें जिंदगी में सबसे आगे रखती है। अपने आप को भाग्यहीन समझने वाले लोग भाग्य को बहाने के रूप में इस्तेमाल करते हैं। ऐसे लोग नए अवसरों को यह कह कर ठुकरा देते हैं कि वे तो बचपन से ही अभागे हैं। दिलचस्प यह है कि खुद को भाग्यशाली समझने वाले लोग अक्सर जीवन में शुभ शकुनों को याद रखते हैं।
उधर खुद को भाग्यहीन मानने वाले लोग अपशकुनों को भूल नहीं पाते और अपनी विफलता के लिए बार-बार उन्हें दोषी ठहराते हैं। आमतौर पर बहुत सारे लोग अपने साथ हुए हादसों से लेकर कई तरह के नुकसानों को भी सह जाते हैं तो उसके पीछे भाग्य पर आसरा होता है। वे भाग्य का लेखा मान कर अपने दुख या नुकसान हो भी चुपचाप सह जाते हैं। कई बार वैसी बातों पर भी, जिस पर प्रतिक्रिया एक स्वाभाविक अपेक्षा होती है।
अब इसके बरक्स भाग्य को दार्शनिकता के तराजू पर तौलें तो कुछ और ही सामने आता है। एक सामान्य-सी धारणा है कि सारे मनुष्य ईश्वर की रचना है और ईश्वर सारे मनुष्यों से समान रूप से प्रेम करता है। फिर उसने किस आधार पर किसी के भाग्य में धन का सुख व आनंद लिखा और कुछ लोगों के भाग्य में निर्धनता, दुख व पीड़ा? धारणा के मुताबिक, भाग्य जब लिखा जाता है तो मनुष्य हर प्रकार की बुराई और अच्छाई से दूर होता है, यानी जो लोग भाग्य को इस अर्थ में स्वीकार करते हैं, उनके अनुसार भाग्य मनुष्य के जन्म के साथ ही लिख दिया जाता है।
उस समय मनुष्य न अच्छाई किए होता है और न ही बुराई। तो ईश्वर क्यों किसी के भाग्य में सुख व किसी के भाग्य में दुख लिखता है? क्या यह न्याय है कि कुछ लोगों को बिना कुछ अच्छा किए ही जीवन भर के लिए सुख दिया जाए और कुछ दूसरे लोगों को बिना कोई बुराई किए जीवन भर का दुख दे दिया जाए?
अनेक ऐसे लोग मिल जाएंगे जो कहने को भगवान पर भरोसा जताते हैं पर वास्तव में भरोसा करते नहीं हैं! जब अच्छे कर्म करते हैं तो कहते हैं कि ईश्वर सब देख रहा है, लेकिन जब बुरे कर्म करते हैं तब मान कर चलते हैं कि उन्हें कोई नहीं देख रहा, भगवान भी नहीं! कई बार ऐसा होता है कि जो लोग आस्तिक होते हैं वे नाकामयाब रहते हैं और नास्तिक कामयाब। इस तरह के परिणाम का कारण व्यक्ति खुद होता है। भाग्य का आस्तिक होने या न होने से कोई संबंध नहीं है। भाग्य अस्तित्व में तभी आता है, जब कर्म होता है।
मसला बस यह है कि व्यक्ति ने अपनी अहमियत को कितना समझा और अपने लिए कुछ करने के लिए खुद को कितना सक्रिय किया। जैसे प्रकाश के बगैर छाया संभव नहीं है, वैसे ही कर्म के बगैर भाग्य का लाभ संभव नहीं है। भाग्य कर्म का फल है। जो प्राणी जैसा कर्म करता है, उसे उसका फल मिलता है। वही फल भाग्य है। संस्कृत में कहावत है- 'जो काहिल और मूर्ख है, वह कहता है, 'यह भाग्य है।' लेकिन वह बलवान है, जो खड़ा हो जाता है और कहता है, 'मैं अपने भाग्य का निर्माण करूंगा।'