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- मैंने उतार दिया दुख का...
दिलीप कुमार, प्रसिद्ध अभिनेता। जब भी मैंने अपने जीवन पर नजर डालने या उसका विश्लेषण करने की कोशिश की है, तब मुझे ये जानकर हैरानी हुई है कि मेरी शख्सियत के कई पहलू हैं, जो अब तक मेरे लिए अनजान थे। आत्म-विश्लेषण की यह प्रक्रिया सबसे पहले शबनम नाम की शुरुआती दौर की एक फिल्म से शुरू हुई। यह वो समय था, जब मैं चौराहे पर खड़ा था और सोच रहा था कि क्या मैं कभी 'ट्रैजेडी किंग' की उपाधि को छोड़ पाऊंगा, जो मेरे साथ अटूट रूप से जुड़ गई थी। हमारी विडंबना यह है कि लोग ट्रैजेडी की तुलना भावुकता से करते हैं। मैं इसे इस तरह से देखता हूं कि एक दुखद किरदार का चित्रण केवल उदास दिखने तक या सतही विपदाओं (जैसे, महबूब से जुदाई, दिवालिया हो जाना, दोस्तों की दगाबाजी या परिवार द्वारा अस्वीकार कर दिया जाना) से तबाह होने तक सीमित नहीं है। त्रासदी से जो मेरा मतलब है, वह ग्रीक और शेक्सपियर की त्रासदियों के करीब है। मेरा मानना है कि वास्तविक त्रासदी एक तरह की उदासी की ओर ले जाती है, जो किसी आदमी की रूह में समा जाती है, जिससे आदमी भीड़ में भी अकेला हो जाता है। परंपरागत समझ के मुताबिक, जब कोई फनकार अपनी कला की गहराई में सुलगता है, तभी वह अपने क्राफ्ट को खालिस सोने में बदल पाता है। और केवल तभी वह त्रासदी के चित्रण की कोशिश करने के योग्य है। मेरा मानना है कि अगर कोई उस चश्मे से देखे, तो मेरा मामला पूरी तरह से विरोधाभासी रहा है। मुझे ऐसे समय में 'ट्रैजेडियन' घोषित कर दिया गया, जब मैं अपने हुनर को निखारने की प्रक्रिया में था। फिराक साहब का एक मिसरा मुझ पर बहुत सही लागू होता है : अक्सीर बन चला हूं, इक आंच की कसर है (मैं एक अमृत में तब्दील हो जाऊंगा, अगर थोड़ा और आंच पर तप जाऊं)।