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आदित्य नारायण चोपड़ा: हैदराबाद रियासत को स्वतन्त्र भारत में विलय कराने के लिए 75 वर्ष पहले 13 सितम्बर, 1948 को देश के प्रथम गृहमन्त्री सरदार पटेल ने जो ऐतिहासिक निर्णय 'आपरेशन पोलो' का नाम देते हुए लिया था उसे लेकर राजनैतिक क्षेत्रों में विवाद का होना बताता है कि इनमें समन्वीकरण (विलय) व मुक्ति के भावार्थों का भेद करने की या तो अक्ल नहीं है अथवा किन्ही कारणों से इच्छा शक्ति नहीं हैं। मुक्ति सशस्त्र संग्राम या जन संग्राम के माध्यम से मिलती है जबकि विलय या समन्वीकरण दो पक्षों के बीच बनी आपसी सहमति से होता है। हैदराबाद को भारतीय संघ का सदस्य बनाने के लिए लगातार पांच दिन तक दोनों पक्षों की सेनाओं के बीच युद्ध हुआ था औऱ तब जाकर 17 सितम्बर को हैदराबाद के शासक निजाम ने अपनी रियासत का भारतीय संघ में विलय करने की घोषणा की थी। 17 सितम्बर को भारत की फौजों या पुलिस ने निजाम की 24 हजार सैनिकों व दो लाख की अघोषित रजाकारों की गैर पारंपरिक सेना को परास्त किया था और इस रियासत की जनता को निजामशाही से मुक्ति दिलायी थी, अतः विशुद्ध तार्किक दृष्टि से मुक्ति दिवस ही था। परन्तु तेलंगाना ( जो कि हैदराबाद रियासत का ही 80 प्रतिशत हिस्सा है) के मुख्यमन्त्री श्री के. चन्द्रशेखर राव का कहना है कि इसे विलय दिवस ही कहा जाना चाहिए क्योंकि एक देशी रियासत का स्वतन्त्र भारत में विलय हुआ था जबकि भाजपा के नेता व गृहमन्त्री श्री अमित शाह का दो टूक मत है कि 17 सितम्बर को 'मुक्ति दिवस' ही कहा जायेगा। इस दिवस को इस वर्ष भाजपा ने 'मुक्ति दिवस' के रूप में मनाया और तेलंगाना राष्ट्रीय समिति व राज्य सरकार में इसकी सहयोगी पार्टी मजलिसे इत्तेहादे मुसलमीन ने 'विलय दिवस' के रूप में मनाया। परन्तु इतना निश्चित है कि दोनों ही पक्षों ने भारत राष्ट्र की समवेत विजय का दिवस मनाया। प्रश्न यह है कि यदि इसे हम मुक्ति दिवस मान लें तो इसमें हर्ज क्या है? जब भारत का गृहमन्त्री यह कह रहा है कि हर दृष्टि से यह मुक्ति दिवस ही है तो इसमें तेलंगाना के मुख्यमन्त्री को क्या आपत्ति हो सकती है? इसका उत्तर ढूंढने के लिए हमें हैदराबाद के इतिहास में जाना पड़ेगा जो कि 15 अगस्त, 1947 के दिन एक स्वतन्त्र रियासत जम्मू-कश्मीर की तरह ही थी। परन्तु जम्मू-कश्मीर के महाराजा हरि सिंह ने 26 अक्टूबर, 1947 को अपनी रियासत के भारतीय संघ में विलय करने के समझौता पत्र पर हस्ताक्षर किये थे और उनका भारतीय संघ के साथ किसी प्रकार का फौजी संघर्ष नहीं हुआ था उल्टे पाकिस्तान की फौज ने कश्मीर पर आक्रमण कर दिया था।भारत को आजादी देते वक्त अंग्रेजों ने कुटिल चाल यह चली थी कि इस देश की 565 देशी रियासतों को यह अधिकार दिया था कि वे चाहें तो स्वतन्त्र रहें अथवा भारत व पाकिस्तान में से किसी एक में अपना विलय कर लें। भारत की भौगोलिक सीमाओं में जितनी भी बड़ी रियासतें आती थी उनके राजाओं या नवाबों ने भारतीय संघ में 14 अगस्त, 1947 के दिन तक अपना विलय इस देश में कर लिया था परन्तु हैदराबाद, भोपाल के अलावा कुछ अन्य छोटी रियासतों समेत विदेशी सरकारों के औपनिवेशिक क्षेत्र बचे रह गये थे जिनमें चन्द्रनगर (प. बंगाल) व पांडिचेरी फ्रांस के क्षेत्र थे और गोवा-दमन-द्वीप पुतर्गाल के कब्जे में थे। विदेशी उपनिवेश क्षेत्रों को बाद में पं. जवाहर लाल नेहरू ने सरदार पटेल की 15 दिसम्बर, 1950 को मृत्यु हो जाने के बाद भारत में मिलाया। परन्तु 17 सितम्बर को हैदराबाद रियासत के निजाम द्वारा भारत की शर्तों पर किये गये समझौते का असर यह हुआ कि 1 मई, 1949 को भोपाल के नवाब ने भी बिना कुछ उठापठक किये चुपचाप विलय पत्र पर हस्ताक्षर कर दिये जबकि उससे पहले वह खुद को स्वतन्त्र रखने के लिए पाकिस्तान तक से गुप-चुप वार्ता कर रहे थे। हैदराबाद के निजाम ने तो अपने को भारत से अलग रखने के लिए पाकिस्तान की सरकार को 15 लाख पाउंड की आर्थिक मदद भी दी थी जिससे उसकी फौज जरूरत पड़ने पर उनकी मदद कर सके परन्तु ऐसा कुछ नहीं हो पाया मगर निजाम की अघोषित रजाकार सेना ने पूरी रियासत में साम्प्रदायिक हिंसा का तांडव करना शुरू किया और हिन्दुओं को अपना निशाना बनाया और जुल्म का बाजार गर्म कर दिया। इससे पहले हैदराबाद के निजाम ने भारत की सरकार के साथ एक यथास्थिति बनाये रखने का समझौता (स्टैंडस्टिल पैक्ट) किया था जो बिटिश हुकूमत के साथ किये गये समझौते की शर्तों पर ही था जिसमें हैदराबाद रियासत के विदेशी सम्बन्धों की देखभाल भारत सरकार को ही करनी थी। परन्तु निजाम ने इस समझौते को तोड़ डाला और खुद को स्वतन्त्र राष्ट्र बनाने के लिए राष्ट्रसंघ तक गुहार लगाई। इस पर सरदार पटेल की भंवे तन गईं और उन्होंने निजाम को सबक सिखाने का फैसला किया और रजाकारों के कत्लोगारत के चलते उन्होंने 'आपरेशन पोलो' की रचना की। संपादकीय :आतंकवाद का समर्थक चीनप्रियजनों की विदाई और श्राद्धकैप्टन का भाजपा में प्रवेश !समरकंद में मोदी की दो टूकलखीमपुर में 'दलित' हत्यानामीबिया के मेहमानों का स्वागतभारतीय सेना के 34 हजार सैनिकों ने इसमें भाग लिया और हैदराबाद को निजाम के शासन से मुक्त कराया। दरअसल हैदराबाद की कहानी स्वतन्त्र भारत में ऐसी पहली घटना है जिसने यह सिद्ध किया कि अहिंसा के मार्ग से आजादी पाने वाले देश के भीतर इसकी एकता वह मजबूती के लिए जरूरत पड़ने पर राष्ट्रहित में शस्त्रों का प्रयोग करने से नहीं रोका जा सकता। सरदार पटेल हैदराबाद की भौगोलिक स्थिति को लेकर बहुत चिन्तित थे और वह भारत के बीचों बीच किसी पाकिस्तानी हिमायती को बर्दाश्त नहीं कर सकते थे। ''बक्शी हैं हमको इश्क ने वो जुर्रतें 'मजाज'डरते नहीं सियासते अहले जहां से हम।'