सम्पादकीय

हास्य-व्यंग्य: लाइक-कमेंट का सवाल है बाबा, कई सजी-संवरी पोस्ट्स को अभी तक इंतजार

Gulabi
24 Oct 2021 6:22 AM GMT
हास्य-व्यंग्य: लाइक-कमेंट का सवाल है बाबा, कई सजी-संवरी पोस्ट्स को अभी तक इंतजार
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हास्य-व्यंग्य

राजेश सेन। फेसबुक वाल्स के शो-केस में कई पोस्ट्स सजी-संवरी बैठी हैं। उन्हें इंतजार है एक अदद प्यारे-प्यारे लाइक-कमेंट का, लेकिन कोई ऐसा करने के लिए फटकता ही नहीं। जैसे फुटपाथ के दुकानदार कभी-कभी ग्राहक के लिए तरसते रहते हैं, ठीक वैसे ही मेरी फेसबुक पोस्ट को लाइक-कमेंट के लिए तरसना पड़ रहा है। कोई मेहरबान है कि इधर आता ही नहीं। मेरी तमाम पोस्ट्स एक-एक लाइक को तरस गई हैं। लगता है कि लोगों को फेसबुकी सुंदरियों के प्रोफाइल पिक्चर्स पर भंवरों-सा मंडराने से ही फुर्सत नहीं मिल रही है।


सुंदरियों की एक झलक पर लाइक तो लाइक कमेंट पर कमेंट तक अपना नेह बरसाने वाले वैसे ही सक्रिय रहते हैं, जैसे आइटम-डांस में नायिकाओं के ठुमकों पर चिल्लरें बरसाने वाले। बेचारे हम जैसे गरीब आदमी का तो पोस्ट ही रुखा पड़ा है। जैसे 'कबीरा खड़ा बाजार में..ज्ञान दियो बिखराय..जिसको जितना चाहिए..समेट-समेट ले जाए!' मगर यहां तो कोई ज्ञान समेटने ही नहीं आता।

कितनी नव-यौवना कविताएं घूंघट के पट खोलने को आतुर खड़ी हैं। कोई उनके जलवों का दीदार ही नहीं करना चाहता। कितने बाबाजी गुरु-ज्ञान का घंटा लेकर साक्षात खड़े हैं। कोई उनकी सुध ही लेने वाला नहीं। कितनी बीमारियों के नुस्खे नीम-हकीम बने अपना झोला लिए खड़े हैं। लगता है कि कोई स्वस्थ ही नहीं होना चाहता। बड़ा ही निर्मम जगत है बाबा। लाइक लाइक होकर भी ना-लाइक बना हुआ है। इसमें फेसबुक के बाजार की रंगीनियत का कोई कसूर नहीं। भला कीजे भला होगा, बुरा कीजे बुरा होगा! जैसा तेरा गाना होगा, वैसा मेरा बजाना होगा। तू ना-लाइक है तो मैं तुझे लाइक कैसे करूं। तू लाइक करे तो मैं लाइक क्या कमेंट भी कर दूं।


लाइक की फसल काटने के लिए रोज लाइक के बीज तो बोने पड़ते हैं। ये नकद की फसल है बाबू। यह उधार की बंजर जमीन पर लाइक-कमेंट के अंकुर नहीं पोषती। मगर किसी-किसी मौसम फसल अच्छी भी हो जाती है। तब पोस्ट की उपजाऊ जमीन पर लाइक के साथ-साथ कमेंट के फल भी उग आते हैं। मगर ये फल नकद नहीं होते। सूद समेत कमेंट के रूप में लौटने भी पड़ते हैं। तभी तो फेसबुक पर लेन-देन का मौसम-चक्र बना रहता है। फलों के बीज से फिर-फिर फल निकलते हैं और उन फलों से फिर नए फल उगाए जाते हैं।

फेसबुक पर ऐसे ही तो कारोबारी-दोस्ती का निर्वाह होता है। लाइक के बदले लाइक और कमेंट के बदले कमेंट का भी खेल चलता है। कभी-कभी आपकी पोस्ट पर बड़े-बड़े सूदखोर साहूकार मित्र भी आ जाते हैं। वे अपने लाइक-कमेंट का हिसाब-किताब रखने का हुनर खूब जानते हैं। अव्वल तो वे लाइक का बटन दबाते ही नहीं और अगर गलती से दब जाए तो जजिया कर की वसूली से भी नहीं चूकते। वे दोस्त दोस्ती के लिए नहीं बनाते, बल्कि बंधुआ मजदूर के रूप में लाइक-कमेंट की साहूकारी वसूली के लिए बनाते हैं। वे खुद कभी किसी की पोस्ट लाइक नहीं करते। मगर अपने लाइक की स्वनामधन्य वसूली से भी गुरेज नहीं करते। जो मजदूर उनकी पोस्ट पर लाइक न करे, वह उनकी दोस्ती के गांव से देश-निकाला दे दिया जाता है।

अब यह अलग बात है कि बीच-बीच में ये साहूकार मजदूर मित्र को अपने लाइक के रूप में अंतरिम मेहनताना अवश्य चुकाते रहते हैं, ताकि मजदूर मित्र का हौसला बना रहे। कभी-कभी वे राजे-रजवाड़ों सा खुश होकर दरियादिली दिखाते हुए मजदूर मित्र को कमेंट रूपी बोनस भी इनाम-इकराम में बांट देते हैं। वे खुश होकर मजदूर के कमेंट बाक्स में लिखते हैं जैसे कि 'बढ़िया है, अच्छा है, खूब या नाइस वगैरह।' या कभी-कभी एक स्माइली भी भेंट स्वरूप गले से कंठी की तरह निकालकर कमेंट बाक्स में उछाल देते हैं! ये इनामी शब्द साहूकार मित्र इतनी मितव्ययिता से लिखते हैं कि लगता है कि यदि बंदे की इससे अधिक तारीफ लिख दी गई तो कहीं वह अतिरिक्त लिखे की रायल्टी न मांग बैठे। वे खुश दिखना भी चाहते हैं। मगर अपनी खुशी साहूकारी की आड़ में छुपा कर महफूज भी रखना चाहते हैं।

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