सम्पादकीय

सकल चराचर मैं ही मैं…

Subhi
3 March 2022 4:27 AM GMT
सकल चराचर मैं ही मैं…
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सोचता हूं, आखिर इंसान में, यह ‘मैं’ आया कहां से? कोई साधु हो या महात्मा, सदा यही कहता है, ‘मैं मैं मत करो, यह अज्ञान का प्रतीक है’। मगर क्या कोई एक भी मिलता है, जो ‘मैं मैं’ न कर रहा हो।

सुरेशचंद्र रोहरा: जिसको देखो, मैं ही मैं का बखान करता देखा जाता है। अमेरिका कहता है 'मैंं', चीन कहता है 'मैं'। छोटा से छोटा देश भी कम नहीं। कहता है- 'अरे, मैं… मैं… मैं…। हर देश, प्रदेश, नगर, गांव 'मैं' में लगा है। देश की छोड़िए, एक सामान्य इंसान भी 'मैं मैं' कर रहा है। दुनिया के हर आदमी के मुंह से सिर्फ मैं ही मैं निकल रहा है।

सोचता हूं, आखिर इंसान में, यह 'मैं' आया कहां से? कोई साधु हो या महात्मा, सदा यही कहता है, 'मैं मैं मत करो, यह अज्ञान का प्रतीक है'। मगर क्या कोई एक भी मिलता है, जो 'मैं मैं' न कर रहा हो। एक बड़े साहित्यकार फेसबुक पर हैं। उनकी कृपा पाने के लिए मैं उनकी हर पोस्ट पसंद करता। आंख मूंद कर, बिना पढ़े पसंद करता। सोचता, मेरी पसंद से कभी तो पिघलेंगे। मैं अनवरत नाटक करता रहा। मगर उन्होंने कभी मेरी ओर झांका तक नहीं। मैं फोटो डालूं या कुछ लिखूं, कभी पसंद नहीं किया। मैं तरस गया उनकी एक अदद 'लाइक' के लिए।

एक दिन उनके लिखे पर किसी क्षुब्ध व्यक्ति ने विपरीत टिप्पणी कर दी। मैंने सोचा, आज मैं इनके 'मैं' को परखूंगा। मैंने उस टिप्पणी के खिलाफ कड़ी टिप्पणी की और चुपचाप इंतजार करने लगा। आश्चर्य, मेरी टिप्पणी को साहित्यकार ने पसंद किया। मैं समझ गया, यहां एक 'मैं' नहीं, 'मैं' का साम्राज्य है।

हमारे एक मित्र कहते हैं- एक बच्चे में भी 'मैं' होता है। जिसको आपने पैदा किया है, उसमें भी 'मैं' होता है, वह भी आपकी बेवजह 'मैं' को स्वीकार नहीं करता। उसका 'मैं' जागृत हो उठता है। वे बड़े ज्ञानी व्यक्ति हैं। वे हर किसी के 'मैं' को बड़ी चतुराई से शांत करते हैं। बात मनवानी हो तो चार बार प्रिय मित्र, प्यारे दोस्त करते हैं और इतने मीठे स्वर में कि मैं समझ जाता हूं कि वे मेरे 'मैं' को जागृत करके अपने 'मैं' की संतुष्टि करना चाहते हैं।

एक शख्स इतने पहुंचे हुए हैं कि दावा करते हैं, दुनिया की किसी भी महिला को ज्यादा नहीं, आधा एक घंटा अकेले बात करने का वक्त दिया जाए, मैं उसे विश्वास में ले लूंगा। जब वे यह कहते तो मन ही मन मैं हंसता, मगर तीन-चार प्रकरण अपनी आंखों से देखे। मैं उनसे भयभीत हो गया। यह आदमी है या इंद्रजाल का जानकार। वे कहता हैं, यह बात का मायाजाल है। मैं बस उसके 'मैं' को पकड़ता हंू, सहलाता हंू, उत्सर्जित करता हूं, बस।

शहर में एक प्रखर अखबारनवीस हैं। 'मैं' उनका विश्वामित्र की तरह नाक पर बैठा रहता है। लोग उक्त पंडित जी की 'मैं' को उनके क्रोध के कारण आंखें बंद करके सुनते हैं। कौन अग्निकुंड में हाथ डाले! वे बड़े पद पर हैं। पैसे वाले हैं। लोग उनकी 'मैं' को सिर्फ इसलिए सहते हैं कि पद है, रुपया है। 'मैं' भी तभी सिर चढ़ कर बोलता है जब उसे सत्ता का, धन का रस्सा पकड़ में आ जाता है। लोग बड़े समझदार होते हैं, जानते हैं कि इनके मुंह लगना फिजूल है। आत्मसमर्पण कर देते हैं।

मैं अपनी यह योग्यता पहचानता नहीं था। जब कभी किसी सत्ताधारी से साबका पड़ता, मैं समर्पण कर जाता, उसकी हर गलत बात में भी हां में हां मिलाता। कभी विनम्रता से बात काटता, मगर दुबारा अड़ते ही मैं आत्मसर्पण कर जाता। किसी धनपति के यहां भी यही स्थिति होती। मैं उसकी हर सही-गलत बात की हां में हां कहता। मैं मानता हूं कि धनाढ्य आदमी का अपना मैं होता है। वह कभी मुझ जैसे साधारण व्यक्ति की 'मैं' को स्वीकार नहीं कर सकता।

हमारे एक मित्र ने मेरी इस चालाकी को पकड़ा और हंस-हंस कर मित्रों को बताता। मैं मुस्करा कर रह जाता। दरअसल, 'मैं' भी अनेक प्रकार के होते हैं। एक दुर्धर्ष 'मैं', एक सहज 'मैं', मेरा 'मैं' सरल किस्म का है। मेरी जैसी प्रकृति के लोग शायद सुखी रहते हैं। समन्वयवादी, मगर जकड़ने वाला 'मैं' खतरनाक होता है। जो इसकी जद में आते हैं वह उन्हें निगल जाता है।

'मैं' कहां नहीं है। संसार का निर्माण, संहार और पालन करने वालों में भी 'मैं' है। तीनों देवियों में भी 'मैं' है। वेदों, स्मृतियों, रामायण और महाभारत में भी तो 'मैं' ही दिखाई देता है। सारी लड़ाई 'मैं' को लेकर ही है। यह मेरा घर है, यह मेरी जमीन, यहां का मैं मालिक, यह मेरी बपौती। सब जानते हैं कि यह सर्वस्व क्षण भंगुर है, यह 'मैं' निरा बेझड़पन है। मगर हर कोई मैं मैं मैं कर रहा है। साधु हो या महात्मा, मतदाता हो, नेता या अभिनेता, सभी 'मैं' की परिक्रमा कर रहे हैं। और क्यों न करें, जब गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है- 'मैं मृत्यु, मैं ही जीवन, मैं आग हूं और पानी भी'। जब भगवान 'मैं' को नहीं छोड़ते, फिर हम आदम जात भला कैसे छोड़ सकते हैं!


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