सम्पादकीय

कैसे बचाओगे लाज… बताओ ना कांग्रेस के युवराज?

Rani Sahu
29 Sep 2021 3:14 PM GMT
कैसे बचाओगे लाज… बताओ ना कांग्रेस के युवराज?
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कहते हैं घर का मालिक हमेशा सही नहीं होता. कभी-कभी उसके गलत फैसले और छोटों को मौका नहीं देने की वजह से ही परिवार टूट की कगार पर पहुंच जाता है

विवेक त्रिपाठी कहते हैं घर का मालिक हमेशा सही नहीं होता. कभी-कभी उसके गलत फैसले और छोटों को मौका नहीं देने की वजह से ही परिवार टूट की कगार पर पहुंच जाता है. इतना सब होने के बावजूद भी अगर मालिक ना सुधरे तो उस घर का बेड़ा गर्क होना तो तय ही है. आज के परिप्रेक्ष्य में ये बात कांग्रेस (Congress) पर बिल्कुल सटीक बैठती है. वैसे तो इतिहास बताता है कि कांग्रेस ने भारत में सबसे लंबे समय तक शासन किया, लेकिन बात अगर पिछले कुछ दशकों की करें तो साल 2004 की कांग्रेस की तस्वीर आज की कांग्रेस से बिल्कुल अलग थी. 2004 में सोनिया गांधी (Sonia Gandhi) का प्रचार, देश के गली-मोहल्लों तक पहुंच, बड़े-बड़े भाषण बताते थे कि देश में अब सिर्फ एक ही पार्टी रह गई है और वो है कांग्रेस. लेकिन आज की कांग्रेस तो विलुप्त होने की कगार पर है. राहुल गांधी (Rahul Gandhi) को फेस बनाने के चक्कर में कांग्रेस ने अपने कई सूरमा खो दिए. राहुल गांधी को अब भी शायद कन्फ्यूजन है. या तो वो कैप्टन अमरिंदर सिंह (Amarinder Singh) जैसे नेताओं के योगदान को समझ नहीं पा रहे या समझना ही नहीं चाह रहे.

2004 से 2014 तक 10 साल के शासन के बाद कांग्रेस पुरानी जीन्स की तरह बीते हुए कल की तरफ बढ़ रही है. कपिल सिब्बल, गुलाम नबी आजाद जैसे नेताओं की चिंता व्यर्थ नहीं है. चिंता इस बात की कि वो कांग्रेस जिसका झंडा बच्चे-बच्चे के हाथ में हुआ करता था. सिर्फ पंजा ही पंजा दिखता था, आखिर ऐसा क्या हुआ कि पंजे पर से लोगों का भरोसा ही उठ गया. इसका मतलब यही है कि पार्टी में बड़े नेताओं की सुनी नहीं जा रही. अभी भी आलाकमान को ये अकल नहीं आई कि पार्टी कार्यकर्ताओं और नेताओं से चलती है ना कि किसी एक से.
बगावती तेवर के पीछे बड़ा दर्द?
पंजाब की सियासत में आए उलटफेर के बाद कपिल सिब्बल को रहा नहीं गया और उन्होंने आलाकमान पर बगावती तंज कर दिया. कपिल सिब्बल ने सवाल उठा दिए कि अभी पार्टी में कोई पूर्णकालिक अध्यक्ष नहीं है तो आखिर ये फैसले कौन ले रहा है. आखिर ऐसा क्या हो रहा है कि बड़े-बड़े दिग्गज पार्टी छोड़कर जा रहे हैं. कपिल सिब्बल की चिंता भी जायज है, इसलिए क्योंकि ज्योतिरादित्य सिंधिया, जितिन प्रसाद जैसे नेता पार्टी छोड़कर चले गए, कैप्टन अमरिंदर सिंह भी करीब-करीब इसी राह में हैं. पार्टी छोड़कर जाने वालों की लिस्ट तो लंबी है लेकिन बड़े चेहरों का जाना पार्टी के क्रियाकलापों पर प्रश्न जरूर खड़े कर रहा है, कि क्या वाकई आलाकमान पार्टी के बड़े नेताओं को तवज्जो नहीं देती है? क्या कांग्रेस की परिभाषा परिवारवाद से ही जानी जाती है?
कांग्रेस को अपने ही नेताओं पर भरोसा नहीं
कांग्रेस के धुरंधर कैप्टन अमरिंदर सिंह का इस्तीफा और दिल्ली में अमित शाह से मिलना इस बात का संकेत है कि पार्टी किसी ईमानदार नेता और कार्यकर्ता के साथ नहीं चलेगी बल्कि अपने हिसाब और अपने फायदों को देखकर ही चलेगी. बात अगर बीजेपी छोड़ कांग्रेस में शामिल नवजोत सिंह सिद्धू की करें तो कांग्रेस को उनपर भी पूरी तरह से भरोसा नहीं है. पार्टी ने सिद्धू को भले ही पंजाब का अध्यक्ष बना दिया हो लेकिन उनके तौर तरीकों से साफ लगता है कि सिद्धू पर पार्टी लगाम कसना चाह रही है. ऐसे में ये भी सवाल उठते हैं कि आखिर कांग्रेस चाहती क्या है.
10 जनपथ ही दरबार तो भला कैसे बेड़ा पार
2014 में बीजेपी सरकार बनने के बाद से ही कांग्रेस विपक्ष में है. कांग्रेस का विपक्ष में रहना तो समझ में आता है लेकिन इनकी रणनीति यही बता रही है कि इनके गलत फैसले पार्टी को डुबो रहे हैं. विपक्ष में रहकर भी कांग्रेस कोई मुद्दे नहीं खड़े कर पा रही है, जबकि बीजेपी ने 2014 और उसके बाद 2019 का लोकसभा चुनाव मुद्दों को आधार बनाकर ही जीता था. 2017 का यूपी चुनाव हो या 2020 का बिहार चुनाव. मध्यप्रदेश हो या कर्नाटक, पार्टी आलाकमान ने कभी एक राजनीतिक रणनीति पर काम नहीं किया. 10 जनपथ से होने वाले फैसलों का नतीजा ही है कि कांग्रेस पहले देश और धीरे-धीरे ज्यादातर प्रदेशों से क्लीन बोल्ड हो चुकी है. कांग्रेस के तौर तरीकों से तो यही लगता है कि 2022 और 2024 जैसे चुनाव पर इनका फोकस ही नहीं है.
कन्हैया आए तो हैं लेकिन टिकेंगे कि नहीं!
लाल निशान छोड़ कन्हैया कुमार कांग्रेसी जरूर बन गए हैं, लेकिन वो कांग्रेस के खेवनहार साबित भी होंगे इस पर शंका है. क्योंकि कोई भी नेता अपने इलाके और समाज के हिसाब से ही अपने वोटों का फायदा देखते हुए कुछ करना चाहता है. कन्हैया कुमार जैसे नेता जिन पर देशद्रोही नारों के आरोप लग चुके हैं, उनपर 10 जनपथ का रवैया ही ये तय करेगा कि वह पार्टी के लिए कितने बड़े खेवनहार साबित होंगे और उसे कहां तक ले जाएंगे. अभी तक के हालात से तो साफ है कि पार्टी के फैसलों ने बड़े-बड़े नेताओं को खो दिया है. ऐसे में आलाकमान एजेंडा क्या सेट करेगा. हाल तो अभी यही है कि वो तो अंतर्कलह मिटाने में भी नाकाम साबित हुआ है.


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