सम्पादकीय

फर्जी खबरों पर कसे शिकंजा

Rani Sahu
3 Sep 2021 6:06 PM GMT
फर्जी खबरों पर कसे शिकंजा
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यू-ट्यूब, वेबसाइट समेत सोशल मीडिया पर प्रकाशित-प्रसारित होने वाली फर्जी खबरों और रिपोर्ट को लेकर सुप्रीम कोर्ट की चिंता बेजा नहीं है

पवन दुग्गल। यू-ट्यूब, वेबसाइट समेत सोशल मीडिया पर प्रकाशित-प्रसारित होने वाली फर्जी खबरों और रिपोर्ट को लेकर सुप्रीम कोर्ट की चिंता बेजा नहीं है। वाकई, ऑनलाइन माध्यमों से अब सत्य से अधिक असत्य सूचनाएं प्रसारित की जाती हैं। इसका एक बड़ा कारण यह है कि तमाम डिजिटल मंच समझ चुके हैं कि सच की तुलना में वे फर्जी खबरों के प्रकाशन-प्रसारण से अधिक पैसा कमा सकते हैं। इसीलिए, वे अपने हितों को साधने का प्रयास करते हैं और ऊल-जुलूल खबरों को सच का चोला पहनाकर परोसने की कोशिश में लगे रहते हैं। शीर्ष अदालत का यह कहना वाजिब है कि फेक न्यूज के माध्यम से सोशल मीडिया पर 'नैरेटिव' गढ़ी जाती है। देखा जाए, तो यह एक वैश्विक चुनौती है। इंटरनेट ने भूगोल को इतिहास बना दिया है और तमाम उपभोगकर्ताओं को छद्म वेश में अपनी गतिविधियां करने की छूट दे दी है। चूंकि लोगों को लगता है कि उनकी पहचान इंटरनेट पर जाहिर नहीं हो सकती, इसलिए वे आभासी दुनिया में ऐसी तमाम हरकतें करते रहते हैं, जो असल जीवन में कतई नहीं कर सकते।

फेक न्यूज आज इसलिए भी चलन में हैं, क्योंकि किसी राष्ट्र के कानून उसकी भौगोलिक सीमाओं तक ही लागू होते हैं। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर न कोई मापदंड है, और न कोई नीति। ऐसा कोई समझौता भी नहीं हो सका है, जिसमें तमाम देश अपने-अपने यहां फर्जी खबरों का प्रकाशन-प्रसारण रोकने का सामूहिक प्रयास कर सकें। लिहाजा, स्थानीय स्तर पर इन पर लगाम लगाने की कोशिश की जाती है। मलयेशिया, सिंगापुर, फ्रांस जैसे देशों ने तो अपने-अपने यहां फर्जी खबरों से निपटने के लिए खास कानून बनाए भी हैं। मगर अंतरराष्ट्रीय कानून के न होने से स्थिति संभल नहीं रही। अगर अब भी ठोस प्रयास नहीं किए गए, तो कुछ समय के बाद इंटरनेट पर यह तय करना बहुत मुश्किल हो जाएगा कि कौन-सी खबर सच्ची है और कौन-सी फर्जी।
रही बात भारत की, तो फर्जी खबरों को रोकने के लिए किसी 'डेडिकेटेड' यानी खास कानून का यहां भी अभाव है। इस मसले पर सूचना प्रौद्योगिकी कानून (आईटी ऐक्ट) भी मौन है। हालांकि, 2008 में जब आईटी ऐक्ट में संशोधन किए गए थे, तब उसमें धारा 66-ए जोड़ी गई थी। इसमें कुछ हद तक फर्जी खबरों से निपटने की व्यवस्था थी। इसमें कहा गया था कि यदि कोई अपने कंप्यूटर अथवा मोबाइल से आपत्तिजनक सामग्री प्रकाशित-प्रसारित करता है, तो उसे तीन साल तक की सजा या पांच लाख तक जुर्माना या फिर दोनों, भुगतना पड़ सकता है। मगर इस प्रावधान की वैधता को शीर्ष अदालत में चुनौती दी गई और मार्च, 2015 में अदालत ने इसे रद्द कर दिया। जब से धारा 66-ए असांविधानिक घोषित की गई है, फर्जी खबरें परोसने वालों की पौ बारह है। राजनेता, राजनीतिक दल, धार्मिक संस्था, बिजनेस समुदाय, कॉरपोरेट आदि सभी इसमें जुटे हैं।
हालांकि, केंद्र सरकार ने इसे रोकने के कुछ प्रयास किए हैं। 25 फरवरी, 2021 को आईटी रूल्स 2021 प्रकाशित किए गए और उनको अमल में भी लाया गया। इसका एक प्रावधान कहता है कि सर्विस प्रोवाइडर (सेवा देने वाला) की यह जिम्मेदारी है कि वह अपने मंच पर बेबुनियाद या झूठी सामग्रियों के प्रकाशन-प्रसारण पर रोक लगाए। सर्विस प्रोवाइडर के शिकायत प्रकोष्ठ को इस बाबत लिखित शिकायत की जा सकती है, जिस पर 15 दिनों में कार्रवाई करने की अनिवार्यता है। मगर मुश्किल यह है कि ऐसे प्रावधान आम लोगों की जानकारी में नहीं हैं। लोग भी इतने जागरूक नहीं हैं कि वे यह समझ सकें, फर्जी खबर किस तरह उनकी सोच बदल सकती है। यहां यह जानना भी जरूरी है कि बिना सत्यता जांचे यदि कोई व्यक्ति किसी खबर को (जो झूठी खबर हो) प्रकाशित-प्रसारित करता है, तो उस पर भी कानूनी कार्रवाई हो सकती है। आईटी ऐक्ट की धारा 67 के तहत यह एक दंडनीय अपराध है और आरोप साबित होने पर तीन साल तक की सजा या पांच लाख रुपये तक का जुर्माना, अथवा दोनों सुनाई जा सकती है।
जाहिर है, हमें लोगों को जागरूक करना होगा और यह बताना होगा कि फर्जी खबरें उनकी जड़ों को खोखला कर रही हैं। वेबसाइट्स, सोशल मीडिया और यू-ट्यूब भी इससे संभल सकेंगे। एक अन्य उपाय, इनके खिलाफ कानूनी प्रावधान की व्यवस्था करना भी है। जीवन जीने के अधिकार, यानी अनुच्छेद 21 के तहत यह किया जा सकता है। यह इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि यदि ऐसा नहीं हुआ, तो सीमा-पार बैठे भारत-विरोधी तत्व फर्जी व झूठी खबरों के प्रकाशन-प्रसारण से हमारी प्रभुता, सुरक्षा और अखंडता को चोट पहुंचा सकते हैं। हालांकि, एक विरोधाभास भी है। दरअसल, कोई राजनीतिक दल इस दिशा में आगे नहीं बढ़ना चाहता, क्योंकि उनके आईटी सेल भी ऐसे ही कामों में शामिल रहते हैं।
बहरहाल, फर्जी खबरों की तरह सनीसनीखेज शीर्षकों से प्रकाशित-प्रसारित खबरें भी हमारा खूब नुकसान करती हैं। इस तरह की खबरों में शीर्षक गलत व झूठे होते हैं या फिर उनका मूल खबरों से कोई वास्ता नहीं होता। ऐसे मामलों में, भारतीय दंड संहिता की धारा 468 के तहत उस सोशल मीडिया मंच के खिलाफ मुकदमा दर्ज कराया जा सकता है। कानून की नजर में यह एक तरह की इलेक्ट्रॉनिक धोखाधड़ी है, जिसमें कैद और जुर्माने, दोनों का प्रावधान है। मगर अधिकांश लोग ऐसे प्रावधानों से वाकिफ नहीं हैं, इसलिए अगर कुछ ठोस कार्रवाई हो और वह आम लोगों की निगाहों में आए, तब कोई बात बने। इससे फर्जी व झूठी खबरों को परोसने वाली संस्थाओं को भी कड़ा संदेश मिलेगा। इसका यह भी मतलब है कि भारतीय दंड संहिता और आईटी ऐक्ट के प्रावधानों की मदद से स्थिति थोड़ी सुधारी जा सकती है, लेकिन फर्जी खबरों को रोकने के लिए समर्पित और खास कानून न होने की वजह से आमतौर पर अदालत में दोष साबित करना काफी चुनौतीपूर्ण हो जाता है। हम चाहें, तो कानून-निर्माण में मलयेशिया, सिंगापुर, फ्रांस जैसे देशों के अनुभव शामिल कर सकते हैं, जहां इस तरह के कानून काम कर रहे हैं। मगर सवाल यह है कि क्या नेता ऐसा करेंगे?


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