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- पुरस्कार रोग से लाचार...

कवि दो तरह के होते हैं। एक वे जो समाज के लिए लिखते हैं, दूसरे वे जो पुरस्कार के लिए लिखते हैं। वे पुरस्कार को लिखने वाली श्रेणी के कवि हैं। दो बातें हैं, समाज के लिए लिखने वाला कवि पुरस्कार के लिए नहीं लिखता और पुरस्कार के लिए लिखने वाला कवि समाज के लिए नहीं लिखता। दोनों की अपनी अपनी पीड़ाएं हैं। उनकी सबसे अच्छी बात जो मुझे ही नहीं, उनको सम्मानित करने वाली हर संस्था को भी लगती है, वह यह कि वे अपने को पुरस्कृत करवाने का बोझ किसी संस्था, व्यक्ति पर नहीं डालते। अपने पुरस्कृत होने का सारा खर्चा वे खुद ही वहन करते हैं। पुरस्कार समारोह में समोसा चाय से लेकर हाय! हाय! तक सारा। और इधर उधर मिल मिलाकर जब वे अपनी जेब के बूते पुरस्कृत हो जाते हैं तो झट अपनी फेसबुक वॉल पर लेप देते हैं- अमुक साहित्य विधा, अमुक संस्था, अमुक नगरे, अमुक तिथि वासरे, मी पुनः पुरस्कृतः। जब भी वे घर से बाजार सब्जी लाने भी निकलते हैं तो वे सब्जी लाने को जेब में पैसे डालने भूल जाएं तो भूल जाएं, पर झोले में अपने को पुरस्कृत होने की क्रिया प्रक्रिया में काम आने वाली ए टू जेड सामग्री डाले निकलते हैं।
सोर्स- divyahimachal
