सम्पादकीय

सब कुछ लुटा के होश में आए तो क्या किया, हिंदुस्तान और अमेरिका फिलहाल अपनी ही सोचें

Tara Tandi
20 July 2021 1:08 PM GMT
सब कुछ लुटा के होश में आए तो क्या किया, हिंदुस्तान और अमेरिका फिलहाल अपनी ही सोचें
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जनता से रिश्ता वेबडेस्क | संजीव चौहान| मौजूदा वक्त में हिंदुस्तान और अमेरिका सहित पूरी दुनिया किसी भी आंख से क्यों ना अफगानिस्तान में पैदा हाल-फिलहाल के हालातों को देख रही हो, मगर अब यह तय हो चुका है कि वहां के हालात बद से बदतर हो चुके हैं. चारो ओर त्राहि माम, खून-खराबा मतलब कत्ल-ए-आम मचा है. जितनी भीड़ जान लेने को हजारों-लाखों लोगों के पीछे भाग रही है. वहीं दूसरी ओर उससे कहीं ज्यादा भीड़ आगे-आगे खुद ही जान बचाने को बेतहाशा भाग रही है. मतलब बदतर हो चुके मौजूदा हालातों में अफगानिस्तान की सर-जमीं पर दो ही किस्म के लोग बचे हैं. एक मरने वाले दूसरे मारने वाले. बचाने वाले खुद को लाचार महसूस कर रहे हैं. और मददगारों के नाम पर जो थे वे भी अफगानिस्तान की सर-जमीं (अमेरिकी फौजें) से धीरे-धीरे ही सही मगर कूच करने लगे हैं. ऐसे में भी अफगानिस्तानी हुकूमत के अपने दावे हैं. तो वहीं दूसरी ओर खून-खराबे के बलबूते ही सही मगर तकरीबन उसके (अफगानिस्तान की मौजूदा हुकूमत) सिर के एकदम ऊपर पहुंच चुके खूंखार तालिबानी लड़ाकों के अपने दावे हैं.

चर्चायें इस बात की भी हैं कि अफगानिस्तान में बीते 20-21 साल से चल रहे 'मंगल' को अमंगल में तब्दील कराने के पीछे, पाकिस्तान और चीन का हाथ है. यह दोनो ही हिंदुस्तान के धुर-विरोधी हैं. मगर ऐसी खबरों और बातों पर विश्वास करने से पहले इसे भी नजरंदाज नहीं कर सकते हैं कि, चीन खुद के ऊंचे व्यापारिक/वाणिज्यिक हितों के लिए जिस मध्य एशिया तक का रास्ता बनाने में जुटा है, दरअसल अफगानिस्तान को उस सेंट्रल एशिया का 'दिल' कहा जाता है. ऐसे में चीन बखूबी जानता है कि अफगानिस्तान में बदलते मौजूदा हालातों और तालिबानी लड़ाकों की जिद के चलते, वहां गृहयुद्ध जैसे हालात बने तो, चीन और पाकिस्तान के लिए ही यह सबसे ज्यादा घातक साबित होगा. लिहाजा यह फिलहाल मुंहजुबानी बातों के और कुछ नहीं लगता है. हां, वहीं दूसरी ओर अंतरराष्ट्रीय खबरों के मुताबिक एक तरफ अफगानिस्तान के काबू से बाहर हो चुके हालातों को सकारात्मक ढर्रे पर लाने के लिए बैठकों का दौर जारी है. तो दूसरी ओर खून-खराबे से सत्ता को हथियाने के लिए दुनिया-जहान में बदनाम तालिबानी लड़ाके देश में मार-काट करने पर दिन-रात उतारू हैं.

सबके अपने-अपने दावे

अफगानिस्तान में चारों ओर मचे कोहराम के कानफोड़ू शोर में भी मौजूदा अफगानिस्तानी हुकूमत, चीख-चीख कर दुनिया को बताने सुनाने की कोशिश कर रही है कि, देश में सिर्फ एक तिहाई हिस्से पर ही तालिबानियों का कब्जा हुआ है. उधर हुकूमत के इन दावों के एकदम विपरीत तालिबानी लड़ाकों और उनके आकाओं का खुला दावा है कि उन्होंने, अफगानिस्तान के 85 फीसदी हिस्से को अपने कब्जे में ले लिया है. अफगानिस्तान की राजधानी काबुल से वह यानि तालिबानी लड़ाके चंद किलोमीटर की दूरी पर ही हैं. छोड़िए यह दावे उन सबके अपने-अपने हैं. हमें तो ऐसे में सोचना है उस हिंदुस्तान और अमेरिका का जिसने बीते करीब दो दशक में अफगानिस्तान को सजाने-संवारने और संजोने के लिए अपने अरबों-खरबों डॉलर वहां पानी की तरह बहा दिए हैं. खबरों के मुताबिक अगर अमेरिका की ही बात की जाए तो वो, अफगानिस्तान को बचाने की गफलतें पाले हुए अब तक वहां करीब 10 खरब डॉलर और अपनी फौज के चार हजार से ज्यादा बेकसूर सैनिकों को शहीद करवा चुका है.

सेना वापिसी का फैसला कितना सही

अब जब बात अफगानिस्तान को असल में महफूज रखने की आई तो अमेरिका ने अपनी सेना को वापिस बुलाने का ऐलान कर दिया. सच पूछा जाए तो यही तो समय था कि 20 साल से अफगानिस्तान की हिफाजत के नाम पर डेरा डाले रहने वाली अमेरिकी फौज अब, तालिबानी लड़ाकों को माकूल जवाब देकर उनके रास्ते में अड़ जाती. ताकि अमेरिका की भी अब तक की मेहनत-सब्र पर अचानक पानी नहीं फिरता. अफगानिस्तान में हजारों बेकसूरों कत्लेआम के शिकार होने के चलते अकाल मौत के मुंह में जाने से बचा लिए गए होते. साथ ही अफगानिस्तान को भी लगता कि हां वाकई अमेरिका उसकी फौजों ने उसके वास्तव में बुरे वक्त में अपना कंधा न खींचकर अंत समय तक साथ तो दिया. दूसरे आने वाले वक्त में अमेरिकी फौज से अब के हारे हुए तालिबान लड़ाके जमाने में किसी के सामने मुंह दिखाने के काबिल भी नहीं बचते. खैर छोड़िए यह अमेरिका जाने की आखिर उसने इस वक्त अफगानिस्तान के लिए जब करो और मरो वाली परिस्थिति है तब अपने पांव पीछे खींचकर सेना को अफगानिस्तान से क्यों बुला लिया? हां, इतना जरूर है कि आने वाली हमारी पीढ़ियां अमेरिका के इस कदम को धिक्कारेंगीं सो धिक्कारेंगी. अमेरिका ने 10 खरब से ज्यादा का जो गोला-बारूद बीते 20-21 साल में अफगानिस्तान में झोंका. जिस तरह से अमेरिका ने अपनी सेना के हजारों बेकसूर जवानों को अफगानिस्तान की सरजमी पर उन्हें अपना खून बहाने को मजबूर कर दिया. इस सबके लिए तो उसकी (अमेरिका) आने वाली पीढ़ियां भी उसके आज के अपनों (बीते 20-21 साल से लेकर अब तक के अमेरिकी हुक्मरानों को) को आने वाले कल में भी शायद कभी माफ नहीं कर सकेंगी.

दुश्मनी और दोस्ती हमारी ईमानदारी सबमें

चलिए छोड़िए भी चीन, पाकिस्तान और अमेरिका को. वे सब काल-पात्र समय के हिसाब से खुद को कहीं भी कभी भी तोड़-मरोड़-मोड़ सकते हैं. असल समस्या है अब हिंदुस्तान की. उस हिंदुस्तान की जो दोस्ती और दुश्मनी दोनो ही एकदम 'ईमानदारी' से निभाता है. मतलब उस भारतीय हुकूमत की बात जो हमेशा सच्ची दोस्ती में ही विश्वास करती है. उस हिंदुस्तानी हुकूमत की बात जो दुश्मन को छेड़ती नहीं. दुश्मन ने अगर छेड़ा तो वो उसके घर-बार, कुनबा-खानदान तक को जीने और मुंह दिखाने लायक 'छोड़ती' नहीं. जैसा कि 'ऊरी अटैक' के बाद हिंदुस्तानी फौज ने पाकिस्तान को उसके घर में घुसकर औकात बता दी थी. हम बात कर रहे हैं उस 'सर्जिकल स्ट्राइक' के जिसमें सैकड़ों पाकिस्तानी आतंकवादी और उनके कैंप तबाह हो गए. पाकिस्तान उस तबाही का मातम भी खुलकर नहीं मना सका. क्योंकि उसके आंसूओं पर जमाना हंसता है और वो खुद ही हिंदुस्तानी फौज के कसीदे दुनिया भर से पढ़वा देता है. ऐसे मजबूत ईमान वाले दोस्त हिंदुस्तान ने जब अफगानिस्तान को उसके पांव पर खड़ा होने में मदद करना शुरू किया तो फिर बीते दो दशक में कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा. न किसी की परवाह की. न अपने नफा-नुकसान के हिसाब-किताब की कोई डायरी ही कभी बनाई.

दोस्ती निभाई अहसान नहीं किया

एक ईमानदार सच्चे दोस्त की तरह एक बार जो अफगानिस्तान का सिर अपने कंधों पर मदद के वास्ते रखा तो रख ही लिया. अफगानिस्तान को कभी कोई अहसान जताए बिना. न ही फिर कभी हिंदुस्तान ने अफगानिस्तान को बीते 20-21 साल में यह मौका दिया कि वो अपने मुंह से अपनी जरूरतें बयान करे, तभी उन्हें पूरा किया जाएगा. हिंदुस्तान में भले ही इन 20 वर्षों में हुकूमत किसी भी पार्टी की रही हो. बात मगर जब भी अफगानिस्तान का सहयोग और उसकी मदद की आई, तो हिंदुस्तान की हर हुकूमत ने अपने खजाने का मुंह खुशी-खुशी उस दिशा में खोल दिया जिधर, हिंदुस्तान को अफगानिस्तान की जरूरतें खड़ी नजर आईं. हिंदुस्तान ने हमेशा बेफिक्री के आलम में और अफगानिस्तान को बिना किसी अहसान का अहसास कराते हुए हर वो रास्ता मजबूत मन से खोल दिया, जो अफगानिस्तान को विकास की ओर ले जाता था. यही वजह है कि आज जब तालिबानी लड़ाके सत्ता की खातिर अफगानिस्तान की जमीन को, बेकसूरों के खून से सराबोर करने में भी बाज नहीं आ रहे हैं, तब वहां की तबाही का वो शोर हिंदुस्तान को भी सीधे-सीधे प्रभावित कर रहा है.क्योंकि हिंदुस्तान, कभी भी अफगानिस्तान का 'साहूकार' नहीं बल्कि एक ईमानदार दोस्त और मददगार रहा है.

खून-खराबे से ही आखिर सत्ता क्यों?

हां, इतना जरूर है कि अफगानिस्तान की आज हो रही तबाही की चुभन कहीं न कहीं महसूस तो हिंदुस्तान को भी हो रही है. उसे भी बुरा लग रहा होगा कि जिस "अपने अजीज" दोस्त को पालने-पोसने और उसकी खुशियां उसे वापिस दिलाने में जो भी ईमानदार प्रयास किए थे, वे सब कोशिशें या प्रयास आज वहां बेकाबू हुए तालिबान लड़ाकों के पावों तले कुचली या कुचले जा रहे हैं. हिंदुस्तान को ग़म या शिकवा इसका नहीं होगा कि उसने करीब अरबों-खरबों डॉलर अफगानिस्तान पर उसके 'पांव मजबूत' करने में खर्च दिए. अफसोस इस बात का है कि आज तालिबान उस बड़ी रकम से मजबूत किए गए अफगानिस्तान के उन्हीं 'पांवों' को खुद ही काटने-तोड़ने पर आमादा है. एक सच्चा दोस्त होने के नाते हिंदुस्तान को आज अगर अफसोस या फिर कहिए कोफ्त होगा तो शायद इस बात का कि, जिस अफगानिस्तान को दुनिया की नजरों में उसके अपने मजबूत पांवों पर खड़ा करने का सपना संजोया था. भारत का वो हसीन सपना आज 20 साल बाद भी जमाने के सामने टूटता-बिखरता दिखाई दे रहा है. मौजूदा वक्त की हुकूमत हो या फिर हिंदुस्तान की आगे आने वाली पीढ़ियां हर किसी के जेहन में एक सवाल तो जरूर कौंधता रहेगा कि अगर, तालिबानी लड़ाकों को अफगानिस्तान की सत्ता ही चाहिए थी तो फिर, उसने हिंदुस्तान को कथित रूप से ही सही, अफगानिस्तान में दरकिनार करके खून की होली खेलने का रास्ता आखिर क्यों खेला? उसे तो हिंदुस्तान ने हंसता-खेलता, हरी बेल सा बढ़ता-पौंढ़ता हुआ एक मजबूत और खूबसूरत अफगानिस्तान दिया था.

आग से बचे तो धुंए के काले बादल छाएंगे

हां, अंत में हमें नहीं भूलना चाहिए विशेषकर अफगानिस्तान के मौजूदा बदतर हालातों के परिप्रेक्ष्य में कि, वहां लगी आग की चपेट से भले ही आज हम खुद को बचा ले जाएं. खुद को अपने अपने मकानों में बंद कर लें. मगर आने वाले वक्त में अफगानिस्तान का भी पड़ोसी शुभचिंतक या दुश्मन वहां लगी आज की आग से हमेशा खुद को महफूज रख पाएगा. इसमें संदेह जरूर करना चाहिए. चाहे वो पाकिस्तान हो, चीन, भारत, या फिर रूस कोई भी क्यों न हो. आज अफगानिस्तान में उठ रही लपटों से अगर आज हम खुद को निकाल भी ले गए, तो आने वाले कल में अफगानिस्तान में आज मची तबाही का धुँआ या उसके बादल आयेंगे-मंडराएंगे तो पड़ोसी देशों के ऊपर भी. अफगानिस्तान में मचे घमासान को लेकर और आज के संदर्भ में हाल-फिलहाल तो इतना ही कहा जा सकता है कि, जमाने में कोई सोचे न सोचे. किस पर क्या फर्क पड़ेगा या नहीं पड़ेगा. सब बेईमानी है. हां, इतना जरूर है कि अमेरिका और हिंदुस्तान ने जिस तरह अफगानिस्तान की हिफाजत के लिए, उसकी प्रगति के लिए जिस समर्पित तन-मन-धन से खुद को न्यौछावर किया था. उसे हम आप भले कुछ न पूछें-बोले , मगर हमारे और अमेरिका के बारे में जमाने में कभी कोई न कोई तो पूछ ही सकता है कि, सब कुछ लुटा के होश में आए तो क्या किया…..?


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