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- मुझे पुरस्कार मिल जाए...
प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद यदि मुझे पुरस्कार मिल जाए तो मेरे लिए अत्यंत हर्ष की बात होगी। परंतु यह हर्ष नितांत मेरा होगा। काश ! इसमें मेरे समानधर्मा साहित्यकार और सगे-संबंधी भी शामिल होते। वैसे साहित्य सेवा करते हुए मुझे तीस वर्ष का लंबा समय बीत गया है, अतः कोई भी संस्था-अकादमी चाहे तो मुझे अपने पुरस्कार-सम्मान से नवाज़ सकती है। परंतु बात वही है कि मुझे पुरस्कार मिल जाए तो यह अनहोनी साहित्य जगत को पचाना मुश्किल हो जाएगा। बिना पुरस्कार प्राप्त किए ही जब मेरे समकालीन समानधर्मा साहित्यकार मुझसे दुःखी रहते हैं, तो यदि कोई लक्खी पुरस्कार मिल गया तो वह राशि उनके कष्टों के साथ-साथ मेरे व्यक्तिगत कष्टों में कई गुणा वृद्धि करने के लिए जिम्मेदार नहीं होगी? एक बार मुझे एक स्थानीय संस्था ने मात्र माला पहनाकर तालियां बजवाई थी, उसमें भी मेरी खासी आलोचना हुई थी। लोगों ने इसे प्रायोजित कार्यक्रम बताया था। साहित्यकारों के घरों में कई दिनों तक मातमी धुनें बजती रही थीं। दरअसल मैं ठहरा अपनी धुन का साहित्यकार। थोड़ा रिज़र्व नेचर का होने से समानधर्मा मुझे अहंकारी और घमंडी मानने लगे हैं। उन्होंने मुझे व्यावसायिक लेखक होने का तोहफा दिया है। जबकि मैं देश की उन्हीं पत्र-पत्रिकाओं में लिखता रहा हूं, जिनमें वे लोग लिखते हैं।