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आगामी उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों की कमान संभाले प्रियंका गांधी के नेतृत्व में ये नया नारा है
मनीषा पांडेय "लड़की हूं, लड़ सकती हूं."
आगामी उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों की कमान संभाले प्रियंका गांधी के नेतृत्व में ये नया नारा है कांग्रेस का. साथ ही 40 फीसदी पार्टी टिकट महिला उम्मीदवारों को देने की घोषणा भी. विपक्ष इस नारे और इस घोषणा में चाहे कितनी सियासत खोज ले, इस देश में जन्मी कोई ऐसी लड़की नहीं, जो इस बात के मर्म को जानती-समझती न हो. जिसने इसे जिया न हो. जिस लड़की को जन्म लेने तक के लिए लड़ाई लड़नी पड़ती हो, उसका तो पूरा जीवन ही छोटी-बड़ी तमाम लड़ाइयों का कभी न खत्म होने वाला सिलसिला है.
कांग्रेस पर पलटवार करते हुए विपक्ष इसे 'जाति की राजनीति' के जवाब में 'जेंडर की राजनीति' कह रहा है. जाति के जवाब में प्रियंका गांधी ने जेंडर का कार्ड खेला है. अगर ये जेंडर का कार्ड भी है तो भी ये मौजूदा सियासत का सबसे जरूरी और सबसे क्रिटिकल कार्ड है.
सवाल ये है कि बाकी पार्टियों का ध्यान जेंडर के इस बेहद जरूरी कार्ड पर अब तक क्यों नहीं क्या. भारतीय राजनीति के इतिहास में ऐसे मौके उंगलियों पर गिने जा सकते हैं, जब किसी पार्टी ने महिलाओं के समान राजनीतिक प्रतिनिधित्व का सवाल उठाया हो या इससे जुड़ा कोई बड़ा फैसला ही लिया हो. 2019 के आम चुनावों से पहले उड़ीसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने अपनी पार्टी बीजू जनता दल की तरफ से 33 फीसदी टिकट महिला उम्मीदवारों के लिए आरक्षित किए जाने की घोषणा की. 2020 में पंजाब सरकार ने पंजाब सिविल सर्विसेज में महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण दिए जाने का प्रस्ताव पास किया.
प्रियंका गांधी ने इंस्टाग्राम पोस्ट की
ऐसे चंद उदाहरणों के अलावा बाकी संसद और राजनीति में महिलाओं के समान प्रतिनिधित्व और उनके रिजर्वेशन के मुद्दे पर ज्यादातर चुप्पी ही रही है. संसद में महिलाओं के लिए 33 फीसदी सीट रिजर्व करने का मुद्दा पिछले 47 सालों से लटका हुआ है. 1974 में पहली बार राजनीति में महिलाओं का समान प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिए संसदीय सीटों पर उन्हें 33 फीसदी आरक्षण दिए जाने की बात कही गई. 1996 में देवगौड़ा सरकार के समस पहली बार महिला आरक्षण बिल संसद में पेश हुआ. इतिहास गवाह है कि समाज के अन्य पिछड़े वर्गों के के हक-हुकूक की राजनीति करने वाले मर्दों के भी कान औरतों के रिजर्वेशन का नाम सुनते ही लाल हो गए थे. संसद में जमकर जूतम-पैजार हुई. शरद यादव ने संसद में कहा, "इससे सिर्फ परकटी महिलाओं को फायदा होगा." उसके बाद 1998, 1999, 2002 और 2003 में बार-बार इस बिल को संसद में पेश किया गया, लेकिन नतीजा हर बार सिफर ही रहा. वर्ष 2010 में, जब मनमोहन सिंह की सरकार थी, तो फाइनली ये बिल राज्य सभा में तो पास हो गया, लेकिन लोकसभा में उसकी तकदीर का फैसला तब भी नहीं हो पाया.
आज तक ये बिल लोकसभा में अटका हुआ है. 25 साल हो गए. आजाद भारत के इतिहास में कोई बिल इतने लंबे समय तक पास होने की बाट जोहता अटका नहीं रहा है. लेकिन औरतों के प्रति इस देश के मर्दों का रवैया देखकर तो लगता है कि 25 साल अभी और कुछ होने नहीं वाला. आधी सदी का रिकॉर्ड तो ये बिल बनाएगा ही.
संसद मे रिजर्वेशन बिल पास हो जाता तो कांग्रेस को ये जेंडर कार्ड खेलने की जरूरत ही नहीं पड़ती. पार्टी कोई भी हो, आरक्षित सीट से महिला उम्मीदवार को ही टिकट देना पड़ता. लेकिन चूंकि मर्द उस बेहद जरूरी और अनिवार्य बिल पर कुंडली मारकर 25 साल से बैठे हुए हैं तो प्रियंका गांधी की ये घोषणा कि वो 40 फीसदी टिकट महिला उम्मीदवारों को देने वाली हैं, न सिर्फ जेंडर कार्ड, बल्कि सबसे जरूरी, सबसे क्रिटिकल कार्ड है.
40 फीसदी आरक्षण की घोषणा करते हुए ऑल इंडिया कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा कि यह फैसला उन्नाव की उस लड़की के लिए है, जिसे जिंदा जला दिया गया. यह फैसला हाथरस की उस मां के लिए है, जिसने मुझे गले लगाकर कहा कि उसे न्याय नहीं मिल रहा. यह फैसला रमेश कश्यप के लिए है (उस स्थानीय पत्रकार की बेटी, जो लखीमपुर खीरी की हिंसा में मारा गया), जो बड़ी होकर डॉक्टर बनना चाहती है. यह फैसला उत्तर प्रदेश की हर उस लड़की के लिए है, जो बदलाव, बराबरी और न्याय चाहती है.
प्रियंका गांधी
यह जेडर कार्ड का चुनाव में कांग्रेस को कितना फायदा होगा, यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा, लेकिन इतना तो तय है कि इस तरह की घोषणाएं भारतीय राजनीति के मुख्यधारा नरेटिव को बदलने का काम तो कर ही रही हैं. पिछले कई आम और विधानसभा चुनाव इस बात का प्रमाण हैं कि औरतों के वोट चुनावी जीत के लिए कितने मायने रखते हैं. चाहे इस बार का बंगाल चुनाव हो या बिहार में नीतीश कुमार को जिताना हो, मर्दों से ज्यादा प्रतिशत औरतों के वोट का रहा है और अंत में औरतों के भारी वोट के कारण ही ममता बनर्जी और नीतीश कुमार को चुनाव में जीत हासिल हुई.
अगर औरतों का वोट मायने रखता है तो औरतों के मुद्दे और उनकी जिंदगी से जुड़े सवाल मायने क्यों नहीं रखते. उनके लिए न्याय और बराबरी का मुद्दा मायने क्यों नहीं रखता. आज की तारीख में दुनिया के 50 से ज्यादा देशों में संसद में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 53 से 45 फीसदी तक है. रवांडा की संसद में 61 फीसदी महिलाएं हैं, क्यूबा और बोलिविया में में 53 फीसदी, स्वीडन में 47 फीसदी, फिनलैंड और स्पेन में 41 फसदी, फ्रांस में 39 फीसदी और यहां तक कि अर्जेंटीना में भी संसद में 38 फीसदी महिलाएं हैं. भारत में महज 11 फीसदी महिलाएं हैं. जिन भी देशों ने संसदीय प्रतिनिधित्व में जेंडर बराबरी का लक्ष्य हासिल किया है, वह बिना रिजर्वेशन के मुमकिन नहीं हुआ है. नियम-कानूनों में बदलाव करके इस प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित किया गया है.
25 साल से अटका महिला आरक्षण का बिल भारत के लिए कोई बहुत गर्व की बात नहीं है. अंतरराष्ट्रीय मंचों पर दुनिया के विकसित देशों की बराबरी का दावा करने वाले भारत को जेंडर बराबरी के लक्ष्य को हासिल करने में भी बराबरी करनी चाहिए. और वो औरतों को राजनीति में समान प्रतिनिधित्व दिए बिना मुमकिन नहीं होगा.
अब देखना ये है कि क्या कांग्रेस अन्य राज्यों के आगामी विधानसभा चुनावों में भी महिलाओं को 40 फीसदी आरक्षण देती है और कांग्रेस के जेंडर कार्ड का मुकाबला करने के लिए बीजीपी और अन्य पार्टियां भी इससे बेहतर जेंडर कार्ड चलती हैं.
पार्टियों की कोशिश भले सिर्फ चुनाव जीतने की हो, हम औरतों की कोशिश तो ये है कि ये सूरत बदलनी चाहिए.
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