सम्पादकीय

हम तालिबानी आंच में कितना तपेंगे

Rani Sahu
8 Sep 2021 10:23 AM GMT
हम तालिबानी आंच में कितना तपेंगे
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इतिहास के ऐसे कई सवाल हैं, जो बार-बार पूछे जाते हैं, पर उनका कोई जवाब नहीं सूझता। ऐसा ही एक सवाल अलेक्जेंडर (सिकंदर) से उनकी मां ने किया था

राजीव डोगरा। इतिहास के ऐसे कई सवाल हैं, जो बार-बार पूछे जाते हैं, पर उनका कोई जवाब नहीं सूझता। ऐसा ही एक सवाल अलेक्जेंडर (सिकंदर) से उनकी मां ने किया था। मां ने पूछा था कि एक साल में आपने सीरिया, पर्सिया और तुर्की, तीनों देश फतह कर लिए, लेकिन तीन साल से अफगानिस्तान में हैं। आखिर क्यों? अलेक्जेंडर ने जवाब के साथ अफगानिस्तान की मिट्टी वाली एक बोरी भी मां को भेजी और लिखा, यह मिट्टी आप राजमहल के आसपास बिछा दीजिएगा, और अपने सलाहकारों को इनके ऊपर चलने के लिए जरूर कहें। तब तक अलेक्जेंडर का मेसेडोनिया का राजपाट बहुत शांत था। बहुत सुगम तरीके से वहां का राजकाज चल रहा था। मगर जैसे ही मिट्टी बिछाई गई और सलाहकारों ने उस पर चलना शुरू किया, उनमें आपस में मतभेद दिखने लगे। इसका मतलब यह है कि शायद अफगानिस्तान की मिट्टी ही कुछ ऐसी है कि वहां कुछ न कुछ झगड़े-फसाद होते ही रहते हैं।

अफगानिस्तान के इतिहास का दूसरा सबक यह है कि वहां चाहे कितने भी युद्ध हों, लेकिन उसका नजला हमेशा भारत पर गिरता रहा है। सिकंदर भी जब अफगानिस्तान से हटा, तो वह भारत आया। मंगोल और मुगल शासकों ने भी अफगानिस्तान को ही मानो अपना 'ट्रांजिट स्टेशन' बनाया और निशाने पर हिन्दुस्तान को लिया। यानी, दुर्भाग्य से अफगानिस्तान में जो कुछ भी होता है, उसका हम पर असर होता है। हम उससे पीड़ित रहे हैं। फिर चाहे सोने की चिड़िया होने की वजह से हम पर धावा बोला जाता हो अथवा हमारी कमजोरियों के कारण। इसीलिए इतिहास बार-बार हमसे यह सवाल भी करता है कि आखिर हमने ऐसा कुछ क्यों नहीं किया कि आततायी हमारे यहां आने से डरें? यही वजह है कि काबुल पर तालिबानी कब्जे के बाद फिर से यह चिंता जाहिर की जाने लगी है कि कश्मीर में इसका क्या असर होगा? खासतौर से, तालिबान के पहले शासनकाल को देखते हुए यह चिंता कहीं ज्यादा गहरी है। मगर इसके साथ-साथ हमें खुद से यह सवाल भी करना चाहिए कि आखिर क्यों वे कश्मीर में आएंगे? क्या हम इतने अमीर हो गए हैं कि फिर से सोने की चिड़िया बन गए हैं या हम इतने कमजोर हो गए हैं कि कोई भी हमें धमका सकता है? आखिर ऐसी चिंता ईरान, पाकिस्तान, चीन, यहां तक कि रूस को क्यों नहीं है?
देखा जाए, तो कश्मीर को लेकर यह चिंता वाजिब है। खबर यही है कि अब अफगानिस्तान में 3.75 लाख सैनिक (तीन लाख के करीब अफगान सुरक्षा बल और 75 हजार के लगभग तालिबानी लड़ाके) हो गए हैं। इतनी बड़ी फौज को पालने की क्षमता अभी तालिबान की नहीं है। अपनी जरूरत और राजकोष की स्थिति को देखते हुए मुमकिन है, 70-80 हजार जवानों को ही तालिबान नियुक्त करे। शेष तीन लाख जवान आखिर करेंगे क्या? इसका जवाब 2015 में आई अपनी किताब ह्वेर बॉडर्स ब्लीड में मैंने दिया है। शुजा नवाज की किताब क्रॉस्ड सोड्र्स के हवाले से एक प्रसंग का जिक्र करते हुए मैंने लिखा है कि 1994 में पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई ने अफगानिस्तान के सदर रब्बानी से कश्मीर के लिए कुछ लड़ाकों की मांग की। उसे उम्मीद थी, दस हजार लड़ाके तो मिल ही जाएंगे। मगर अफगानिस्तान के राष्ट्रपति ने कहा कि वह तो पांच लाख तक रंगरूट दे सकते है। सोचिए, जब पिछली सदी के आखिरी दशक में महज दस हजार लड़ाकों के साथ आईएसआई कश्मीर को अशांत कर सकती थी, तो आज उसके पास बारास्ते अफगानिस्तान तीन लाख लड़ाके हैं, जो प्रशिक्षित भी हैं और कट्टर भी।
सवाल यह है कि हम हमेशा चिंता में ही रहेंगे या फिर इसका कोई स्थायी समाधान निकालेंगे? हमें जाहिर तौर पर दीर्घकालिक हल की ओर बढ़ना चाहिए। सावधान रहना बेशक जरूरी है, लेकिन समझदारी से मसले को सुलझाना कहीं ज्यादा जरूरी है। और, स्थायी समाधान यह है कि हमें पाकिस्तान के साथ इस तरह से पेश आना चाहिए कि वह भविष्य में हमें परेशान करने की जुर्रत न कर सके। इसके लिए हम कई तरह के उपाय कर सकते हैं। मसलन, आर्थिक मोर्चे पर हम उसे सीधी चोट तो नहीं दे सकते, क्योंकि उसके साथ हमारा बहुत ज्यादा कारोबार नहीं होता, लेकिन अमेरिका को यह बताया जा सकता है कि अगर वह हमारा और खुद अपना हित चाहता है, तो उसे पाकिस्तान की नकेल कसनी होगी। इस्लामाबाद को हर साल अरबों डॉलर की भेजी जा रही इमदाद उसे बंद करनी होगी। इतना ही नहीं, जिन-जिन वैश्विक संस्थानों से उसे मदद मिलती है, उन पर भी दबाव बनाना होगा। अमेरिका को यह समझना होगा कि अफगानिस्तान में उसकी जो आज बेइज्जती हुई है, उसकी मूल वजह पाकिस्तान ही है।
दूसरा तरीका कूटनीति हो सकता है, लेकिन इसकी एक सीमा है। यह तभी काम करती है, जब कोई देश सैन्य और आर्थिक रूप से मजबूत हो। आज के माहौल में पाकिस्तान की कूटनीति काफी व्यापक हो गई है। फिर चाहे चीन के साथ उसके रिश्ते हों या हमारे पुराने दोस्त रूस के साथ। आलम यह है कि रूस भी पाकिस्तान का राग अलापने लगा है। उसके प्रतिनिधि कुछ बरसों में कई बार ऐसे बयान दे चुके हैं, जिसमें उन्होंने अफगानिस्तान में भारत की भूमिका को कठघरे में खड़ा किया है। हमें सोचना होगा कि अगर रूस हमसे खफा है, तो इसकी वजह क्या है? क्या सारा दोष मास्को का है या फिर नई दिल्ली का रुख भी इसके लिए कुछ हद तक जिम्मेदार है? अफगानिस्तान मसले पर रूस का रवैया हमारे लिए परेशानी का सबब हो सकता है। ऐसे में, कश्मीर में हालात को लेकर अभी ठीक-ठीक अनुमान नहीं लगाया जा सकता। यह काफी कुछ पाकिस्तान की नीयत से भी तय होगा कि आतंकवाद को फिर से हवा देने को लेकर इस्लामाबाद आखिर क्या सोचता है, क्या आज उसके लिए आदर्श स्थिति है या कितना तनाव वह मोल लेने को इच्छुक है? इन तमाम सवालों के जवाब हमें जल्द ही मिल जाएंगे।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)


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