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- भोजन के बाजार में...
भौतिक देह को अंतिम सत्य मानने वाला 'चार्वाक दर्शन कहता है : 'परान्नं प्राप्य दुर्बुद्धे, मा प्राणेषु दयां कुरु, परान्नं दुर्लभं लोके, प्राण: जन्मनि जन्मनि। इसका अर्थ है कि शरीर तो बार-बार जन्म लेगा, उस पर दया करना मूर्खता है। दूसरों का अन्न दुर्लभ है और उसे पाने का अवसर नहीं चूकना चाहिए। 'लोकायत दार्शनिकों ने ऋण लेकर घी पीने की हिदायत दी थी, क्योंकि क्षणभंगुर जीवन में घी पीने से बड़ा सुख और कोई नहीं। पेड़-पौधों समेत जीव-जंतुओं की कोई प्रजाति सही भोजन के बिना नहीं जी सकती, पर सामाजिक अन्याय और भेदभाव की आग में जलती अन्यायपूर्ण, प्रेमविहीन हमारी विराट दुनिया में जहां एक तरफ अनगिनत लोगों के लिए मु_ी भर चना भी उपलब्ध नहीं और दूसरी ओर धनलोलुप बाजार को आकर्षक पैकिंग में 'सुपर-फूड बेचने से फुर्सत नहीं। वल्र्ड फूड प्रोग्राम को इस वर्ष का नोबेल शांति पुरस्कार मिला है। यह खाद्य सुरक्षा के प्रश्न का महत्त्व दर्शाता है। दुनिया में खाऊपन के कारण मरे जा रहे पेटार्थी भी हैं और दो-दो रोटी को तरसते करोड़ों लोग भी। विश्व खाद्य कार्यक्रम धरती से भूख खत्म करने के लिए काम करता है।