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सबसे बड़ा सवाल यही किया जा रहा है कि एक संवैधानिक पद पर बैठा व्यक्ति क्या धर्म के आधार पर फैसला लेने के लिए सरकार को पत्र लिख सकता है? इस पर एक ओर जहां एनसीपी प्रमुख शरद पवार ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एक पत्र लिखकर महाराष्ट्र के राज्यपाल द्वारा मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे को लिखे पत्र में इस्तेमाल की गई भाषा पर हैरानी जताई है, वहीं महाराष्ट्र सरकार में प्रमुख राजनीतिक दल शिवसेना के नेता संजय राउत ने राज्यपाल की संविधान के प्रति निष्ठा पर ही सवाल खड़े कर दिए।
राज्यपाल के बयान टकराव के कारण बने : हालांकि देश में यह पहली दफा नहीं है, जब राज्यपाल का किसी मुख्यमंत्री के साथ मतभेद या टकराव हुआ है। देश के तकरीबन हर बड़े राज्य के राज्यपालों के साथ राज्य सरकार का टकराव होता रहा है। कभी राज्यपाल के बयान, तो कभी फैसले राजनीतिक टकराव के कारण बने हैं। राज्यपाल के पद को संवैधानिक दर्जा हासिल है और उनके दायित्व और अधिकार क्षेत्र भी निर्धारित हैं। लेकिन अक्सर ऐसे मामले आते रहे हैं, जिनमें किसी राज्यपाल के बयान से बेवजह का विवाद पैदा हो गया और इस पद से जुड़े अधिकारों की सीमा पर सवाल उठे।
टकराव के प्रमुख कारण : अक्सर केंद्र में जिस पार्टी की सरकार होती है, उस पार्टी की विचारधारा से प्रभावित व्यक्ति को ही राज्यपाल बनाया जाता है। जब केंद्र और राज्य में एक ही पार्टी की सरकार होती है, तब तो मुख्यमंत्री और राज्यपाल के संबंध अच्छे रहते हैं। दोनों के बीच कोई खास दिक्कत नहीं होती, लेकिन जब राज्य में विपक्षी दल की सरकार होती है, तो मुख्यमंत्री और राज्यपाल के मध्य कुछ फैसलों को लेकर टकराव पैदा हो जाता है। टकराव की मुख्य वजह होती है राजनीति से प्रेरित होकर फैसले लेना।
चूंकि राज्यपाल केंद्र का प्रतिनिधित्व करता है, अत: वह केंद्र के प्रति जवाबदेह होता है और केंद्र द्वारा जारी नीतियों को लागू करवाना उसका कर्तव्य होता है और मुख्यमंत्री केंद्र के साथ जनता व अपनी पार्टी से भी बंधा होता है। यहीं समन्वय बैठाने की जरूरत होती है। इसमें दो राय नहीं कि राज्यपाल के रूप में राज्य की हर गतिविधियों के बारे में केंद्र को अवगत कराते रहना राज्यपाल की जिम्मेदारी है। यह स्वाभाविक है कि जिम्मेदारी निभाएंगे तो उनके फैसलों के बारे में विवाद भी उठेगा। उचित अनुचित का सवाल भी होगा। पर बार-बार विवाद होना लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं है।
न्यायपूर्ण और संवैधानिक निर्णय : राज्यपाल और मुख्यमंत्री दोनों ही मजबूत लोकतंत्र के उत्तरदायी आधार स्तंभ हैं। इन दोनों पदों पर बैठे व्यक्तियों का दायित्व है कि वह दलगत राजनीति के दलदल से बाहर निकलकर ही कार्य करे। दलगत राजनीति वाली सोच ऐसे टकराव को जन्म देती है और भविष्य में भी देती रहेगी। यह किसी भी दृष्टि से लोकतंत्र के लिए ठीक बात नहीं है। ऐसे दलगत विचारों की बजाय न्यायपूर्ण और संवैधानिक निर्णय के आधार पर चलकर ही इन पदों की गरिमा बचाई जा सकती है। राज्यपाल के अधिकार को लेकर संविधान में कई बातें स्पष्ट नहीं हैं। और परंपरा में कोई सर्वमान्य मॉडल नहीं बन सका है। ऐसे में उसके सामने यह स्पष्ट नहीं रहता कि वह अपने विवेक के दायरे को कहां तक रखे। राजनीतिक दलों के सामने भी यह साफ नहीं है। तो क्या राज्यपाल को एक फेसलेस सिस्टम की तरह काम करना चाहिए या उससे आगे बढ़कर कुछ होना चाहिए? यह बहस अभी चलेगी और चलनी भी चाहिए।
विवाद की जड़ में गवर्नर की नियुक्ति का तरीका, उसकी योग्यता, पदावधि, उसकी विवेकाधीन शक्ति और उसके कार्य करने के तरीके हैं। गौर करने वाली बात यह है कि गवर्नर का चुनाव न तो सीधे आम लोगों द्वारा किया जाता है और न ही कोई विशेष रूप से गठित निर्वाचक मंडल द्वारा। गवर्नर की नियुक्ति प्रत्यक्ष रूप से राष्ट्रपति द्वारा की जाती है जिस कारण उसे केंद्र का प्रतिनिधि भी कहा जाता है।
राज्यपाल के पद पर विवाद : वैसे समग्रता में देखा जाए तो राज्यपाल का कार्यालय पिछले पांच दशकों से सबसे विवादास्पद रहा है। यह विवाद सर्वप्रथम 1959 में केंद्र और राज्य सरकार के मध्य राजनीतिक मतभेद की वजह से केरल के तत्कालीन गवर्नर द्वारा राज्य सरकार की बर्खास्तगी से शुरू हुआ था। इस विवाद ने 1967 में उत्तर-भारत के राज्यों में कई गैर-कांग्रेसी सरकारों के उभरने के बाद सबसे खराब रूप धारण कर लिया। पिछली सदी के आठवें दशक में दलबदल और मौकापरस्त राजनीति का एक नया दौर शुरू हुआ। ऐसे दौर में राज्यपाल की भूमिका न केवल महत्वपूर्ण हुई, बल्कि जटिल भी हुई। इस बदले दौर में राज्यपालों को अपने कर्तव्य के निर्वहन में दबाव और तनाव महसूस होने लगा। अचानक राज्यपाल का दफ्तर महत्वपूर्ण और विवादित हो चला। पहली बार इस संवैधानिक संस्था की भूमिका पर सवाल भी खड़े हुए। फलस्वरूप इसकी भूमिका के लिए संवैधानिक ढांचे के पुनर्गठन के लिए राजनीतिक बहस तेज हो गई।
जाने-माने समाजवादी नेता मधु लिमये ने उस दौर में कहा था कि राज्यपाल का पद खत्म कर देना चाहिए। उनका कहना था कि राज्यपाल एक प्रकार से सफेद हाथी है जिस पर बहुत सरकारी पैसा बेवजह खर्च होता है। हालांकि बाद में सरकारिया आयोग ने राज्यपाल पद के महत्व को देखते हुए इस पद को बरकरार रखने का सुझाव दिया था। ऐसा नहीं है कि राज्यपाल केंद्र के हाथों की कठपुतली बन कर रह गए हैं, सही मायने में वे अब भी केंद्र और राज्यों के बीच सेतु का काम करते हैं। ऐसे में कह सकते हैं कि राज्यपाल का कार्यालय राज्य के मामलों में अधिक महत्वपूर्ण कार्यालय है, इसलिए इसे समाप्त करने की बजाय इसमें सुधार लाने की आवश्यकता है।
राज्यपाल की भूमिका : भारत जैसे संघीय लोकतंत्र में शक्ति के विभाजन के साथ निगरानी और संतुलन बनाए रखने की जरूरत होती है, इसलिए राज्यपाल की भूमिका बहुत ही महत्वपूर्ण है। हमारे देश में राज्यपाल का पद संवैधानिक व्यवस्था के तहत है। देश के संविधान में इस पद के अधिकारों और दायित्वों को लेकर स्पष्ट व्याख्या भी की गई है। जिस प्रकार संघ में राष्ट्र का संवैधानिक प्रमुख राष्ट्रपति होता है, उसी प्रकार राज्यों में राज्य का प्रमुख राज्यपाल होता है।
उल्लेखनीय है कि राज्यपाल राज्य का औपचारिक प्रमुख होता है और राज्य की सभी कार्यवाहियां उसी के नाम पर की जाती हैं। वह भारतीय राजनीति की संघीय प्रणाली का भाग है तथा केंद्र एवं राज्य सरकारों के बीच एक सेतु का काम करता है। पहले राज्यपालों के मामले में माना जाता था कि यह एक शोभा का पद है और इस पद पर नियुक्ति राजनीतिक आधार पर होती है तथा संघीय व्यवस्था में राज्यपाल केंद्र के प्रतिनिधि होते हैं। लेकिन बदली हुई परिस्थितियों में गठबंधन सरकारों के इस दौर में राज्यपालों की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण हो गई है।
हमेशा विवादों में रही हैं विवेकाधीन शक्तियां : मंत्रियों की नियुक्ति, विधेयकों को स्वीकृति देने और राज्य सरकार के कई अन्य आदेश को राज्यपाल के नाम पर ही लिया जाता है। उल्लेखनीय है कि संविधान का अनुच्छेद 163 राज्यपाल को विवेकाधिकार की शक्ति प्रदान करता है अर्थात वह स्वविवेक संबंधी कार्यो में मंत्रिपरिषद की सलाह मानने हेतु बाध्य नहीं है। यदि किसी दल को पूर्ण बहुमत नहीं मिलता है, तो राज्यपाल मुख्यमंत्री के चयन में अपने विवेक का उपयोग कर सकता है।
किसी दल को बहुमत सिद्ध करने के लिए कितना समय दिया जाना चाहिए, यह भी राज्यपाल के विवेक पर निर्भर करता है। विवाद राज्यपाल की विवेकाधीन शक्ति और उसकी कार्यप्रणाली को लेकर भी है। अक्सर आरोप लगाया जाता है कि वह राज्य के संवैधानिक प्रमुख के रूप में कार्य करने के बजाय केंद्र सरकार के एजेंट के रूप में ही ज्यादा कार्य करता है। भारत जैसे विशाल और व्यापक विविधता वाले लोकतंत्र के सुचारु संचालन में भी इसकी महत्वपूर्ण भूमिका से इन्कार नहीं किया जा सकता। चूंकि हमारा देश राज्यों में विभाजित है, इसलिए कई जानकार देश के राष्ट्रीय हित, अखंडता और आंतरिक सुरक्षा के लिए केंद्रीय पर्यवेक्षण की वकालत करते हैं, जिसके लिए राज्यपाल की नितांत आवश्यकता होती है।
गैर-राजनीतिक व्यक्ति, पूर्व नौकरशाह या विषय विशेषज्ञ की हो इस पद पर नियुक्ति : सरकारिया आयोग ने अपनी सिफारिशों में यह स्पष्ट किया है कि गवर्नर का पद एक स्वतंत्र संवैधानिक पद है। गवर्नर न तो केंद्र सरकार के अधीनस्थ है और न उसका ऑफिस केंद्र सरकार का ऑफिस है। अत: गवर्नर के लिए निष्पक्ष होना ही काफी नहीं है, उसे ऐसा दिखना भी चाहिए। संविधान सभा में जब गवर्नर पद को लेकर लंबी बहस हुई थी, तो तय हुआ था कि उसे इंस्ट्रूमेंट ऑफ इंस्ट्रक्शन दिया जाएगा, जिसके अनुरूप ही वे कार्य करेंगे, लेकिन बाद में इसे हटा दिया गया। इसीलिए अभी राज्यपाल को विवेक के आधार पर काम करना होता है। ऐसी स्थिति में यह आवश्यक है कि राज्यपाल पद की गरिमा को बहाल करने के लिए सरकारिया आयोग के सुझावों को लागू किया जाए।
मुख्यमंत्री और राज्यपाल के मध्य पैदा हुए टकराव को रोकने का सबसे बेहतर तरीका यही है कि राज्यों में राज्यपाल के पद पर किसी ऐसे व्यक्ति को ही नियुक्त किया जाए, जो किसी भी राजनीतिक दल से जुड़ा हुआ न हो और न ही किसी राजनीतिक विचारधारा से प्रभावित हो। राज्यपाल का पद ऐसे लोगों को सौंपा जाना चाहिए जो या तो वरिष्ठ न्यायाधीश रहे हों अथवा वरिष्ठ नौकरशाह। लेकिन इनकी नियुक्ति में भी शर्त यही होनी चाहिए कि उनकी छवि बेदाग और गैर-विवादित रही हो।
यह भी हो सकता है कि राज्यपाल और मुख्य सतर्कता आयुक्त जैसे पदों के चयन के लिए एक निष्पक्ष कमेटी बनाई जाए। इसमें समाज के विभिन्न वर्गो के जिम्मेदार लोगों को शामिल किया जाए। साथ ही, इनकी नियुक्ति संबंधित राज्य के मुख्यमंत्री के सलाह से हो और इसके लिए संविधान के अनुच्छेद 155 में संशोधन किया जाए। इसके अलावा राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों पर राज्यपाल की मंजूरी की समयावधि भी निश्चित होनी चाहिए।