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सम्पादकीय
अगर ठीक से लागू किया जाए तो 1991 का उपासना स्थल अधिनियम देश में शांति और सद्भावना स्थापित कर सकता है
Gulabi Jagat
21 May 2022 8:44 AM GMT
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अधिनियम का उद्देश्य स्पष्ट रूप से कहता है कि यह किसी भी पूजा स्थल के रूपांतरण को प्रतिबंधित करेगा
तपन वहल और अभिजीत आनंद :- पीवी नरसिम्हा राव (PV Narasimha Rao) के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार (Congress Government) के शासन काल के दौरान सांप्रदायिक सद्भाव और शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व को बनाए रखने और सुनिश्चित करने के इरादे से 1991 में उपासना स्थल (विशेष उपबंध) अधिनियम यानी The Places of Worship (Special Provisions) Act लागू किया गया था. इस अधिनियम का उद्देश्य प्रत्येक धार्मिक समुदाय को यह विश्वास दिलाना था कि उनके पूजा स्थलों को बिना किसी परिवर्तन या नुकसान के संरक्षित किया जाएगा.
हालांकि, 1991 में लागू किए गए इस अधिनियम की संवैधानिक वैधता को लखनऊ स्थित विश्व भद्र पुजारी पुरोहित महासंघ और सुप्रीम कोर्ट के वकील और बीजेपी नेता अश्विनी उपाध्याय की ओर से याचिका दायर कर सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है. मामला अभी शीर्ष अदालत में लंबित है. यह उल्लेख करना महत्वपूर्ण है कि अयोध्या फैसले में सुप्रीम कोर्ट की पांच-न्यायाधीशों की पीठ ने पहले ही इस अधिनियम की वैधता को बरकरार रखा है. अदालत की ओर से इस अधिनियम को सभी धर्मों की समानता सुनिश्चित करने के लिए हमारे देश की प्रतिबद्धता को दर्शाने वाला और हमारे संविधान की धर्मनिरपेक्ष विशेषताओं की रक्षा करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम बताया गया था.
1991 का अधिनियम क्या कहता है?
अधिनियम का उद्देश्य स्पष्ट रूप से कहता है कि यह किसी भी पूजा स्थल के रूपांतरण को प्रतिबंधित करेगा और यह सुनिश्चित करेगा कि उसका धार्मिक रूप वैसा ही रहे, जैसा कि वह 15 अगस्त, 1947 को अस्तित्व में था. अधिनियम में धारा 3 और धारा 4 इसी आधार पर तैयार की गई हैं. अधिनियम की धारा 3 किसी भी व्यक्ति द्वारा किसी भी धार्मिक संप्रदाय या वर्ग के पूजा स्थल के धर्मांतरण पर रोक लगाती है. वहीं अधिनियम की धारा 4 में यह स्पष्ट रूप से घोषित किया गया है कि किसी भी पूजा स्थल का रूप वही रहेगा जो स्वतंत्रता प्राप्ति के समय 15 अगस्त 1947 को था. साथ ही इस धारा में ये भी लिखा है कि 15 अगस्त 1947 को किसी स्थान के धर्म परिवर्तन से संबंधित किसी भी मौजूदा मुकदमे को अधिनियम शुरू होने के बाद समाप्त माना जाएगा और किसी भी अदालत में उसी मुद्दे पर आगे कोई मुकदमा या कानूनी कार्यवाही नहीं होगी.
अधिनियम में ये भी निर्धारित किया गया है कि किसी भी कानूनी कार्यवाही के तहत अदालत पूजा स्थल के उसी धार्मिक चरित्र को बनाए रखने की कोशिश करेगी जिसमें वह 15 अगस्त 1947 को मौजूद था. हालांकि यदि कोई वाद, अपील या कोई अन्य कानूनी कार्यवाही इस आधार पर स्थापित या दायर की जाती है कि 15 अगस्त 1947 के बाद ऐसे किसी स्थान के धार्मिक स्वरूप में धर्मांतरण हुआ है, तो उसका निपटारा 1991 के अधिनियम की धारा 4 (1) के अनुसार किया जाएगा. वहीं अगर कोई धारा 3 के प्रावधानों का उल्लंघन करता है या उकसाने का प्रयास या कृत्य करता है तो दोषी को धारा 6 के तहत तीन साल की कैद और जुर्माने की सजा देने का प्रावधान रखा गया है.
हालांकि कुछ ऐसे भी मामले हैं जिन पर यह अधिनियम लागू नहीं होता है. यह अधिनियम न तो किसी भी ऐसे पूजा स्थल पर लागू होता है जो एक प्राचीन और ऐतिहासिक स्मारक या पुरातात्विक स्थल है या फिर प्राचीन स्मारक और पुरातत्व स्थल और अवशेष अधिनियम, 1958 के तहत आती है. इसके अलावा ये पक्षों या अदालत द्वारा निपटाए गए किसी भी विवाद पर लागू नहीं होता है. वहीं अधिनियम की धारा 5 विशेष रूप से राम जन्म भूमि-बाबरी मस्जिद विवाद को इसके दायरे से बाहर करती है क्योंकि यह मामला पहले से ही लंबे समय से सार्वजनिक हो चुका था.
ज्ञानवापी मस्जिद विवाद में 1991 के अधिनियम की क्या प्रासंगिकता है
ज्ञानवापी मस्जिद मुद्दे की जड़ें 1991 में काशी विश्वनाथ मंदिर के भक्तों द्वारा दायर की गई एक याचिका से जुड़ी हैं. याचिका में दावा किया गया था कि यह मस्जिद एक मंदिर के ऊपर बनी है और इसलिए यहां हिंदुओं को पूजा करने की अनुमति होनी चाहिए. याचिका में यह भी अपील की गई है कि इस जमीन पर मुसलमानों के किसी भी तरीके के हस्तक्षेप को स्थायी रूप से रोका जाना चाहिए. कुछ समय पहले साल 2021 में, वाराणसी कोर्ट में हिंदू महिला भक्तों द्वारा एक याचिका दायर की गई थी जिसमें ज्ञानवापी मस्जिद क्षेत्र में प्राचीन मंदिर की मुख्य सीट पर अनुष्ठान के प्रदर्शन की बहाली का अनुरोध किया गया था.
अभी यह विवाद भारत के सर्वोच्च न्यायालय में विचाराधीन है. जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ और पीएस नरसिम्हा की सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने 17 मई, 2022 को वाराणसी के डीएम को निर्देश दिया है कि जहां शिवलिंग मिला है, उस क्षेत्र की सुरक्षा पर ध्यान दिया जाए, लेकिन इसके साथ ही मस्जिद में मुसलमानों को प्रार्थना और धार्मिक अनुष्ठान करने में कोई परेशानी भी नहीं आनी चाहिए. यहां ये बात गौर करने वाली है कि 1991 के उपासना स्थल (विशेष उपबंध) अधिनियम की धारा 4 के तहत ये नियम ऐसे किसी भी पूजा स्थल पर लागू नहीं होते हैं जो प्राचीन और ऐतिहासिक स्मारक या पुरातात्विक स्थल की श्रेणी में आती है या 1958 के प्राचीन स्मारकों और पुरातत्व स्थलों और अवशेषों के अधिनियम के अंतर्गत रजिस्टर की गई है.
1958 में लागू किए गए प्राचीन स्मारक और पुरातत्व स्थल और अवशेष अधिनियम के तहत प्राचीन स्मारक को इस तरह परिभाषित किया गया है – यह स्मारक ऐतिहासिक, पुरातात्विक या कलात्मक रुचि का होना चाहिए और इसका अस्तित्व कम से कम सौ वर्ष पुराना होना चाहिए. ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार, मुगल सम्राट औरंगजेब ने 16वीं शताब्दी में ज्ञानवापी मस्जिद का निर्माण करवाया था. इस तरह प्राचीन स्मारकों की परिभाषा और ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर देखा जाए तो ज्ञानवापी मस्जिद परिसर को प्राचीन स्मारकों की श्रेणी में रखा जा सकता है. अब अगर कोई पूजा स्थल एक प्राचीन स्मारक के रूप में स्थापित हो जाता है, तो इस तरीके से यह 1991 के अधिनियम के दायरे से भी बाहर हो जाता है.
किन बातों पर विचार करने की है जरूरत
अगर ज्ञानवापी मस्जिद के विवाद को ठीक से नहीं संभाला जाता है तो मथुरा की शाही ईदगाह मस्जिद के मुद्दे और तेजो महल को शिव मंदिर बताने वाली इलाहाबाद उच्च न्यायालय में दायर याचिकाएं बड़ा विवाद बन सकती हैं. नतीजतन देश का सामाजिक और सांप्रदायिक ताना-बाना प्रभावित हो सकता है और साथ ही भारतीय संविधान की धर्मनिरपेक्ष छवि भी कलंकित हो सकती है. साथ ही यह भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि अयोध्या मामले में फैसला सुनाते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि हमारे संविधान की एक मूलभूत विशेषता पीछे जाने की बजाय नई चीजों को खुले दिमाग से देखने और समझने की भी है. इसका अर्थ है कि हमें हमारे अधिकारों को प्रगतिशीलता से लेना चाहिए और समाज को पीछे की ओर ले जाने की बजाय आगे बढ़ाने का प्रयास करना चाहिए.
इसके अतिरिक्त, भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 295 में किसी धर्म का अपमान करने के इरादे से किसी पूजा स्थल को नष्ट, क्षतिग्रस्त या अपवित्र करने वाले को दो साल तक की कैद या जुर्माना या दोनों से दंडित करने का प्रावधान रखा गया है. 1991 का अधिनियम भारतीय संविधान की धर्मनिरपेक्ष विशेषता की रक्षा के लिए एक विधायी ढांचा है जो भारतीय संविधान की मूल संरचना भी है. हालांकि विधायिका ने उपासना स्थल अधिनियम, 1991 के अपवादों को स्पष्ट रूप से स्थापित किया है. अगर इस अधिनियम को इस तरह के विवादास्पद मामलों में ठीक से लागू किया जाता है, तो बेशक यह इसे लागू करने के इरादे – देश में लंबे समय तक शांति और सांप्रदायिक सद्भाव – को सुनिश्चित करने में मदद करेगा, और इससे न्यायालय का कीमती समय भी बचेगा.
(लेखक वकील और शोधकर्ता हैं. आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)
Gulabi Jagat
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