सम्पादकीय

मृत्यु प्रमाण पत्र पाने की प्रतीक्षा में आईसीसी के घाटशिला-मुसाबनी के स्कूल !

Rani Sahu
24 Sep 2022 8:38 AM GMT
मृत्यु प्रमाण पत्र पाने की प्रतीक्षा में आईसीसी के घाटशिला-मुसाबनी के स्कूल !
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मित्रेश्वर अग्निमित्र

by Lagatar News

घाटशिला-मुसाबनी के औद्योगिक क्षेत्र में आइसीसी के कई स्कूल हैं. बीस बरस पहले इन्हें रफ्ता-रफ्ता मारने का सिलसिला शुरू हुआ. इसके संस्थापकों ने ही पूरी बेशर्मी से वह सपोर्ट सिस्टम हटा लिया जिस पर इनकी सांसें टिकी थीं. आज मुझे अन्याय, अराजकता और अत्याचार की वही ट्रैजिक कहानी सुनानी है जिसे घटते हुए मैंने देखा है. कहानी के किरदार हैं भारत सरकार का उद्यम हिन्दुस्तान कापर लिमिटेड (HCL) की एक इकाई आईसीसी और इस आईसीसी के स्चूलों में नियुक्त शिक्षक और कर्मचारी.
कंपनी ने विद्यालयों के संचालन का विधिवत दायित्व लिया
आईसीसी का कारखाना और खदानें झारखंड प्रांत के पूर्वी सिंहभूम जिले के घाटशिला और मुसाबनी प्रखंड में अवस्थित हैं. पहले यह एक प्राइवेट कंपनी थी. वर्ष 1972 में भारत सरकार के उद्यम हिन्दुस्तान कॉपर लिमिटेड ने इसका टेकओवर कर लिया. प्राइवेट कंपनी अपने कर्मचारियों के बच्‍चों के लिये स्कूल चलाती थी, उसका भी अधिग्रहण साथ-साथ ही हो गया. टेक ओवर के बाद भी एचसीएल/आईसीसी ने कुछ विद्यालय और खोले- मिडिल, हाई और प्लस-2 भी. ऐसे सभी विद्यालय कंपनी प्रबंधन के आवेदन पर प्रांतीय सरकार की अनुमति से खोले गए. कंपनी ने विद्यालयों के संचालन का विधिवत दायित्व लिया. कंपनी ने खुद इनके संचालन के लिये प्रबंध समितियां गठित कीं. अपनी सुविधा के अनुसार कंपनी ने कमिटी में बार-बार बदलाव किए.
'सरकारीकरण' करने का प्रस्ताव कंपनी हर बार खारिज करती रही
प्रांतीय सरकार ने कम-से-कम तीन बार इन विद्यालयों का 'सरकारीकरण' करने का प्रस्ताव कंपनी को दिया. मगर, हर बार कंपनी ने प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया. कंपनी ने हर बार लिखित अंडरटेकिंग दिया कि संचालन की सारी जिम्मेदारी कंपनी की होगी और वही समस्त वित्तीय भार वहन करेगी. इस प्रकार कंपनी ने अपनी जिम्मेदारी स्पष्ट की. सरकार की वित्तीय सहायता लेने से मना भी कर दिया. सभी स्कूल स्वत्वाधारी (proprietory) संस्थाओं की तरह संचालित होने लगे. सरकारी प्रावधानों का अनुपालन होने लगा. कंपनी ने अपने शिक्षकों और कर्मचारियों के लिए खुद 'सेवा शर्तें' भी बनाईं. सभी छह विद्यालय कंपनी की अनुषंगी इकाइयों की तरह काम करते रहे. कंपनी के मजदूरों को मिलने वाली सुविधाएं मसलन, मुफ्त चिकित्सा, क्वार्टर, सस्ते दर पर राशन, सस्ते दर पर बिजली, ईंधन आदि सुविधाएं इन्हें मुहैया होती थीं.
2002 से कंपनी ने विद्यालयों के लिये धन देना स्थगित कर दिया
वर्ष 2002 तक सब कुछ संतोषजनक चलता रहा. उसी वर्ष आईसीसी ने आर्थिक संकट के नाम पर विद्यालयों के लिये धन देना स्थगित कर दिया. इससे वेतन रुक गया. बाध्य होकर शिक्षकों को उच्च न्यायालय की शरण लेनी पड़ी. माननीय झारखंड उच्च न्यायालय में बहस के दौरान कंपनी ने स्कूलों के लिये राहत पैकेज की बात की और स्वैच्छिक सेवा-निवृति योजना पर सहमति दिखाई. झारखंड उच्च न्यायालय में मामले की सुनवाई के दौरान प्रार्थी के अधिवक्त्ता ने न्यायालय को सूचित किया कि वेतन के संबंध में उनके मुवक्किल ने कोई निर्देश नहीं दिया है. दुर्भाग्य की शुरुआत यहीं से हुई. न्यायालय ने कंपनी को स्कूलों को 'पूर्ववत' संचालित रखने का आदेश दिया जबकि वेतन के प्रश्न पर मामले के फैसले के समय निर्णय करने की बात कही. कंपनी को वेतन बंद रखने की वजह मिल गई. तब स्कूल चलते रहे, वेतन स्थगित रहा- अचरज समझिए! प्रार्थी के अधिवत्ता ने वेतन के संबंध में प्रार्थना नहीं की क्योंकि उन्हें कोई निदेश शिक्षकों ने नहीं दिया था. शिक्षकों के लिये अपने वकील से यथासमय सम्पर्क करना भी बहुत खर्चीला काम था.
किस अधिकारी ने वेतन बंद करने का आदेश दिया आज तक नहीं पता
तभी से विद्यालय चलते रहे, वेतन बंद रहा. आज तक यह ज्ञात नहीं हो सका है कि, विद्यालयों के लिये वेतन स्थगित रखने का आदेश किस सक्षम अधिकारी ने कब और क्यों दिया? किस आधार पर कार्यरत शिक्षकों का वेतन बंद किया गया? जब रोटी की फिक्र हो तब, कौन चला सके मुकदमा! कमजोर कलाई कैसे उठाए परचम! माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक पूर्व निर्णय में एक व्यवस्था दी थी कि विद्यालयों को दिया जाने वाला वित्तीय अनुदान किसी भी अवस्था में बंद नहीं किया जा सकता. शिक्षकों को ऐसे निर्णय की जानकारी थी किंतु भूख और बीमारी से जूझते किसी के लिये बार-बार उच्च न्यायालय जाना असंभव ही होता है! न्याय पाना कितनों के बूते की बात है! शिक्षकों की अशक्त्तता समझ कर कंपनी ने न्यायालय के सामने कुछ मौके पर गलत एफिडेविट भी पेश किए. स्कूल में पढ़ने वाले छात्रों को हटाने के लिये कठिनाइयां उपस्थित कीं. ऐसा हर काम किया जिससे छात्र इन विद्यालयों में आना छोड़ दें. दूसरी ओर भुखमरी से जूझते शिक्षकों का मनोबल टूटता गया. भारत सरकार के एक उद्यम की बदनीयती के शिकार परिवारों से अब मौत की खबरें आने लगी थीं.
चेयरमैन के प्रतिवेदन के बावजूद स्कूलों के संबंध में अनुकूल निर्णय नहीं लिए गए
इस बीच एक उत्साहवर्धक समाचार तब आया जब हिन्दुस्तान कॉपर लिमिटेड के अध्यक्ष-सह- महानिदेशक (CMD ) ने अपने खनन मंत्रालय को 'वस्तुस्थिति' की जानकारी दी. उनकी रिपोर्ट में खनन मंत्रालय को बताया गया कि शिक्षकों के लिये स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति योजना का लाभ देय है और स्कूलों के स्टाफ के लिये वीआरएस जल्द लागू होना चाहिए. सीएमडी ने कई जरूरी तथ्यों को उजागर और स्वीकार किया था. वह न्याय देना चाहते थे. कई अन्य अवसरों पर कंपनी के सर्वोच्‍च अधिकरियों ने स्वीकार किया था कि कंपनी के विद्यालय स्वत्वाधारी संस्थाएं हैं और कंपनी ही स्वत्वाधारक है. अज्ञात कारणों से, चेयरमैन के प्रतिवेदन के बावजूद स्कूलों के संबंध में अनुकूल निर्णय नहीं लिए गए. धीरे-धीरे छात्रों की संख्या घटती गई.भुखमरी का असर बढ़ता गया. वर्ष 2011-12 तक छात्रों की परीक्षाएं और अन्य कार्य चलते रहने के स्पष्ट प्रमाण हैं. इसके बाद विद्यालय मरीजों की तरह कोमा मे आ गए. डेथ सर्टिफिकेट अब तक मिला नहीं! आज भी इनकी मृत्यु की घोषणा नहीं हुई लेकिन, इनकी धड़कनों को सुनना भी सब के लिये संभव नहीं. हाल ही में एक और शिक्षक की मौत की खबर आई है. कुछ और कतार में लगे हैं.
एक अधिकारी शिक्षकों से नाराज थे
जानकार बताते हैं कि एक अधिकारी शिक्षकों से नाराज थे और मनमाना चल रहा था. 20 बरस पहले वेतन भुगतान की प्रार्थना ले टीचर कोर्ट गए तब आइसीसी के एक वरिष्‍ठ अधिकारी ने कहा था-टीचर कुछ नहीं कर पाएंगे. केस 25-30 बरस चलेगा. इस बीच सब रिटायर्ड हो जाएंगे, बीमार होँगे या खुदा के प्यारे हो जाएंगे. कुछ कारणों से उक्‍त अधिकारी शिक्षकों से नाराज थे. उक्‍त अधिकारी की बात सही साबित हो रही है. यह सत्य है कि सभी संबद्ध अधिकारी और जन-प्रतिनिधि इन विद्यालयों, छात्रों और शिक्षकों के साथ किए गए अन्याय से परिचित हैं. माननीय राष्ट्रपति, विभिन्न मंत्रालय और प्रधानमंत्री को भी कमजोर जुबान में समस्याओं से अवगत कराया गया है. लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ कि विधिवत चलते विद्यालयों में, विधिवत नियुक्त शिक्षकों को, विधिवत कार्य करने के बदले, विधिवत भुगतान हो सके. ऐसा कुछ नहीं हो सका कि जिस कंपनी ने स्कूल खोले, सभी दायित्व स्वीकार किए, सभी नियुक्तियां की, अपने शिक्षकों के लिये सेवा शर्तें बनाई, बार-बार अंडरटेकिंग दिए, उन्हें वेतन भुगतान करने का आदेश अब तक क्यों नहीं दिया गया? जिन विद्यालयों के "सरकारीकरण" को जिस कंपनी ने रोका, सरकारी सहायता जिन्होंने अस्वीकार की, जो विद्यालयों को प्रबंधित और संचालित करते थे उन्हें अन्याय करने का अधिकार किसने दिया? किस सक्षम अधिकारी ने किस आधार पर कब वेतनादि बंद करने का आदेश दिया? शिक्षकों ने जिनके खिलाफ मुकदमा किया, जो शिक्षकों के विरुद्ध न्यायालय में खड़े थे, जिन्होंने स्कूलों के हेडमास्टर को न्यायालय में अपना पक्ष रखने नहीं दिया उनकी जिम्मेदारी कौन तय करेगा? आज सोचता हूं, मृत्यु शय्या पर पड़े इन विद्यालयों, शिक्षकों और कर्मचारियो के लिये कहीं कोई संजीवनी है या नहीं! कहीं कोई भगीरथ है जो मृत्युमुख पर बैठे इस जीवन के लिये ला सके भागीरथी, कर सके इनका उद्धार!
Rani Sahu

Rani Sahu

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