सम्पादकीय

मनुष्यत्व और आचार्यत्व

Subhi
18 Sep 2022 4:10 AM GMT
मनुष्यत्व और आचार्यत्व
x
लगभग चार दशक पहले एक युवा अध्यापक की नियमित नियुक्ति मध्यप्रदेश के एक ग्रामीण अंचल में हुई। वे प्रसन्नतापूर्वक वहां कार्य करने चले गए। नया उत्साह था, कुछ अच्छा और नया करने के लिए कटिबद्ध थे।

जगमोहन सिंह राजपूत; लगभग चार दशक पहले एक युवा अध्यापक की नियमित नियुक्ति मध्यप्रदेश के एक ग्रामीण अंचल में हुई। वे प्रसन्नतापूर्वक वहां कार्य करने चले गए। नया उत्साह था, कुछ अच्छा और नया करने के लिए कटिबद्ध थे। जो बच्चे स्कूल में नामांकित नहीं थे या जो नामंकित थे लेकिन अनुपस्थित रहते थे, उनके घरों में जाकर, माता-पिता को समझा कर, बच्चों को स्कूल लाने लगे।

सदियों से हर सभ्यता में ऐसा होता रहा है: मनुष्य ही मनुष्य को अंधकार में बने रहने को बाध्य करता रहा है। जिस समय की यह घटना है, उसी समय जाने-माने शिक्षाविद पाउलो फ्रेरे के अध्ययन और शोध की चर्चा सारे जगत में होने लगी थी। फ्रेरे ने बचपन से ही सामंतवादी, पूंजीवादी, साम्राज्यवादी, नस्लवादी और फासीवादी उत्पीड़न के अनेक रूप देखे थे।

अपनी मां की ईश्वर में असीम श्रद्धा का सम्मान करते हए भी फ्रेरे ने यह मानने से इनकार कर दिया कि वर्गभेद के लिए ईश्ववर जिम्मेवार है। उन्होंने ग्यारह वर्ष की आयु में यह निर्णय किया कि दुनिया से भूख को कम करने के लिए हर संभव उपाय करूंगा। यह भी जाना कि इसके लिए आशा की किरण लोगों को शिक्षित करना ही है। उन्होंने अपना सारा जीवन इसी में लगा दिया।

निष्कर्ष यह निकाला कि दुनिया में कोई व्यक्ति अपना निर्माण स्वयं नहीं करता है, उसके पीछे अनेकानेक लोग लगते हैं। फ्रेरे के शिक्षाशास्त्र में दूसरों से प्रेम करना, सहयोग का मंतव्य समझना, उसे व्यावहार में उतारना तथा उसी से अपना और दूसरों के विकास करना निहित है। दुनिया नें इन्हें स्वीकार किया।

अगर सभी मनुष्यों को अपनी प्रतिभा का विकास करने का सामान अवसर मिला होता, अगर प्रकृति के संसाधनों पर कुछ लोगों ने कब्जा न कर लिया होता, प्रत्येक व्यक्ति को सीखने के समान अवसर मिले होते, तो दुनिया में सदा से भुखमरी, बीमारी, शोषण एक बड़े वर्ग का भाग्य बन कर न रह गया होता।

इस समय के संपूर्ण परिदृश्य को देख कर यही लगता है कि हजारों सालों से आचार-विचार-व्यवहार के संबंध में जो कुछ मनुष्य जाति को उसके श्रेष्ठ पुरखों, ऋषियों, तपस्वियों, विद्वानों, शोधकर्ताओं, ज्ञान-सर्जकों ने समझाया-सुझाया और मानव-कल्याण के जिस मार्ग पर चल कर दिखाया, उस सबका प्रमुख भाग केवल ग्रंथों में सिमट कर रह गया है!

विश्व की किसी भी संस्कृति और सभ्यता के जानकारों के पास जाइए, वे सभी शांति, सहयोग, भाईचारे, प्रेम, अहिंसा, करुणा, सद्भावना जैसे मूल्यों पर पूर्ण विश्वास व्यक्त करेंगे और यह भी दोहराएंगे कि वे वैश्विक मानवीय एकता और पारस्परिकता में विश्वास करते हैं। अगर कुछ जाने-पहचाने अपवादों को छोड़ दें, तो पाएंगे कि अधिकांश देश अपनी शिक्षा-व्यवस्था और शिक्षण सामग्री में अन्य के प्रति दुर्भावना नहीं दर्शाते हैं।

इसी तरह अध्यापकों के प्रशिक्षण के जो कार्यक्रम चलाए जाते हैं, वहां भी मूल्य-आधारित शिक्षा देने की ही बात की जाती है। संयुक्त राष्ट्र और यूनेस्को जैसी संस्थाएं सात दशक से इन्हीं मूल्यों को बढ़ाने में लगी हुई हैं। फिर भी यह शास्वत प्रश्न अनुत्तरित ही रह जाता है कि मनुष्य की मनुष्य के प्रति करुणामयी दृष्टि विकसित करने में शिक्षा क्यों सफल नहीं हो रही है?

जिस सत्य, अहिंसा, शांति, सदाचरण और प्रेम को सैद्धांतिक रूप में सभी स्वीकार करते हैं, वे मनुष्य के कार्यकलाप में अनुपस्थित क्यों हो जाते हैं। हिंसा, युद्ध, शोषण, अत्याचार, कट्टरवाद, आतंकवाद बढ़ते ही जाते हैं। मानवीय तत्व और मूल्य मनुष्य के दैनंदिन जीवन में अपना स्थान क्यों नहीं बना पा रहे हैं?

प्रश्न नया नहीं है। मगर हर उत्तर और हर चर्चा में 'अध्यापक' आवश्यक रूप से लाए जाते हैं और उनसे आचार्य रूप में अनगिनत अपेक्षाएं उभरती हैं। आचार्य शब्द का अर्थ अत्यंत बृहद और विस्तृत है। आचार्य का आचरण समाज का आचार-विचार-व्यवहार निर्धारित करता था।

इस समय यह अच्छी तरह समझा जा चुका है कि अपने शाश्वत-स्वीकार्य 'अध्ययन, मनन, चिंतन और उपयोग' की विधा में जो सबसे महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुआ, वह था गुरु के स्थान पर सरकारी तंत्र द्वारा अध्यापकों की बहाली।

जिस आचार्य द्वारा राज्य और समाज अपने हर कार्य-कलाप के निर्वहन में पूरी तरह प्रभावित होता था, उसका वर्तमान प्रतिरूप सरकारी कार्यालयों द्वारा निर्धारित नियमों के पालन के लिए बाध्य होकर रह गया। अध्यापक अन्य द्वारा निर्धारित कार्य करता है, गुरु अपने उत्तरदायित्व स्वयं निर्धारित करता था, उसका उत्तरदायित्व विद्यार्थी के पूर्ण विकास का था।

वह गुरु ही था, जो मनुष्य और प्रकृति की पारस्परिकता को बिना कहे ही व्यावहारिक रूप में निर्मित कर देता था। मानवीय मूल्यों का अनुसरण करते हुए उसे 'अनभिज्ञ' व्यक्ति से पूर्ण-विकसित 'व्यक्तित्व' में बदल देता था। आज का अध्यापकझ्र अपवाद छोड़ करझ्र जिन परिस्थितियों में कार्य करता है, उनमें वह यह सब भूल जाना ही हितकार पाता है।

वह अब अधिकारियों द्वारा निर्देशित होता है, उनके हाव-भाव, चाल-चलन और चरित्र का अवलोकन कर सामंजस्य बिठाने का प्रयास करता है। वह हर तरफ वैश्वीकरण की चमक-दमक और चकाचौंध में शामिल लोगों से अपने को घिरा पाता है। वह समाज से अलग नहीं रह सकता। यही गुरु से चल कर अध्यापक तक आने की यात्रा है। इसे नई दिशा देना है, अध्यापक को आचार्य बनना ही होगा।

यह परिवर्तन संभव है, क्योंकि मनुष्य के पास केवल ज्ञान नहीं, उसके विश्लेषण की क्षमता भी है। ज्ञानी व्यक्ति से अपेक्षा की जाती है कि वह अपनी बुद्धि और विवेक को सतत परिष्कृत करने का प्रयास करता रहे। अनेक अवसरों पर बर्ट्रेंड रसेल का एक उद्धरण दोहराया जाता है कि अगर मनुष्य केवल ज्ञान की खोज में लगा रहा, तो वह नष्ट हो जाएगा।

ज्ञान का दुरुपयोग न होने पाए इसके लिए उसे विवेक का आश्रय लेते रहना होगा, अन्यथा हिरोशिमा होगा, नागासाकी होगा, होलोकास्ट होगा, यूक्रेन होता रहेगा! पर सबसे पहले व्यक्ति को अपने जीवन की पूरी योजना को निर्धारित करने और उसे क्रियान्वित करने पर स्वयं आश्वस्त होना होगा। खेतों में हल चलता हुआ किसान कृषि-कर्म के विभिन्न आयामों से परिचित है, वह अपने कर्म के संबंध में आवश्यक ज्ञान और कौशल प्राप्त कर चुका है।

अपने कर्म के प्रति पूर्ण-समर्पित व्यक्ति बिना प्रयास ही आनंद प्राप्त कर सकता है, बीज के अंकुरण से भंडारण तक की सारी प्रक्रिया में जो व्यक्ति सौंदर्य देख सकता है, आश्चर्यचकित हो सकता है, वह मनुष्यत्व के बहुत निकट पहुंच चुका होता है।

गीता का विश्लेष्ण करते हुए आचार्य विनोबा भावे के ये शब्द भारतीय दर्शन के सार-तत्व से परिपूर्ण हैं: ''जीवन की प्रत्येक क्रिया में परमार्थ भरा रहना चाहिएझ्र प्रत्येक कृत्य सेवामय प्रेममय और ज्ञानमय होना चाहिए… मुझे तो यह अनुभव करने की इच्छा होती है कि जो कर्म है, वही भक्ति है, वही ज्ञान है।''

सारा खेल प्रवृत्तियों का है। इन्हीं को दिशा देने के लिए आवश्यक है कि मनुष्य मनुष्यत्व को ही अपनाए और उन्हीं में से कुछ आचार्यत्व तक पहुंचे और निरंतर को बनाए रखें। पृथ्वी पर मानवीय अस्तित्व को जीवंत बनाए रखने का रास्ता यहीं से निकलेगा।


Next Story