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- अगर लोहिया और जयप्रकाश...
हालांकि ऐसा कहते वक्त वे स्वाधीन भारत के इतिहास के काले अध्याय यानी आपातकाल को भूल जाते हैं, जिसकी पृष्ठभूमि बनी थी सत्ता तंत्र के भ्रष्टाचार के खिलाफ उभरे पहले गुजरात और फिर बिहार के छात्र आंदोलन से। जब जयप्रकाश ने इस आंदोलन की अगुआई संभाली तो इतिहास बदल गया। उस आंदोलन में तब भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को छोड़कर समाजवादी धारा, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ताओं की जबरदस्त हिस्सेदारी रही। इस आंदोलन में बड़ी भूमिका निभाने वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जेपी का पहला परिचय बिहार के अकाल के दौरान हुआ।
भाजपा के पूर्व महासचिव और जयप्रकाश आंदोलन में सक्रिय रहे गोविंदाचार्य कहते हैं, संघ के कार्य से जयप्रकाश का पहला संपर्क 1967 में बिहार के अकाल में सक्रिय स्वयंसेवकों के माध्यम से हुआ। तब नवादा जिले में अकाल पीड़ितों की सहायता में लगे स्वयंसेवकों के प्रकल्प को देखने के लिए जेपी आए थे। पिछले साल आई किताब जेपी मूवमेंट : इमरजेंसी एंड इंडियाज सेकेंड फ्रीडम ने जेपी और संघ के रिश्तों पर खूब कुहासा फैलाया है। इसके लेखक सेवानिवृत्त अधिकारी एमजी देवसहायम आपातकाल के दिनों में चंडीगढ़ के जिला मजिस्ट्रेट थे।
पीजीआइ चंडीगढ़ में नजरबंद जेपी की देखरेख की जिम्मेदारी देवसहायम की ही थी। देवसहायम ने पिछले दिनों एक साक्षात्कार में कहा है कि मोरारजी देसाई सरकार के पतन के बाद वे पटना गए थे और जेपी से मुलाकात की थी। तब जेपी ने उनसे कहा था कि वे एक बार फिर नाकाम हुए हैं। देवसहायम के अनुसार, जेपी ने उनसे कहा कि उन्होंने चंद्रशेखर को मंत्रिमंडल से बाहर रखकर जनता पार्टी का अध्यक्ष इसलिए बनवाया, ताकि वे जनसंघ के लोगों की दोहरी सदस्यता को खत्म कराएं। पर संघ ने ऐसा नहीं होने दिया।
समाजवादी धारा के उन दिनों युवा नेता रहे एक दिग्गज कांग्रेसी देवसहायम के इस दावे से इन्कार करते हैं। प्रखर समाजवादी नेता किशन पटनायक के एक सहयोगी का दावा है कि पटनायक जनता पार्टी की हर अंदरूनी बातों की चर्चा करते थे, लेकिन उन्होंने कभी नहीं कहा कि जनसंघ या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने जेपी से ऐसा कोई वादा किया था। जेल से रिहाई के बाद मुंबई की एक सभा में जयप्रकाश ने कहा था, मैं आत्म साक्ष्य के साथ कह सकता हूं कि संघ और जनसंघ वालों के बारे में यह कहना कि वे फासिस्ट लोग हैं, सांप्रदायिक हैं, सारे आरोप बेबुनियाद हैं।
देश हित में ली जाने वाली किसी भी कार्ययोजना में वे लोग किसी से पीछे नहीं हैं। बिहार आंदोलन में शामिल रहे द स्टेट्समैन के संपादक अजीत भट्टाचार्य ने जेपी नाम से उनकी जीवनी लिखी है। उसमें अजीत भट्टाचार्य ने लिखा है कि मार्च 1977 में चुनाव नतीजे आने के बाद सत्ता पर दावेदारी के लिए तीन धड़ों में जमकर खींचतान चल रही थी।
पहला खेमा जहां मोरारजी देसाई की अगुआई वाले संगठन कांग्रेस का था, तो दूसरा चौधरी चरण सिंह का भारतीय लोकदल और तीसरा जगजीवन राम की अगुआई वाला नवगठित लोकतांत्रिक कांग्रेस। भट्टाचार्य लिखते हैं कि जनसंघ के भी अच्छे-खासे सांसद चुनकर आए थे, लेकिन उन्होंने सत्ता की खींचतान में दिलचस्पी नहीं दिखाई।