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गौरतलब है कि एक लोकप्रिय सितारे की पत्नी एक राष्ट्रीय अखबार में अंग्रेजी भाषा में पाक्षिक लेख लिखती हैं
जयप्रकाश चौकसे। गौरतलब है कि एक लोकप्रिय सितारे की पत्नी एक राष्ट्रीय अखबार में अंग्रेजी भाषा में पाक्षिक लेख लिखती हैं। ज्ञातव्य है कि इनकी मां भी अपने दौर में शिखर सितारा रही हैं और इस सितारे के पिता केवल चार वर्ष तक ही अपनी लोकप्रियता कायम रख सके। बहरहाल लेखिका की अपनी विचार शैली और अंदाजे बयां भी कमाल का है। उनके लेखों में व्यवस्था के खिलाफ कुछ व्यंग्य होते हैं और वे अपने व्यंग्यात्मक अंदाज और कटाक्ष में ही अच्छे-अच्छों को खरी-खरी कह देती हैं।
प्राय: देखा गया है कि हिंदी में लिखने वाले जल्दी पकड़ में आ जाते हैं और अंग्रेजी लेखक अपेक्षाकृत स्वतंत्र हैं। संभवत: व्यवस्था संचालक अंग्रेजी में कमजोर हैं। किसी ने लिखा है कि एक प्रदेश के मंत्री ने वादा किया है कि वे अपने प्रांत की सड़कों को फलां नायिका के गालों की तरह सुंदर बना देंगे। दूसरे मंत्री ने कहा कि वे सड़कों को फलां नायिका के चेहरे की तरह खूबसूरत बना देंगे। बड़ी प्रसन्नता की बात है कि राज-काज में व्यस्त होते हुए भी मंत्री जी फिल्में देखते हैं।
यह भी स्वाभाविक है कि नायकों की अपेक्षा नायिकाओं के प्रति उनका विशेष आकर्षण है। इन सड़कों का नामकरण भी उन नायिकाओं के नाम पर भी वे रख सकते हैं। सोचिए इन सड़कों के आस-पास के रहवासियों को कितना आनंद आएगा जब वे अपना पता कहीं लिखवाएंगे, लेकिन समस्या यह हो सकती कि इन नायिकाओं के उम्रदराज होने पर क्या सड़कों का नाम बदला जाएगा? वैसे भी आजकल तो सड़कों के नाम बदलने का फैशन चल पड़ा है।
हकीकत यह है कि मुंबई में 'भूलाभाई देसाई रोड' को आज भी उसके पुराने नाम 'वार्डन रोड' से ही बुलाया जाता है। क्योंकि प्रचलित नाम जनमानस की सामूहिक स्मृति में इतने गहरे जमे हुए हैं कि नए नाम कोई बोलना ही नहीं चाहता। आम आदमी बेहतर दिनों की आशा में इस कदर डूबा रहता है कि कड़वे यथार्थ को अनदेखा ही करता है । बेहतर दिन आएं या ना आएं उसकी संभावना ही बहुत बड़ा संबल है।
आम आदमी की ताकत ही उसका आशावादी होना है। इस कालखंड में प्राय: मूर्खतापूर्ण बातें अधिक ध्यान आकर्षित करती हैं। सहज बुद्धि नामक विचार पुराना पड़ चुका है। बर्नाड शा के एक उपन्यास से प्रेरित फिल्म 'माय फेयर लेडी' में दो रईसों के बीच एक शर्त लगती है। एक रईस सड़क से एक गरीब अनाथ लड़की को सभ्य होने के लिए प्रशिक्षित कर समाज में सम्मानजनक स्थान दिलाता है। उस समय गरीब लड़की को ज्ञात हो जाता है कि वे दोनों तो सब कुछ शर्त जीतने के लिए कर रहे थे।
उन्हें किसी गरीब को प्रशिक्षित करके सभ्य समाज के सामने कोई आदर्श उदाहरण नहीं रखना था। दरअसल पूरे कार्यक्रम में साधनहीन के प्रति कोई सहानुभूति थी ही नहीं। वह सारा नाटक उन्होंने अपने मनोरंजन के लिए रचा था। दो ठरकी अमीर उम्रदराज लोगों का यह मात्र मनोरंजन था। अपनी बात प्रस्तुत करने के लिए एक बहुत बड़ी दावत दी जाती है, जहां एक अनाथ को सुसंस्कृत लेडी बनाने के प्रयोग की सफलता का जश्न मनाया जाना था। वह अनाथ कन्या सभी के सामने फूहड़ व्यवहार का अभिनय करके दोनों उम्र दराज लोगों की पोल खोल देती है।
ज्ञातव्य है कि देवानंद के नजदीकी मित्र अमित खन्ना ने इसी कथा से प्रेरित फिल्म 'मनपसंद' का निर्माण किया जिसके सारे गीत शुद्ध हिंदी में स्वयं अमित ने लिखे थे। साधन संपन्न व्यक्ति अपने मनोरंजन के लिए एक मनुष्य पर भी प्रयोग करता है। मनुष्य का मिजाज बदलने का दावा उसका अहंकार मात्र है। साधन संपन्न के जलसाघर में आम आदमी महज एक झुनझुना मात्र है। याद आती हैं दुष्यंत कुमार की लिखी कविता की अहम पंक्तियां कि 'हम नहीं हैं आदमी हम झुनझुने हैं।'
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