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अब लगभग 17 महीने हो गए हैं और देश के अधिकांश हिस्सों में स्कूल बंद हैं
यामिनी अय्यर, प्रेसिडेंट, सीपीआर। अब लगभग 17 महीने हो गए हैं और देश के अधिकांश हिस्सों में स्कूल बंद हैं। लंबे समय तक स्कूलों के बंद रहने से बच्चों को हो रहे मनोवैज्ञानिक, विकास संबंधी और शैक्षणिक नुकसान को अब हर घर महसूस कर रहा है। शोध-अनुसंधान तो इसके दीर्घकालिक असर पड़ने की मुनादी कर रहे हैं। फिर भी, स्कूलों को खोलने की नीतिगत कोशिश की कमी दिख रही है। बच्चों के भविष्य को देखते हुए विमर्श का मसला 'किस तरह स्कूलों को खोला जाए' होना चाहिए, न कि 'कब'। जब (कोरोना की दूसरी घातक लहर के बाद) हमारे नीति-निर्धारकों और कारोबारियों ने मॉल, जिम व फैक्टरियों को खोलने के तरीके खोज निकाले हैं, तब यह अक्षम्य है कि स्कूलों और बच्चों की अनदेखी की जाए।
स्कूलों को खोलना कोई मामूली बात नहीं है। छात्रों, अभिभावकों और शिक्षकों की सुरक्षा को प्राथमिकता दी जानी चाहिए और उनमें यह भरोसा पैदा किया जाना चाहिए कि सुरक्षा प्रोटोकॉल का पालन किया जाएगा। ऐसा करने के लिए, स्कूल प्रबंधन व अभिभावकों को आपस में संवाद करना होगा। महामारी को लेकर अनिश्चितताएं कम नहीं हो रहीं, इसलिए स्कूलों को त्वरित और समय के अनुकूल खुद फैसले लेने के योग्य बनाना होगा। इसके लिए अभिनव नीतियों की दरकार होगी, जो स्थानीय स्तर पर फैसले लेने, जमीनी हकीकत को समझने और शिक्षा व्यवस्था को आकार देने वाली मौजूदा केंद्रीकृत सोच (हर जगह के लिए समान नीतियां) को बदल सकने में सक्षम हो। फिलहाल कम से कम तीन नीतिगत कदम उठाए जाने की जरूरत तो है।
पहला, हमें अभिभावक-शिक्षकों के जुड़ाव का लाभ उठाना होगा और स्कूल खोलने की प्रक्रिया से माता-पिता को शामिल करना होगा। शिक्षा के अधिकार के तहत अभिभावकों के नेतृत्व वाली स्कूल कमेटियों के गठन के बावजूद स्कूली व्यवस्था में अभिभावकों को शामिल करने और स्कूलों को उनके प्रति जवाबदेह बनाने में भारतीय शिक्षा नीति सफल नहीं हो सकी है। हालांकि, लंबे समय तक स्कूलों के बंद रहने और दूरस्थ शिक्षा पर जोर देने का एक अप्रत्याशित सुखद पहलू यह है कि स्कूल, शिक्षक और अभिभावक पहली बार बच्चों की पढ़ाई-लिखाई को लेकर लगातार संपर्क में हैं। 2020 की शिक्षा की वार्षिक स्थिति रिपोर्ट (एएसईआर) सर्वे में भी पाया गया कि लगभग एक-तिहाई नामांकित छात्रों ने सर्वेक्षण के पूर्व सप्ताह में वाट्सएप या शिक्षकों के सीधे संपर्क द्वारा कुछ शिक्षण सामग्रियां प्राप्त की थीं। पंजाब और दिल्ली जैसे कुछ राज्यों ने तो अभिभावक-शिक्षकों की मीटिंग शुरू कर दी है। हिमाचल प्रदेश ने 'डोर-टु-डोर' अभियान शुरू किया है, ताकि शिक्षक छात्रों के घर जाने को उत्सुक हों। अभिभावक-शिक्षक रिश्ते को संस्थागत रूप देने और स्कूल खोलने की प्रक्रिया पर संवाद के लिए ऐसे प्रयास उल्लेखनीय हैं।
मगर ऐसा करने के लिए, केंद्र और राज्य सरकारों को इनोवेशन, यानी नवाचार को प्रोत्साहित करना होगा और स्थानीय प्रशासन के फैसले के मुताबिक स्कूल प्रबंधन को निर्णय लेने की आजादी देनी होगी। चूंकि दूसरी लहर अब कम हो गई है, इसलिए महीने भर का ऐसा राष्ट्रव्यापी अभियान चलाया जा सकता है, जिसमें माता-पिता हफ्ते में एक बार स्कूल में शिक्षकों से मिलें। इससे माता-पिता व शिक्षक स्कूल आएंगे और उनमें आत्मविश्वास पैदा होगा। यह उन बच्चों के अभिभावकों में भी उम्मीद पैदा करेगा, जिनके पास ऑनलाइन सुविधाएं नहीं हैं। सबसे महत्वपूर्ण यह कि स्कूल इसका उपयोग छात्रों की शैक्षणिक जरूरतों का आकलन करने और स्कूलों को फिर से खुलने पर एक नया शैक्षणिक माहौल बनाने के अवसर के रूप में कर सकते हैं। एक बार जब आपसी भेंट व्यवस्थित हो जाएगी, स्कूल प्रबंधन कोविड-19 प्रोटोकॉल तैयार कर सकेगा, जो यथार्थवादी होगी और स्कूलों के अपने संसाधन, अपनी क्षमता और स्थानीय वास्तविकताओं से मेल खाती होगी।
दूसरा कदम, नीति-निर्धारकों को यह भी सुनिश्चित करना होगा कि जमीनी हकीकत देखकर स्कूलों को खोलने (और बंद करने) का फैसला लिया जाए। इसीलिए यह निर्णय केंद्र के स्तर पर नहीं, बल्कि यथासंभव स्थानीय स्तर पर लिया जाए। कोविड-19 संक्रमण अभी आगे भी रहेगा। इसीलिए स्कूलों को तीन संभावित परिदृश्यों के लिए तैयार रहना होगा- सख्त लॉकडाउन, आंशिक गतिविधि (जिसमें शिक्षक स्कूल जा सकें, पर छात्र-छात्राओं के आने की मनाही हो) और सभी प्रतिबंधों में ढील व स्कूलों का फिर से खुलना। इन संभावनाओं के आलोक में स्कूल खुद को कैसे सुचारू बना पाएंगे, यह स्थानीय स्तर पर तय होना चाहिए। आखिर, भिन्न-भिन्न इलाकों में अलग-अलग समय पर मामले बढ़ते हैं। उचित प्रोटोकॉल तैयार करने, जिलों में समन्वय बनाने और संजीदा व अनवरत संचार के माध्यम से जनता का भरोसा तैयार करने में सरकारों (केंद्र और राज्य, दोनों) की अहम भूमिका है। मगर जब तक फैसले लेने की प्रक्रिया को विकेंद्रीकृत नहीं किया जाएगा, तब तक यह संभव नहीं हो सकेगा। तीसरा कदम, वास्तविक विकेंद्रीकरण के लिए स्कूल स्तर पर अधिक वित्तीय संसाधनों की जरूरत होगी। यह अधिक पैसों का मामला नहीं है, बल्कि यह तय करना है कि स्कूल अपनी जरूरत व प्राथमिकताओं के मुताबिक खुद खर्च कर सकें। अभी स्कूलों को बहुत ज्यादा खर्च करने की आजादी नहीं है। उनको सालाना अनुदान ही मिलता है। मगर यह राशि प्राथमिक विद्यालयों के बजट का महज तीन से चार प्रतिशत और माध्यमिक विद्यालयों का करीब एक फीसदी होती है, और इसका उपयोग केवल नियमित रख-रखाव के लिए किया जा सकता है। साफ है, फैसले लेने के मामले में स्कूलों को सशक्त बनाने के लिए उन्हें अधिक खर्च करने की आजादी देनी होगी। स्कूली कामकाज से स्थानीय प्रशासन को जोड़ने का अनूठा अवसर है। 15वें वित्त आयोग के अनुदान के मुताबिक, स्थानीय प्रशासन को स्वास्थ्य संबंधी अनुदान देना अनिवार्य है। स्कूलों में कोविड-19 प्रोटोकॉल लागू करने के लिए इस फंड का उपयोग हो, यह फैसला लेने के लिए स्थानीय प्रशासन को सक्षम बनाया जाना चाहिए। यदि सरकारी स्कूल आगे बढ़ते हैं, तो निजी स्कूलों के भी सुरक्षित रूप से खुलने का रास्ता बन जाएगा। भारत अब और अधिक समय तक स्कूलों को बंद रखने की कीमत नहीं चुका सकता। स्थानीय नवाचार और माता-पिता की सहभागिता से रास्ता तैयार हो सकता है। यह वक्त इस दिशा में आगे बढ़ने का है।
( सह-लेखिका रुक्मिणी बनर्जी)
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