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- संविधान के मुताबिक...

अगले महीने की 18 तारीख को होने वाले चुनाव में देश अपने 15 वें राष्ट्रपति को चुनेगा। सत्तारूढ़ भाजपा की उम्मीदवार द्रौपदी मुर्मू और विपक्षी दलों के संयुक्त उम्मीदवार यशवंत सिन्हा में से कोई हमारा राष्ट्रपति बनेगा, लेकिन क्या संविधान के मुताबिक उनमें राष्ट्र-प्रमुख होने की काबिलियत होगी? इतिहास के मौजूदा पड़ाव पर हमें कैसा राष्ट्रपति चुनना चाहिए, इस आलेख में इसी विषय पर प्रकाश डालने की कोशिश करेंगे। अब यह खुला रहस्य और भी खुल गया है कि विपक्ष के पास कोई पक्ष ही नहीं है! ममता बनर्जी ने राष्ट्रीय राजनीति की सारी पहल अपने हाथ में समेटने की जो चतुराई दिल्ली आकर दिखलाई थी, वह कोई रंग पकड़ती इससे पहले ही मामला सिरे से बदरंग हो गया। उनके तीनों विकेट धड़ाधड़ गिर गए। सबसे पहले गिरे शरद पवार, फिर फारूक अब्दुल्ला और फिर गोपालकृष्ण गांधी। ये तीनों विकेट इसलिए नहीं गिरे कि सामने से कोई सधी गेंदबाजी कर रहा था। ये तीनों ही राष्ट्रपति बनने को तैयार थे, बशर्ते उनकी जीत की गारंटी हो! शरद पवार व फारूक अब्दुल्ला सत्ता की राजनीति के माहिर खिलाड़ी हैं, लेकिन गोपालकृष्ण गांधी अलग धारा के आदमी हैं। वे कुशल प्रशासक ही नहीं, भारतीय चिंतन व संस्कृति के गहन अध्येता हैं। उन्होंने खुद ही कहा कि मेरे नाम पर सभी एकमत होते तो वे हार की फिक्र न कर, यह खेल खेल सकते थे। इतनी भद पिटने के बाद विपक्ष ने आम राय से यशवंत सिन्हा का नाम जाहिर किया। यह नाम भी तृणमूल कांग्रेस की तरफ से ही आया। तीन नामों के बदले यही एक नाम पहले से आया होता तो प्रक्रिया की शालीनता और विपक्ष की प्रतिष्ठा, दोनों ही बनी रहतीं, लेकिन जैसा मैंने शुरू में लिखा, विपक्ष का अपना कोई पक्ष है ही नहीं, तो शालीनता-प्रतिष्ठा की फिक्र किसे है! भाजपा ने अपनी पार्टी की समर्पित कार्यकर्ता द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति बनाना तय किया है। मुर्मू का चयन शालीनता व संयम से किया गया तथा उनके समर्थन में प्रधानमंत्री ने जो कुछ कहा, वह भी बताता है कि यह निर्णय कितने करीने से लिया गया। जब आपके पास भाजपा जैसा बहुमत हो और यह निश्चिंतता भी हो कि आप जिसे चाहेंगे उसे राष्ट्रपति बना लेंगे, तब संयम व शालीनता साधना आसान भी होता है, लेकिन ऐसा कहकर पार्टी की राजनीतिक पटुता को कम नहीं किया जा सकता। कहने वाले कहते हैं कि मुर्मू की जीत देश के आदिवासियों को सशक्त करेगी, स्त्री की हैसियत मजबूत करेगी। क्या ऐसा होता है? हमने अब तक सारे इंसानों को ही राष्ट्रपति बनाया है तो क्या देश में इंसानों की हैसियत मज़बूत हुई है? हमने मुसलमान, दलित, औरत को भी राष्ट्रपति बनाया है तो क्या इन सबकी हैसियत मजबूत हुई? यह आत्मछल है जो राजनीति को पचता है, राष्ट्र को नहीं। मुर्मू या यशवंत सिन्हा में से कोई भी जीत गए तो क्या संविधान जीतेगा? क्या देश को कोई ठीक राष्ट्रपति मिलेगा? यशवंत सिन्हा और द्रौपदी मुर्मू उस धारा के प्रतिनिधि हैं जो दलीय राजनीति व सत्ता की ताकत ही ओढ़ते-बिछाते हैं। यशवंत सिन्हा ने तो अपनी उम्मीदवारी से पहले अपनी पार्टी तृणमूल कांग्रेस से इस्तीफा भी दे दिया, ताकि संविधान की मंशा की थोड़ी लाज रह जाए, लेकिन भाजपा व मुर्मू ने उसकी जरूरत भी नहीं समझी।
सोर्स- Divyahimachal
