- Home
- /
- अन्य खबरें
- /
- सम्पादकीय
- /
- मानवाधिकार और...
मानवाधिकार और मानसिकता: जो बात 1948 में सही थी, वह 2021 में भी सही है
बताया जाता है कि प्रधानमंत्री ने कहा है, 'हाल के वर्षों में कुछ लोगों ने अपने हितों को ध्यान में रखकर मानवाधिकारों की व्याख्या करना शुरू कर दिया है। वे किसी एक घटना में मानवाधिकारों के उल्लंघन को तो देखते हैं, लेकिन उसी तरह की किसी अन्य घटना में इसे नजरंदाज कर जाते हैं। ऐसी मानसकिता मानवाधिकारों को भी नुकसान पहुंचाती हैं।' वह पूरी तरह से सही हैं। 1948 में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने मानवाधिकार का सार्वभौमिक घोषणा पत्र (यूडीएचआर) स्वीकार किया था। इस दस्तावेज ने उन अधिकारों और स्वतंत्रताओं को स्पष्ट किया, जिनके लिए प्रत्येक मनुष्य समान रूप से और अनिवार्य रूप से हकदार है।
और बदतर हो गया
दस्तावेज की प्रस्तावना ने 1948 के विश्व की वास्तविकताओं को प्रतिबिंबित किया और यूडीएचआर के दस्तावेजीकरण की जरूरत को उचित ठहराया क्योंकि, 'मानव अधिकारों की अवहेलना और अवमानना के परिणामस्वरूप बर्बर कार्य हुए हैं, जिन्होंने मानवता की अंतरात्मा को ठेस पहुंचाई है', जो बात 1948 में सही थी, वह 2021 में भी सही है; कुछ देशों में इसकी स्थिति बेहतर हुई होगी, लेकिन निश्चित रूप से कुछ अन्य देशों में इसकी स्थिति बदतर हुई है, जिनमें भारत भी शामिल है।
चलिए तीन अक्तूबर, 2021 को उत्तर प्रदेश के लखीमपुर में जो कुछ हआ, उससे शुरुआत करते हैं। किसान कृषि संबंधी तीन कानूनों का विरोध कर रहे थे, जिन्हें संसद ने वास्तव में बहुत जल्दबाजी में पारित किया है। जुलूस के रूप में आगे बढ़ रहे किसानों के पीछे से तेज रफ्तार में आए वाहनों के एक काफिले (जिनमें से कम से कम दो की पहचान हो चुकी है) ने चार प्रदर्शनकारियों को रौंद दिया। इसके बाद हिंसा हुई। गुस्साई भीड़ ने कार में सवार तीन लोगों को पकड़ लिया और पीटकर उनकी हत्या कर दी। एक पत्रकार की भी मौत हुई। इसकी अगुआई कर रहा वाहन केंद्र सरकार में गृह राज्य मंत्री के बेटे से संबंधित है। यह आरोप है कि उनका बेटा उस समय वाहन में ही था।
इस घटना में मानवाधिकारों का उल्लंघन हुआ। यूडीएचआर का अनुच्छेद 19 घोषित करता है, 'प्रत्येक व्यक्ति को विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार है; इस अधिकार में बिना हस्तक्षेप किए विचार व्यक्त करने की स्वतंत्रता का अधिकार शामिल है...' प्रदर्शनकारी किसान शांतिपूर्ण तरीके से एकत्र हुए थे और मार्च करना कृषि कानूनों को लेकर अपने विचार की अभिव्यक्ति थी। अनुच्छेद तीन घोषित करता है, 'प्रत्येक व्यक्ति को जीवन, स्वतंत्रता और सुरक्षा का अधिकार है।' तेज रफ्तार वाहन ने तीन जिंदगियां ले लीं। लखीमपुर खीरी में हुए मानवाधिकारों के उल्लंघन को लेकर प्रधानमंत्री आज तक मौन हैं।
एक्टिविस्ट आतंकवादी हैं!
जरा पीछे मुड़कर 2018 और महाराष्ट्र के भीमा कोरेगांव की घटना पर गौर कीजिए। छह जून, 2018 को पुलिस ने पांच सामाजिक कार्यकर्ताओं को जनवरी, 2018 में भीमा कोरेगांव में हिंसा भड़काने के आरोपों में गिरफ्तार किया। इन पांच लोगों में एक वकील, एक अंग्रेजी की प्राध्यापक, एक कवि तथा प्रकाशक और दो मानवाधिकार कार्यकर्ता शामिल थे। वे अब भी जेल में हैं; जमानत के उनके आवेदन बार-बार खारिज कर दिए गए। (28 अगस्त, 2018 को पांच अन्य सामाजिक कार्यकर्ताओं को और गिरफ्तार किया गया)
वकील सुरेंद्र गाडलिंग ने 'साइबर लॉ ऐंड ह्यूमन राइट्स' के अध्ययन की इजाजत मांगी। लेकिन उनकी अर्जी को खारिज कर दिया गया। अंग्रेजी की प्राध्यापक सोमा सेन को एक साल की शिकायत के बाद ही उनकी कोठरी में कुर्सी उपलब्ध कराई गई। गठिया के बावजूद उन्हें पतली चटाई पर जमीन पर सोने को मजबूर किया गया। शुरुआती महीनों में उन्हें सजायाफ्ता कैदियों के साथ रखा गया था। अधिकारों के लिए लड़ने वाले कार्यकर्ता महेश राउत को उनके परिवार द्वारा लाई गई आयुर्वेद दवाएं देने से इन्कार कर दिया गया, जिनकी उन्हें अल्सरेटिव कोलाइटिस के इलाज के लिए जरूरत थी। कवि और प्रकाशक सुधीर धावले को उनके सहयोगियों और मित्रों से नहीं मिलने दिया गया, क्योंकि वे उनके रक्तसंबंधी नहीं थे।
दो जनवरी, 2021 को एक पत्रकार प्रतीक गोयल ने भीमा कोरेगांव मामले के आरोपियों के खिलाफ आपराधिक प्रक्रिया में कानून के 16 उल्लंघनों का दस्तावेजीकरण किया। इनमें बिना वारंट के तलाशी और जब्ती जैसी गंभीर ज्यादतियां शामिल थीं; ट्रांजिट रिमांड के आदेश के बिना एक कैदी को जाना; कैदी को अपनी पसंद का वकील रखने से इन्कार; एक कैदी के अस्पताल में हुए इलाज का खर्च वहन करने से राज्य का इन्कार; एक कैदी को मेडिकल रिपोर्ट देने से इन्कार करना; गठिया से पीड़ित कैदी को कमोड कुर्सी देने से मना करना; पूरी बाजू का स्वेटर देने से इन्कार; स्वामी विवेकानंद की किताबें देने से इन्कार; महाराष्ट्र में भाजपा सरकार की जगह नई सरकार के गठन के दो दिन बाद ही महाराष्ट्र पुलिस से मामले को मनमाने ढंग से वापस लेना और राष्ट्रीय जांच एजेंसी (जो कि केंद्र सरकार के तहत, आतंकवादी कृत्यों और अपराधों की जांच करती है) को स्थानांतरित करना; एक कैदी को उसकी मां के अंतिम संस्कार में शामिल होने के लिए पैरोल देने से इन्कार करना; और इसी तरह।
सुनवाई से पहले सजा
यूडीएचआर का संबंधित अनुच्छेद अन्य बातों के साथ इस तरह से है-
अनुच्छेद पांच : किसी के भी साथ यातना या क्रूरता, अमानवीयता या अपमानजनक व्यवहार नहीं किया जाएगा या दंड नहीं दिया जाएगा।
अनुच्छेद नौ : किसी को भी मनमाने ढंग से गिरफ्तार, नजरबंद या देश से निष्कासित नहीं किया जाएगा।
अनुच्छेद दस : सभी को पूर्णतया समान रूप से अधिकार है कि उसके अधिकारों और कर्तव्यों के निर्धारण करने के मामले में और उन पर आरोपित किसी आपराधिक मामले में उसकी सुनवाई न्यायोचित और सार्वजनिक रूप से निरपेक्ष एवं निष्पक्ष अदालत द्वारा हो।
अनुच्छेद ग्यारह : प्रत्येक व्यक्ति, जिस पर दंडनीय अपराध का आरोप लगाया गया हो, उसे खुद को तब तक निर्दोष बताने का अधिकार है जब तक कि उसे खुली अदालत में कानून के मुताबिक दोषी न साबित कर दिया जाए...
मेरी जानकारी के मुताबिक, पिछले तीन वर्षों में प्रधानमंत्री ने भीमा कोरेगांव मामले के बंदियों के मानवाधिकारों के बारे में एक भी शब्द नहीं कहा और न ही इस मामले में आरोप तय करने में एनआईए की ओर से हो रहे लंबे विलंब के बारे में, जो कि सीधे उनके अधीन काम करती है। कहने की जरूरत नहीं कि अभी तक सुनवाई शुरू नहीं हुई है।
मैं प्रधानमंत्री की इस बात से पूरी तरह से सहमत हूं कि 'ऐसी मानसिकता मानवाधिकारों को बहुत नुकसान पहुंचाती है।'