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किसी व्यक्ति विशेष को राजनीति में महत्व देने में कोई बुराई नहीं है
अजय झा किसी व्यक्ति विशेष को राजनीति में महत्व देने में कोई बुराई नहीं है, पर अगर वह व्यक्ति विशेष अपने को पार्टी से भी बड़ा मानने लगे और पार्टी उसे स्वीकार भी कर ले तो फिर माना जा सकता है कि उस पार्टी की हालत खस्ता है. पिछले दिनों उत्तराखंड (Uttarakhand) में कुछ यही नज़ारा दिखा. पार्टी के वरिष्ठ नेता और पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत (Harish Rawat) पार्टी से नाराज हो गए और ट्विटर पर अपनी व्यथा लिख डाली. शिकायत की कि प्रदेश में जानबूझ कर उनकी अनदेखी की जा रही है और दबे शब्दों में राजनीति से सन्यास लेने तक की बात कर दी. कांग्रेस पार्टी (Congress Party) सकते में आ गई. होना ही था, प्रदेश में चुनाव सिर पर जो था.
रावत को जिस बात की उम्मीद थी, वही हुआ. धमकी काम आई. उन्हें इस बात का अनुभव था कि कांग्रेस पार्टी में घी निकालने के लिए उंगली टेढ़ी करनी ही पड़ती है. वह पार्टी के लम्बे समय तक पंजाब में प्रभारी थे और उन्होंने देखा था कि कैसे नवजोत सिंह सिद्धू की धमकियों के आगे पार्टी को झुकना पड़ा था. रावत ने ही घोषणा की थी कि तात्कालिक मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह (Amarinder Singh) के नेतृत्व में पार्टी आगामी पंजाब विधानसभा चुनाव (Punjab Assembly Election) लड़ेगी, और फिर अमरिंदर सिंह को सिद्धू की वजह से मुख्यमंत्री पद से हटाना पड़ा. रावत की धमकी कामयाब रही. उनकी नाराजगी दूर की गई. हालांकि कांग्रेस पार्टी ने अब तक विधिवत रूप से उत्तराखंड में अपने मुख्यमंत्री पद के दावेदार की घोषणा नहीं की है, पर इसमें कोई शक नहीं है कि वह और कोई नहीं बल्कि हरीश रावत ही होंगे.
क्या हरीश रावत कांग्रेस की जीत सुनिश्चित कर पाएंगे?
पर क्या रावत की जीत से कांग्रेस पार्टी की जीत पक्की हो गई है? शायद नहीं. कल ही एक चुनाव पूर्व सर्वेक्षण सामने आया जिसमें उत्तराखंड में कांग्रेस पार्टी को 70 सदस्यों वाली विधानसभा में 12 से 16 सीट जीतने की सम्भावना व्यक्त की गयी है और सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी (BJP) की एक बार फिर से सरकार बनते दिख रही है. कांग्रेस पार्टी के लिए राहत की बात सिर्फ यही है कि 2017 में मिले 11 सीटों के मुकाबले उसे इस बार थोड़े ज्यादा सीटों पर सफलता मिल सकती है और बीजेपी के सीटों में कमी आ सकती है.
बीजेपी ने अपने स्तर पर वह सब कुछ किया ताकि वह चुनाव हार जाए. चार महीनों में तीन बार मुख्यमंत्री बदलना कभी ना देखी गयी थी, ना ही सुनी गयी थी. बीजेपी आलाकमान को यह समझने में चार साल का समय लग गया कि त्रिवेन्द्र सिंह रावत का कार्यकाल सामान्य था और उनके नेतृत्व में चुनाव नहीं जीता जा सकता था. त्रिवेन्द्र सिंह रावत की जगह सांसद तीरथ सिंह रावत को मुख्यमंत्री बनाया गया. कोरोना महामारी उनदिनों अपने चरम पर थी, इसलिए विधानसभा उपचुनाव कराना चुनाव आयोग के लिए संभव नहीं था. लिहाजा चार महीनों के बाद तीरथ सिंह रावत की जगह युवा नेता पुष्कर सिंह धामी को मुख्यमंत्री बनाया गया. धामी पिछले 6 महीनों से मुख्यमंत्री हैं. 6 महीने काम करने के लिए जो जनता देख सके पर्याप्त नहीं होता, पर धामी ने घोषणाओं से ही जनता का विश्वास जीतने की कोशिश की है. अगर बीजेपी की फिर से सरकार बनने की सम्भावना बढ़ती जा रही है तो इसमें धामी का प्रदर्शन कम और कांग्रेस पार्टी की तैयारी में कमी ज्यादा दिख रही है.
कांग्रेस इतिहास के भरोसे है
पिछले चुनाव में बुरी तरह पराजित होने के बाद उम्मीद की जा रही थी कि कांग्रेस पार्टी 2022 के चुनाव की तैयारी में जुट जाएगी. पर लगता है कि पार्टी इतिहास के भरोसे ही बैठी रही. सन 2000 में उत्तराखंड पृथक राज्य बना और वहां बीजेपी की सरकार बनी. 2002 में पहली बार चुनाव हुआ और अब तक वहां बारी-बारी से कांग्रेस और बीजेपी की सरकार बन रही थी. कांग्रेस पार्टी की शायद सोच यही थी कि उन्हें खास मेहनत करने की जरूरत नहीं है क्योंकि इस बार बारी उनके जीतने की है. पर यह कोई पत्थर की लकीर तो है नहीं. उस परंपरा का अंत एक दिन होना ही था, जिसकी सम्भावना इस बार बढ़ती जा रही है और पहली बार उत्तराखंड में किसी पार्टी को लगातार दूसरी बार सफलता मिल सकती है.
पिछले पांच वर्षों से कांग्रेस पार्टी ने कुछ ऐसा नहीं किया जिससे बीजेपी की परेशानी बढ़ सके. आलाकमान ने प्रदेश की सुध नहीं ली और उत्तराखंड में कांग्रेस कई गुटों में बंट गयी. प्रदेश में कांग्रेस के बड़े नेता बीजेपी की जगह हरीश रावत को ही ठिकाने लगाने के प्रयास में लगे रहे. पर ऐसा हो नहीं सका. रावत की धमकी के आगे पार्टी आलाकमान को झुकना पड़ा. इसका सीधा असर यह हो सकता है कि कांग्रेस पार्टी विभिन्न गुटों में बंट कर ही चुनाव लड़ेगी.
क्या कांग्रेस के पास विकल्प की कमी थी
सवाल यह भी है कि क्या कांग्रेस पार्टी के पास रावत का कोई विकल्प नहीं था? शायद नहीं. पांच वर्ष का समय काफी होता है गंभीरतापूर्वक नए नेतृत्व को सामने लाने के लिए. पर ऐसा कोई प्रयास हुआ ही नहीं और चुनाव के आते-आते कांग्रेस पार्टी विवश हो गयी कि कमान एक बार फिर से रावत को ही सौंप दी जाए. इसमें कोई शक नहीं कि रावत उत्तराखंड में कांग्रेस के सबसे बड़े नेता हैं. चुनाव परिणाम आते-आते रावत 73 वर्ष के हो जाएंगे. 20 वर्ष पहले रावत की अथक मेहनत का ही नतीजा था कि कांग्रेस पार्टी चुनाव जीत पायी थी. पर जब मुख्यमंत्री बनाने की बारी आई तो रावत की अनदेखी कर के 77 वर्षीय वयोवृद्ध नेता नारायण दत्त तिवारी को मुख्यमंत्री बनाया गया.
2012 में कांग्रेस फिर से सत्ता में वापस आई पर मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा को बनाया गया. रावत की बारी 2014 में आई, तब तक कांग्रेस पार्टी की हालत पस्त हो चुकी थी. रावत के नाम सिर्फ रिकॉर्ड ही बना कि 2014 से 2017 के बीच उन्होंने तीन बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ली, पर कांग्रेस पार्टी को 2017 में करारी हार से बचा नहीं सके. यहां तक कि रावत दो विधानसभा क्षेत्रों से चुनाव लड़े और दोनों क्षेत्रों में उन्हें हार का सामना करना पड़ा.
रावत अब बूढ़े हो चुके हैं, उनके खिलाफ पार्टी में बगावत की स्थिति है और उनकी लोकप्रियता काफी कम हो चुकी है. रावत के सामने 46 वर्ष के युवा नेता पुष्कर सिंह धामी हैं जिनमे उत्तराखंड की जनता को भविष्य दिख रहा है. एक पिटे हुए मोहरे पर दांव लगाने का काम वही पार्टी कर सकती है जिसके पास सोच की या योजना की कमी हो. उत्तराखंड में अगर फिर से बीजेपी की सरकार बनती है तो यह बीजेपी की जीत कम और कांग्रेस पार्टी की हार ज्यादा होगी.
Rani Sahu
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