सम्पादकीय

मानव अधिकार बनाम जेल सुधार

Subhi
24 Jun 2022 4:53 AM GMT
मानव अधिकार बनाम जेल सुधार
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वास्तव में हमारे समाज में सुधारवादी नीतियों के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण का अभाव दिखाई देता है और वह अपराधियों के प्रति प्रतिशोधात्मक रवैया अपनाता है।

बिभा त्रिपाठी: वास्तव में हमारे समाज में सुधारवादी नीतियों के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण का अभाव दिखाई देता है और वह अपराधियों के प्रति प्रतिशोधात्मक रवैया अपनाता है। ऐसे में अपराध पीड़ितों के साथ न्याय, उनकी क्षतिपूर्ति, उनकी पुनर्स्थापना भी आवश्यक है, ताकि सरकार, समाज, प्रशासन, अपराधी और पीड़ित सभी मिल कर एक नए और स्वस्थ समाज का सृजन कर सकें।

मानव अधिकारों और जेल सुधारों की कागजी यात्रा का इतिहास काफी पुराना है। अगर जेल विशेष के संदर्भ में कैदियों के मानव अधिकारों की बात की जाए तो वहां भी कई प्रकार के स्तरीकरण दिखाई देते हैं जो उम्र, जाति, लिंग, धर्म, आर्थिक स्थिति और अपराधों की प्रकृति के आधार पर गहराई से समझे जा सकते हैं।

कैदियों के अधिकारों के लिए चलाए गए आंदोलनों को सिविल अधिकारों और महिला अधिकारों के लिए चले आंदोलनों की भांति एक सामाजिक राजनीतिक आंदोलन की संज्ञा दी जाती है, क्योंकि 1960 के दशक के पूर्व वैश्विक स्तर पर कैदियों को महज राज्य का गुलाम समझा जाता था। तब न्यायपालिका जेल प्रशासन और अनुशासन के नाम पर हाथ खड़े कर देने के सिद्धांत का अनुसरण करती थी।

ऐसे में प्रश्न उठता है कि कैदियों के मानसिक और शारीरिक उत्पीड़न, अस्वास्थ्यकर जीवन की दशाएं, बेगारी, सीमित स्वास्थ्य सुविधाएं, खराब और अपर्याप्त भोजन, बाहरी दुनिया से संवाद करने पर मनमाने अंकुश आदि पर कोई नियंत्रण लग पाया है? क्या अनुशासन के नाम पर प्रताड़ना में कमी आई है, और एक कैदी को मानव अधिकारों से युक्त वयक्ति समझा जा रहा है या नहीं?

इन प्रश्नों के उत्तर इसलिए भी आवश्यक हैं कि इसी आधार पर हम यह जान पाएंगे कि हम एक सभ्य समाज बन पाए हैं या नहीं। हमने दंड के उद्देश्य पर विचार किया है या नहीं। हमने गांधी के उस वक्तव्य का मर्म जाना है कि नहीं कि पाप से घृणा करो पापी से नहीं। और आगे यह कि जहां हर संत का एक इतिहास रहा है, हर अपराधी का एक भविष्य भी है।

जेल सुधार और मानव अधिकार एक-दूसरे के समानार्थी हैं। यों तो वर्ष 1835 में ही लार्ड मैकाले ने जेल सुधार की बात की थी। उसके बाद विभिन्न चरणों में जेल सुधार समितियां बनीं और क्रमश: यह सुनिश्चित करने की कोशिश की गई कि जेल में एक न्यूनतम जगह, बेहतर खानपान, कैदियों द्वारा की जाने वाली दैनिक मजदूरी की दशाएं, कार्य के घंटे आदि निश्चित किए जाएं। किन्तु परिस्थितियों में संतोषजनक सुधार न होने पर पुन: वर्ष 1919 में यह कहा गया कि जेल प्रशासन का दायित्व है कि वह अपराधों की रोकथाम करे और कैदियों को पुनर्स्थापित करने का प्रयास करे।

स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात गठित मुल्ला समिति, कृष्णा अय्यर समिति और ब्यूरो आफ पुलिस रिकार्ड द्वारा रचित आदर्श जेल मैनुअल में कैदियों की शिक्षा, व्यावसायिक प्रशिक्षण, महिला कैदियों की दशाओं में सुधार जैसे मुद्दे उठाये गए। न्यायपालिका ने भी विभिन्न निर्णयों के माध्यम से कैदियों की समस्याओं की पहचान कर उसे दूर करने की वकालत की है।

सुनील बात्रा के मामले में कहा गया कि जेल सुधार ऐसा होना चाहिए जो कैदियों दण्डात्मक निरोध को उद्देश्यपरक उपचार प्रदान कर उन्हें समाज में समायोजित करने में मददगार साबित हो। कैदियों को अनावश्यक ढंग से लोहे की जंजीरों में न बांधा जाय और उनको एकांत कारावास में भी न रखा जाए। जेल मे रहने का यह अर्थ कदापि नहीं है कि उसके अन्य मौलिक अधिकारों का दमन कर दिया जाए। एक कैदी को मुफ्त विधिक सहायता, मानवीय गरिमा, सुनवाई का अवसर, बाहरी दुनिया से संवाद, बोलने की स्वतंत्रता, निजता के अधिकार और अपने धर्म के अनुरूप आचरण का अधिकार उसे कारागार के भीतर भी उपलब्ध होता है।

कहना न होगा कि ब्रितानी हुकूमत के अत्याचार तो हम नहीं सुनते, पर सुनना यह भी नहीं है कि मंजुला शेट्टी नामक आजीवन कारावास की सजा भुगत रही महिला को उस बैरेक की छह महिला अधिकारियों द्वारा इतना पीटा गया कि उसकी मौत हो गई। और ऐसे बच्चों के मानव अधिकारों पर गंभीर विमर्श आवश्यक है, जो छह वर्ष की उम्र तक अपनी माताओं के साथ जेल में रहते हैं। यह उन नादान बच्चों के भविष्य के साथ कितना क्रूर मजाक बन सकता है, इसकी कल्पना से ही रूह कांप उठती है।

हमें यह याद रखना होगा कि एक उदारवादी लोकतंत्र में हम जेल में इसलिए नहीं भेजे जाते कि हमारे साथ हिंसक और बर्बर कृत्य किए जाएं, बल्कि इसलिए भेजे जाते हैं कि हम अपनी गलती का पश्चाताप करें, आत्मावलोकन करें और वापस समाज में लौटें तो एक विधि पालक नागरिक की भांति जीवन बिता सकें।

मगर इस सबके साथ सर्वोच्च न्यायालय द्वारा राममूर्ति बनाम कर्नाटक राज्य के मामले में दिए गए निर्णय का उल्लेख भी जरूरी है, क्योंकि इस वाद में सर्वोच्च न्यायालय ने न सिर्फ कैदियों के विभिन्न अधिकारों की बात की थी, बल्कि उनके कर्तव्यों को भी गिनाया था। जैसे यह प्रत्येक कैदी का एक कर्तव्य है कि वह विधि समस्त आदेशों का अनुपालन करें और जेल में बनाए गए अनुशासनात्मक नियमों के अनुसार अपना व्यवहार करें।

जेल के अंदर साफ-सफाई को बनाए रखने में अपना योगदान दें और अपने साथ रहने वाले अन्य कैदियों की गरिमा और उनके जीवन के अधिकार को भी महत्त्व और मान्यता प्रदान करें। किसी की भी धार्मिक भावनाओं, मूल्यों और विश्वासों पर कुठाराघात न करें। और जहां तक संभव हो, जेल अधीक्षक के कार्य में सहयोग प्रदान करें।

यहीं पर भूटान मोहन पटनायक बनाम आंध्र प्रदेश राज्य के निर्णय का भी उल्लेख करना अपेक्षित है, क्योंकि इस निर्णय में न्यायालय ने कहा था कि कोई कैदी इस बात की शिकायत नहीं कर सकता कि जेल की दीवारों पर विद्युत तार क्यों लगाए गए हैं, क्योंकि जेल से भागना किसी कैदी का कोई मौलिक अधिकार नहीं है।

कहने का अर्थ है कि किसी भी विषय की सफलता तभी सुनिश्चित की जा सकती है, जब उस विषय की एकांगी व्याख्या न कर उसके सभी पक्षों का तटस्थ मूल्यांकन किया जाए। जेल प्रशासन भी ऐसा ही एक विषय है। यहां जेल अधीक्षक के ऊपर कैदियों की उपस्थिति सुनिश्चित करने का ऐसा भीषण दबाव होता है कि वह कठोर से कठोर हथकंडे अपनाने के लिए मजबूर हो जाता है। ऐसे में सर्वाधिक आवश्यकता इस बात की है कि जो व्यक्ति सिद्ध दोष घोषित हुआ है, उसे भी अपने दंड के प्रति स्वीकार्यता दिखानी चाहिए, क्योंकि जब तक गलती की अनुभूति नहीं होगी, सुधार की संभावना सदैव क्षीण ही रहेगी।

इसके साथ अन्य महत्त्वपूर्ण मुद्दा है जेल प्रशासन के लिए नियत बजट में बढ़ोतरी किए जाने का। जब तक बजट के प्रतिशत में वृद्धि नहीं की जाएगी, मानवीय सुविधा भी सही ढंग से उपलब्ध नहीं होगी। कैदियों की दिहाड़ी मजदूरी बढ़ाने की सिफारिश भी कई समितियों द्वारा की गई है। इन सिफारिशों को अमली जामा पहनाने की आवश्यकता है।

इसके साथ ही कैदियों के अनुपात में जेल और जेल कर्मियों की संख्या भी बढ़ाने की आवश्यकता है। प्रत्येक जेल में एक प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र सरीखी सुविधा और व्यावसायिक प्रशिक्षण, दूरवर्ती शिक्षा और परीक्षा के समस्त विकल्पों पर कार्य करने की आवश्यकता है। हाल ही में घोषित बोर्ड परीक्षा के नतीजों में जेल से परीक्षा पास करने वाले विद्यार्थियों की अच्छी-खासी संख्या यह बताती है कि एक अपराध के बाद भी वयक्ति का भविष्य बचा रहता है और भविष्य में अपराधों की पुनरावृत्ति न हो, इसके लिए भी उन्हें शिक्षित-प्रशिक्षित और आत्मनिर्भर बनाने की आवश्यकता है।

वास्तव में हमारे समाज में सुधारवादी नीतियों के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण का अभाव दिखाई देता है और वह अपराधियों के प्रति प्रतिशोधात्मक रवैया अपनाता है। ऐसे में अपराध पीड़ितों के साथ न्याय उनकी क्षतिपूर्ति, उनकी पुनर्स्थापना भी आवश्यक है, ताकि सरकार, समाज, प्रशासन, अपराधी और पीड़ित सभी मिल कर एक नए और स्वस्थ समाज का सृजन कर सकें।


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