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- भारत का मानवीय पक्ष
आदित्य नारायण चोपड़ा: इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती कि रूस-यूक्रेन युद्ध को लेकर अमेरिका लगातार भारत पर अपने पक्ष की हिमायत करने के लिए विविध कूटनीतिक व राजनयिक तरीकों से दबाव बनाने की कोशिश कर रहा है परन्तु इसका जवाब भारत के विदेशमन्त्री श्री एस. जयशंकर ने जिस गंभीरता के साथ दिया है,वह भारत की हर मुश्किल समय में कसौटी पर खरी उतरी विदेशनीति के अनुरूप है औऱ वह यह है कि 'भारत हमेशा शान्ति के पक्ष में ही खड़ा रहा है'। स्वतन्त्रता के बाद से ही भारत की विदेशनीति हमेशा 'युद्ध पर बुद्ध' को वरीयता देने की रही है औऱ वर्तमान रूस–यूक्रेन युद्ध के समय भी उसकी नीति में कोई परिवर्तन नहीं है। हाल ही में राष्ट्रसंघ में भारत के स्थायी प्रतिनिधिका यह बयान की यूक्रेन के 'बुशा' शहर में सामान्य नागरिकों की हुई हत्याओं की जांच किसी निष्पक्ष संस्था द्वारा कराई जानी चाहिए वास्तव में न तो रूस के विरुद्ध है और न यूक्रेन के पक्ष में है। क्योंकि इस सन्दर्भ में रूस का मत है कि बुशा में जिस कथित नरसंहार का आरोप वहां मौजूद उसकी सेनाओं पर लगया जा रहा है वह यूक्रेन द्वारा ही रचा गया भ्रम जाल है और रूस के विरुद्ध ऐसी साजिश है जिससे उसे मानवीय अधिकारों के खिलाफ खड़ा हुआ दिखाया जा सके। इसके पीछे तर्क यह है कि रूस से युद्ध छिड़ने के बाद खुद यूक्रेन की सरकार ने ही अपने नागरिकों को हथियार बांट कर रूस के सैनिकों का मुकाबला करने के लिए उकसाया औऱ अपने नागरिक प्रतिष्ठानों का इस्तेमाल युद्ध केन्द्रों के रूप मे किया। इस युद्ध में सबसे हैरत में डालने वाली बात यह भी है कि पिछले 42 दिनों से चल रहे इस संग्राम में रूस ने किसी भी घोषित उक्रेनी नागरिक संस्थान को अपना निशाना नहीं बनाया और इस देश के सांस्कृतिक व राजनैतिक संस्थानों को गोलाबारी या निशानेबाजी की जद में नहीं लिया। दूसरे राष्ट्रसंघ की विशेष बैठक बुलाने का आग्रह स्वयं रूस द्वारा ही किया गया था जिससे वह दुनिया के सामने बुशा की हकीकत को ला सके। अतः भारत का निष्पक्ष जांच करने का आग्रह किसी एक पक्ष की तरफदारी नहीं कही जा सकती। मगर दूसरी तरफ अमेरिका बार- बार भारत को यह याद दिला रहा है कि वह रूस की आय़ुध सामग्री पर अपनी निर्भरता त्यागे तो अमेरिका इस काम में उसकी मदद करेगा। मगर अमेरिका को यह याद रखना होगा कि 2008 में उसके साथ हुए परमाणु करार के बाद अभी तक भारत 'न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप' (परमाणु ईंधन सप्लाई करने वाले देशों का समूह)का सदस्य देश नहीं बना है जबकि इस परमाणु समझौते की यह शर्त थी कि अमेरिका भारत को इस ग्रुप की सदस्यता दिलाने में पूरा सहयोग करेगा और अपने प्रभाव का इस्तेमाल भी करेगा। इतना ही नहीं 2009 में अमेरिका ने सैनिक अस्त्रों की सप्लाई के सन्दर्भ में भारत के साथ 'एंड यूज' समझौता भी किया जिसके तहत अमेरिका द्वारा दिये गये सैनिक अस्त्रों का इस्तेमाल तभी हो सकेगा जब अमेरिका इन्हें चलाने के लिए अपने पास संजो कर रखे गये 'कोड' (गुप्त संकेत) को 'डिकोड' कर देगा। अर्थात भारत इन अस्त्रों को कब और कहां चला सकता है इसकी कमान अमेरिका के हाथ में होगी। हालांकि इसके बाद भारत व अमेरिका के बीच रणनीतिक सहयोग बढ़ा है मगर भारत के हाथ इस समझौते से बंधे हुए हैं। अतः जब भी भारत–रूस सैनिक सहयोग के परिवेश को मापा जाता है तो दोनों देशों के बीच के उन रणनीतिक सम्बन्धों की समीक्षा स्वतः ही हो जाती है जो भारत की स्वतन्त्रता के बाद से दोनों देशों के बीच रहे हैं। भारत की विदेशनीति जिन स्तम्भों पर टिकी हुई है उनमें राष्ट्रहित व मानव कल्याण प्रमुख रहे हैं जो शान्ति व सह अस्तित्व के भाव में समाहित है। परन्तु साफ जाहिर हो रहा है कि अमेरिका व पश्चिमी यूरोपीय देशों की मंशा रूस-यूक्रेन युद्ध को थामने की जगह ऐसा विश्व क्रम (वर्ल्ड आर्डर) बनाने की है जिसमें पारंपरिक पश्चिमी दबदबा बना रहे जिसकी वजह से ये देश मिल कर रूस को अलग–थलग कर देना चाहते हैं और आर्थिक रूप से उसे बर्बाद करने की योजना बनाये बैठे हैं । यदि ऐसा न होता तो अब तक अमेरिका ने रूस के खिलाफ हजारों आर्थिक प्रतिबन्ध न लगाये होते। पश्चिमी देश इस हकीकत से घबराये हुए लगते हैं कि '21 वीं सदी एशिया की सदी होगी" आज अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर जो आर्थिक शक्ति चक्र का घेरा बन रहा है उसमें अमेरिका व यूरोप खुद को 'उत्पादन' के स्थान पर 'खपत' वाले क्षेत्रों मे बदलते देख रहे हैं। औद्योगिक क्रान्ति का स्थान बौद्धिक उत्पादन क्रन्ति ने ले लिया है जिसमें हर इंसान स्वयं एक उत्पादनशील इकाई बनकर उभर रहा है। अतः विदेशमन्त्री श्री जयशंकर का यह कहना सर्वथा उचित है कि विश्व क्रम बदलने की तरफ है। इस सन्दर्भ में भारत-रूस, चीन-ब्राजील व दक्षिण अफ्रीका' के बीच बने 'ब्रिक्स' देशों के संगठन का महत्व बहुत अधिक है क्योंकि ये पांचों देश मिल कर आने वाले समय में अन्तर्राष्ट्रीय सह अस्तित्व को नई ऊंचाई दे सकते हैं। अमेरिका की नजर से यह वास्तविकता किस प्रकार औझल हो सकती है जबकि वह जानता है कि रूस आज भी विश्व में सामरिक शक्ति के मामले में किसी भी अन्य देश से पीछे नहीं है औऱ भारत के साथ उसके घनिष्ठ और बराबरी के स्तर पर अंतरंग सम्बन्ध हैं। आगामी 11 अप्रल को भारत व अमेरिका के बीच रक्षा व विदेश मन्त्रियों की बैठक हो रही है और उससे पहले अमेरिका के रक्षामन्त्री भारत से रूसी सैनिक सामग्री पर निर्भरता छोड़ने का उपदेश दे रहे हैं। बेहतर हो कि अमेरिका अपने बारे में ही सोचे।