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सम्पादकीय
मानव विकास सूचकांक अब भी चुनौती : 132वें पायदान पर बैठे भारत के लिए क्या हैं इसके मायने?
Rounak Dey
15 Sep 2022 2:12 AM GMT
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सार्वजनिक सेवाओं में स्वच्छता जैसे मुद्दों पर रणनीतिक रूप से प्रभावी पहल करने की जरूरत है।
हाल ही में संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) द्वारा प्रकाशित मानव विकास सूचकांक (एचडीआई)-2021 में 189 देशों की सूची में भारत 132वें पायदान पर पाया गया है। इसमें कहा गया है कि कोविड-19 के कारण 32 वर्षों में पहली बार दुनिया भर में मानव विकास ठहर-सा गया है। रिपोर्ट के मुताबिक, जीवन प्रत्याशा, स्वास्थ्य व शिक्षा की बड़ी चुनौतियों के बीच भारत ने कोरोना संकट का बेहतर ढंग से सामना किया।
रिपोर्ट से यह भी मालूम होता है कि मानव विकास सूचकांक-2021 में जहां बांग्लादेश व चीन जैसे देश भारत से बेहतर स्थिति में हैं, वहीं मलयेशिया और थाईलैंड जैसे एशियाई पड़ोसी देश भी अत्यधिक उच्च श्रेणी में दिखाई दे रहे हैं। दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था का तमगा हासिल करने वाले भारत में मानव विकास सूचकांक में कमी आना विचारणीय प्रश्न है।
इसमें कोई दो मत नहीं है कि कोविड-19 ने भारत में गरीबी और भूख की चुनौती को बढ़ाया है। पिछले दशक में देश में जिस तेजी से गरीबी और भूख की चुनौती में कमी आ रही थी, उसे अकल्पनीय कोरोना संकट ने बुरी तरह प्रभावित किया है। महामारी का आर्थिक प्रकोप विशेष रूप से मध्यम वर्ग और वंचित परिवारों के लिए बहुत अधिक रहा है, जिसके चलते कई परिवार स्वास्थ्य, शिक्षा और जीवन स्तर के मामले में पीछे हुए हैं।
इसमें भी कोई दो मत नहीं है कि जहां सरकार गरीबी, भूख, परिवार कल्याण और स्वास्थ्य चुनौतियों के समाधान के लिए प्रभावी कदम उठाते हुए आगे बढ़ी है, वहीं कोविड-19 के बाद इन सभी क्षेत्रों में सरकार ने और अधिक प्रभावी पहल की है और दुनिया के विभिन्न वैश्विक संगठनों ने भी इसकी सराहना की है।
यदि कोरोना काल में सरकार के ऐसे विशिष्ट सफल अभियान नहीं होते, तो देश में गरीबी भूख, स्वास्थ्य, जीवन प्रत्याशा और शिक्षा के क्षेत्र की चुनौतियां और दिखाई देतीं। यह बात भी महत्वपूर्ण है कि देश में आम आदमी के कल्याण के लिए लागू की गई विभिन्न सरकारी योजनाएं, मसलन प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना (पीएमजीकेवाई), सामुदायिक रसोई, वन नेशन-वन राशन कार्ड, उज्ज्वला योजना, आयुष्मान भारत, पोषण अभियान, समग्र शिक्षा जैसी योजनाएं प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से गरीबी के स्तर में कमी और स्वास्थ्य व भुखमरी की चुनौती को कम करने में सहायक रही हैं।
कोरोना काल में प्रचुर खाद्यान्न उत्पादन के कारण मुफ्त खाद्यान्न की आपूर्ति से गरीबों को राहत मिली है और करोड़ों लोगों को गरीबी के नए दलदल में फंसने से बचाया गया है। लेकिन कोविड-19 की चुनौतियों के बाद अब देश में लोगों के स्वास्थ्य, शिक्षा, कौशल विकास, रोजगार और सार्वजनिक सेवाओं में सुधार के साथ-साथ उनके जीवन-स्तर को ऊपर उठाने की दिशा में लंबा सफर तय करना है।
स्पष्ट दिखाई दे रहा है कि कोविड-19 ने सबसे ज्यादा स्वास्थ्य सुविधाओं की चुनौती खड़ी की है। 2017 में नई राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति में 2025 तक स्वास्थ्य पर खर्च को सकल घरेलू उत्पाद का 2.5 प्रतिशत किया जाना निर्धारित किया गया था। फिर पंद्रहवें वित्त आयोग ने पहली बार स्वास्थ्य के लिए उच्च-स्तरीय कमेटी गठित की थी। इस कमेटी ने भी स्वास्थ्य पर सरकारी खर्च को 2.5 प्रतिशत तक बढ़ाने की बात कही है।
इस मामले में देश अब भी पीछे है और स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च बढ़ाया जाना जरूरी है। निस्संदेह कोविड-19 के कारण देश में डिजिटल शिक्षा की जरूरत बढ़ गई है और इसकी अहमियत रोजगार में भी बढ़ गई है। कोविड-19 के ऐसे दौर में, जब अर्थव्यवस्था को अधिक दक्ष व योग्य श्रम बल की जरूरत है, शिक्षा पर जीडीपी का करीब छह फीसदी हिस्सा खर्च किया जाना जरूरी है।
यूएनडीपी की मानव विकास सूचकांक रिपोर्ट आईना है, जिसने दिखाया है कि देश में मानव विकास की गुणवत्ता बढ़ाने के लिए सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली, न्यायसंगत और उच्च गुणवत्ता वाली सार्वजनिक शिक्षा, कौशल विकास, रोजगार, सार्वजनिक सेवाओं में स्वच्छता जैसे मुद्दों पर रणनीतिक रूप से प्रभावी पहल करने की जरूरत है।
सोर्स: अमर उजाला
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