सम्पादकीय

कैसे मुस्लिम ध्रुवीकरण के केंद्र 'ओवैसी और पीरजादा' बने, बंगाल में ममता बनर्जी के लिए चुनौती?

Gulabi
8 Feb 2021 9:55 AM GMT
कैसे मुस्लिम ध्रुवीकरण के केंद्र ओवैसी और पीरजादा बने, बंगाल में ममता बनर्जी के लिए चुनौती?
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पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की परेशानियों का कोई अंत नहीं दिख रहा.

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की परेशानियों का कोई अंत नहीं दिख रहा.ममता के दस वर्षों के शासनकाल में उन पर आरोप लगता रहा कि वह मुस्लिम समुदाय को खुश करने में लगी रहीं. ममता बनर्जी के नेतृत्व वाली तृणमूल कांग्रेस को'तुष्टीकरण'की नीति का फायदा भी मिला. मुस्लिम समाज ने थोक के भाव में पूर्व में तृणमूल कांग्रेस को वोट दिया.


पर हालात इस बार कुछ बदला-बदला दिख रहा है. ज्यों ज्यों विधानसभा चुनाव नज़दीक आता जा रहा है, तृणमूल कांग्रेस की चिंताएं बढ़ती जा रही हैं. कयास लगाया जा रहा है कि पश्चिम बंगाल के मुस्लिम समुदाय का वोट इस बार बंट सकता है. जिसका सीधा फायदा भारतीय जनता पार्टी को मिलने की संभावना है.


पश्चिम बंगाल में मुस्लिम मतदाताओं का प्रतिशत कई अन्य राज्यों से कहीं ज्यादा है. करीब 30 प्रतिशत मतदाता मुस्लिम समुदाय से हैं. राज्य विधानसभा के 294 निर्वाचन क्षेत्रों में से 46 ऐसी सीटें हैं जहां मुस्लिम मतदाता बहुमत में हैं. उनकी तादाद 50 प्रतिशत या उससे अधिक है. लगभग 100 सीटें ऐसी हैं जिस पर मुस्लिम समुदाय का दबदबा रहता है और जीत-हार की कुंजी उनके पास रहती है.

2019 के लोकसभा चुनाव तक मुस्लिम समुदाय ममता बनर्जी और उनकी तृणमूल कांग्रेस के समर्थन में खड़ी थी. पश्चिम बंगाल में बीजेपी के उदय की शुरुआत हो चुकी थी. फिर भी तृणमूल कांग्रेस को बीजेपी से तीन प्रतिशत ज्यादा वोट मिला, जिसके कारण तृणमूल कांग्रेस बीजेपी के 18 सीटों के मुकाबले 22 सीटों पर जीत हासिल करने में सफल रही. एक अनुमान के अनुसार, लगभग 65 प्रतिशत मुस्लिम वोट तृणमूल कांग्रेस के खाते में गयी थी, जो तृणमूल कांग्रेस का 42 में से 22 सीटों पर जीत का सबसे बड़ा कारण रहा.

लोकसभा चुनाव के लगभग एक साल बाद अब प्रदेश में विधानसभा चुनाव होने वाला है. पर इस एक साल में प्रदेश की हालात बदल गयी हैं. पड़ोसी राज्य बिहार में पिछले साल हुए विधानसभा चुनाव में असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी AIMIM ने जिस तरह तथाकथित सेक्युलर दलों का खेल बिगाड़ा उससे मुस्लिम समुदाय की महत्वाकांक्षा बढ़ गयी है. AIMIM ने बिहार चुनाव में 24 सीटों पर चुनाव लड़ा और पांच सीटों पर जीत हासिल की. बाकी की सीटों पर उन दलों का, जो मुस्लिम वोट को अपने जागीर मानते थे, खेल बिगाड़ दिया.

AIMIM ने अब पहली बार पश्चिम बंगाल में चुनाव लड़ने का फैसला किया है. AIMIM की बिहार में सफलता से प्रभावित होकर बंगाल के प्रमुख मुस्लिम धार्मिक नेता पीरजादा अब्बास सिद्दीकी के नेतृत्व में इंडियन सेक्युलर फ्रंट (ISF)नामक पार्टी का गठन हो गया है, जो चुनावी मैदान में ताल ठोकने को तैयार है. पीरजादा ने 2011 और 2016 के विधानसभा चुनाव में तृणमूल कांग्रेस को समर्थन दिया था, जो ममता बनर्जी की पार्टी की जीत का एक बड़ा कारण साबित हुआ था.

इस बार पश्चिम बंगाल के चुनाव में मुस्लिम वोट बटने की सम्भावना है. बंगाल के 30 प्रतिशत मुस्लिम मतदाताओं में 90 पप्रतिशत ऐसे मतदाता हैं जिनकी मातृभाषा बंगला है, जबकि 10 प्रतिशत उर्दू भाषी हैं. ओवैसी ने पीरजादा की पार्टी के साथ गठबंधन की पेशकश की है ताकि भाषा के आधार पर मुस्लिम वोट ना बंटे.

पीरजादा पश्चिम बंगाल चुनाव में हॉट केक बन गये हैं और काफी मांग में है. तृणमूल कांग्रेस ISF से गठबंधन चाहती है और कांग्रेस पार्टी ने पीरजादा पर डोरे डालना शुरू कर दिया है. पीरजादा वह ऊंट बन गए हैं जो किस करवट बैठेगा अभी कोई नहीं जानता. पर एक बात जो सभी को पता है वह है कि जैसे ओवैसी ने बिहार में तथाकथित सेक्युलर दलों का खेल बिगाड़ा था, बंगाल के चुनाव में पीरजादा वह रोल निभा सकते हैं.

बहरहाल, पीरजादा जो भी फैसला लें, इतना तो तय है कि इस बार किसी एक दल को पश्चिम बंगाल के मुस्लिम समुदाय का एकमुश्त वोट नहीं मिलने वाला है. अभी तक जो हिंदी प्रदेशों में होता था इस बार पश्चिम बंगाल में भी होने के आसार हैं. मुस्लिम उम्मीदवार को हराने के लिए हिन्दू मतदाताओं की लामबंदी. बीजेपी इस कार्य में जुट गयी है और उसे उम्मीद है कि मुस्लिम वोट के संभावित बंटवारे से उसे फायदा होगा, उन सीटों पर भी जहां दबदबा मुस्लिम समुदाय का है.

ममता बनर्जी ने अपने 10 साल के शासनकाल में मुस्लिम समुदाय को लुभाने और खुश करने की बहुत कोशिश की. देखना होगा कि अगर वह पीरजादा को अपने पक्ष में लाने में असफल रहीं तो भी क्या प्रदेश के मुस्लिम मतदाला तृणमूल कांग्रेस को वोट देंगे? और अगर ऐसा नहीं हुआ तो इसका असर चुनाव परिणाम पर कितना पड़ेगा? पीरजादा और ओवैसी फैक्टर ने ना सिर्फ ममता बनर्जी की नींद उड़ा दी है, बल्कि पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव को एक रोचक मोड़ पर खड़ा कर दिया है.


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