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- इस इलाज में आदर्श
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By: divyahimachal
आदर्श अस्पतालों के नए मायनों में स्वास्थ्य मंत्री का बयान आशा जगाता है, लेकिन सरकारी इमारतों के बंद कान खोलने के लिए जनता की आवाज को सुनना पड़ेगा। भले ही स्वास्थ्य मंत्री धनी राम शांडिल के रिकार्ड मुताबिक 26 विधानसभा क्षेत्रों के अस्पताल आदर्श हो गए हों, लेकिन जनता की निगाहों, अनुभवों और सरकारी सेवाओं के ढर्रे भी क्या आदर्श स्थापित कर पा रहे हैं। बेशक आगे चलकर पहले 34 विधानसभा क्षेत्र और फिर समस्त 68 विधायकों के चुनावी क्षेत्रों की जनता को स्वास्थ्य विभाग आदर्श होने का सबूत देगा। दरअसल आदर्श का सबूत तो आलीशान इमारतें और उनके भीतर सरकारी पगार से सुसज्जित काई नौकरी पेशा हो सकता है, लेकिन आदर्श के अर्थ स्थापित करने की एक व्यवस्था, मानिटरिंग व संवेदना चाहिए। निश्चित रूप से सरकारें बहुत कुछ करती रही हैं और मौजूदा सरकार ने भी व्यवस्था परिवर्तन के नाम पर चिकित्सा विभाग की कार्यशैली बदलने के उपाय ढूंढे हैं, लेकिन जहां मरीजों को रैफर करने की आपसी सहमति से स्वास्थ्य के आदर्श चल रहे हों, वहां इस तंत्र को तोड़े बिना शायद ही वास्तविकता बदले। हिमाचल के स्वास्थ्य मंत्री पहले यह पता लगाएं कि प्रदेश के नागरिक, क्षेत्रीय या जोनल अस्पतालों से हर दिन कितने मरीज मेडिकल कालेजों को धकेले जाते हैं। हर दिन विभिन्न मेडिकल कालेजों से मरीज एक से दूसरी ओर या पीजीआई तथा जालंधर-लुधियाना के अस्पतालों को धकेले जाते हैं। जिस इमर्जेंसी सेवा के नाम पर सरकार ने आते ही स्थिति सुधारने का प्रण लिया था, वहां का बिस्तर सिर्फ औपचारिकता है और अनमने से ड्यूटी पर डाक्टर सिर्फ मरीज को एंबुलेंस से उतार कर दूसरी पर चढ़ा देता है।
रात्रिकालीन सेवाओं में इतनी भी इनसानियत नहीं कि मरीज को बचाने के लिए एक नेक सलाह ही दे दी जाए। श्रीमान स्वास्थ्य मंत्री महोदय यह पता लगाएं कि प्रमुख क्षेत्रीय या जोनल अस्पतालों की इमर्जेंसी में आकर कितने मरीज दाखिल होते हैं और कितने निजी अस्पतालों के मत्थे मढ़ दिए जाते हैं। रात के वक्त जिला स्तरीय अस्पतालों के टेस्टों, अल्ट्रासाउंड या एक्सरे मशीनों को क्यों सांप सूंघ जाता है। जरा यह भी देख लें कि सरकारी अस्पतालों के टेस्टों, अल्ट्रासाउंड या एकसरे के नतीजों को कितनी गलती से पढ़ा जाता है। खुदा के लिए डाक्टरों व अन्य स्टाफ को कार्य संस्कृति सिखाइए, नहीं तो पीजीआई से ही मालूम कर लें कि रैफर हुए मामलों की लिखावट में वहां कितने दोष निकलते हैं। यह तब भी साबित होता है जब सूबे के मंत्री या मुख्यमंत्री को इलाज के लिए चंडीगढ़ या दिल्ली की राह पकडऩी पड़ती है। दरअसल शिक्षा-चिकित्सा से जुड़ी वचनबद्धता के बजाय हिमाचल ने इनके नाम पर मीनारें खड़ी की हैं, वरना एंबुलेंस सेवाओं के रिकार्ड बताते हैं कि रैफर मरीजों के काफिले हर दिन बाहरी राज्यों से मौत की खबर को ही वापस ले आते हैं। जिन छह विभागों की खेप में आदर्श अस्पताल को हर विधानसभा क्षेत्र में सजाना है, उससे पहले यह तो पता कर लें कि बारह जिला अस्पतालों में विशेषज्ञों के कितने पद खाली हैं। कहीं डाक्टर है तो उपकरण नहीं और कहीं उपकरण है तो डाक्टर नहीं, फिर भी आदर्श अस्पतालों की जरूरत को नकारा नहीं जा सकता। शर्त सिर्फ यह होनी चाहिए कि आइंदा हर विधायक अपनी-अपनी बीमारी का अपने ही हलके के आदर्श अस्पताल में इलाज कराएंगे। ऐसे में जब स्वास्थ्य मंत्री का उपचार सोलन अस्पताल और मुख्यमंत्री का इलाज नादौन के अस्पताल में संभव हो पाएगा, आम जनता का विश्वास वापस सरकारी चिकित्सा पद्धति में लौट आएगा, वरना हिमाचल के निजी स्कूलों के बाद अब निजी अस्पतालों की बाढ़ में गुणवत्ता के बहने का खतरा बढ़ रहा है।
Rani Sahu
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