सम्पादकीय

बेसहारा गाय की समस्या का सामाजिक स्‍तर पर कैसे हो समाधान

Rani Sahu
10 March 2022 2:35 PM GMT
बेसहारा गाय की समस्या का सामाजिक स्‍तर पर कैसे हो समाधान
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उत्तर प्रदेश समेत सभी पांच राज्यों में संपन्न विधानसभा चुनावों के परिणाम आ चुके हैं

ईश्वर दास ।

उत्तर प्रदेश समेत सभी पांच राज्यों में संपन्न विधानसभा चुनावों के परिणाम आ चुके हैं। उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी पूर्ण बहुमत के साथ एक बार फिर सत्ता में आई है। निश्चित तौर पर योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में उत्तर प्रदेश में शासन-प्रशासन के संचालन में व्यापक परिवर्तन हुआ है, परिणामस्वरूप लोगों ने एक बार फिर उन्हें ही राज्य की सत्ता सौंपी है।

परंतु उत्तर प्रदेश में बेसहारा पशुओं से किसानों को होने वाली परेशानी किसी से छिपी नहीं है। चुनावों में किसानों की यह समस्या दूर करने का मुद्दा भी राजनीतिक दलों ने उठाया था। दो वर्ष पहले केंद्रीय पशुपालन मंत्रालय ने इनकी गणना का आंकड़ा पेश किया था। इसमें बेसहारा पशुओं की संख्या 50 लाख बताई गई थी, जो निरंतर बढ़ रही है। हालांकि सरकार राष्ट्रीय गोकुल मिशन के माध्यम से इन्हें गौशालाओं और अन्य आश्रय स्थलों पर भेजने में जुटी है, परंतु इस समस्या का पर्याप्त निदान नहीं हो सका है।

भारत दुनिया में दुग्ध उत्पादन के मामले में आज शीर्ष पर है। देश में दुग्ध उत्पादन 15 करोड़ लीटर प्रतिदिन है। हैरत की बात है कि औसत खपत 65 करोड़ लीटर प्रतिदिन है। उत्पादन और खपत के बीच 50 करोड़ लीटर का अंतर मामूली नहीं है। मिल्क पाउडर से बने दूध के बावजूद बड़ी मात्रा में आपूर्ति मिलावटी दूध से ही होती है। वस्तुत: यूरिया, डिटर्जेंट, अमोनियम सल्फेट, कास्टिक सोडा जैसे रसायनों से बना दूध जहर के समान है। इस बीच बेसहारा गायों की समस्या के साथ ही यह भी मुंह बाए खड़ी है। दोनों ही समस्याएं आपस में जुड़ी हुई है। दूध को अमृत के समान माना जाता है। यह गुण कायम रखने से दोनों समस्याओं का समाधान होता है।
आंकड़ों में 12.7 लाख बेसहारा गायों के साथ राजस्थान शीर्ष पर है। उत्तर प्रदेश में यह संख्या 10.18 लाख, मध्य प्रदेश में 8.53 लाख, गुजरात में 3.43 लाख और छत्तीसगढ़ में 1.84 लाख है। साथ ही महाराष्ट्र, पंजाब, ओडिशा व बंगाल जैसे राज्यों में भी यह समस्या है। इसकी जड़ श्वेत क्रांति के युग में मिलती है। इसने पशुओं का रंग, रूप, नस्ल सब बदल दिया। जेनेटिक बदलाव की वजह से इस गंभीर समस्या का गहरा नाता है।
देसी नस्ल के पशुओं से प्राप्त होने वाले दूध की गुणवत्ता स्वास्थ्य के लिए बेहतर है। भारत की आम जनता इस बात को समझती रही है। इसी वजह से तमाम कोशिशों के बाद भी देसी गाय की नस्ल खत्म नहीं हो सकी है। इस दौर में गौसेवा का अभियान नए रूप में विकसित हुआ। आज जनसहयोग से चलने वाली श्रीकृष्णायण जैसी गौशाला इसी का उदाहरण है। गौरक्षा आंदोलन से निकला यह प्रकल्प देसी नस्ल की गायों की सेवा पर ही केंद्रित है। उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश की इसकी शाखाओं में हजारों गौवंश की सेवा हो रही है। ऐसे प्रयासों को बढ़ावा देने के साथ खेती करने वाले किसानों को भी इन्हें पालने के लिए प्रोत्साहित करने की जरूरत है। कृषि की आधुनिक तकनीकी के बदले हल जोतने के लिए बैल का प्रयोग भी चर्चा में है।
उत्तर प्रदेश में चुनाव प्रचार के दौरान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इस समस्या का समाधान करने का वादा किया था। स्वच्छता मिशन के तहत 2018 में गोबर धन योजना का प्रारूप भी इसमें शामिल है। जल शक्ति मंत्रालय और वैकल्पिक ऊर्जा मंत्रालय का संयुक्त प्रयास ग्रामीण क्षेत्रों में निकट भविष्य में मूर्त रूप ले सकता है। हालांकि बेसहारा गायों की समस्या गावों तक सीमित नहीं है। दिल्ली की सरकार ने गायों की शिनाख्त करने की तकनीक पर काम शुरू किया है, ताकि छुट्टा घूमते पाए जाने पर 25 हजार रुपये का जुर्माना लगाने की योजना को लागू किया जा सके। हालांकि गायों की सुरक्षा की यह नीति उनके हिस्से की प्रकृति को हड़पने का ही काम है। गोधन की महत्ता भारत की जलवायु के अनुकूल है। जीवनशैली में परिवर्तन के कारण यह समझ सामान्य जन की चेतना से परे है। तकनीक के बूते इन समस्याओं को दूर करने के बदले गोवंश की उपयोगिता बहाल करना चाहिए।
उत्तर प्रदेश में बेसहारा गायों की संख्या से गौहत्या पर लगे प्रतिबंध की पुष्टि होती है। इसके साथ ही गांवों में मौजूद रही गोचर भूमि के हरण की दशा भी उजागर हुई है। अपने देश के लोगों को इस बात का ज्ञान रहा कि गाय का दूध भी अमृत नहीं होता, जब तक गोचर नहीं घूमे। मानव जाति ने पशु पक्षी से उनके हिस्से की जमीन छीन ली है। दूध बढ़ाने के नाम पर उनकी नस्ल बदल दी। हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि गोवंश की संख्या वर्ष 1947 में हमारे देश में लगभग 121 करोड़ थी और आज यह केवल 10 करोड़ रह गई है। दूध की गुणवत्ता के मुद्दे पर भारतीय नस्ल के गायों की तुलना में विदेशी नस्ल टिकती नहीं हंै। जर्सी और मिश्रित नस्ल के पशुओं को पालना स्थानीय जलवायु के अनुकूल नहीं है। इनके बावजूद आज देसी गाय की संख्या आधी भी नहीं बची है।
राष्ट्रीय गोकुल मिशन व कामधेनु आयोग के माध्यम से भी गोसेवा का लक्ष्य साधने में सरकार लगी है। यह गिर, सिंधी और साहीवाल जैसी देसी गायों के संवर्धन की हजारों करोड़ की परियोजना है। मिश्रित नस्ल की गायों को गोवंश में शामिल रखने के लिए नस्ल सुधार की जरूरत है। आज गौकशी कानून से जुड़ी दूसरी बातों पर भी विमर्श जारी है। गोसेवा में लगे समूहों को इससे सहयोग मिलेगा। इस कड़ी में गोचर भूमि का संरक्षण भी आवश्यक है। अपने देश में एक पुरानी कहावत है कि गौ और ब्राह्मण घूमते हैं तो जीते हैं। इस सूत्र को साधकर ही श्वेत क्रांति का नया युग सफल होगा।


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