सम्पादकीय

कितने बदलेंगे हम?

Rani Sahu
27 Oct 2021 6:56 PM GMT
कितने बदलेंगे हम?
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जी हां, वो हम ही थे जो कभी इस जुमले पर मर मिटे थे कि बस जल्दी ही हमारे खाते में 15 लाख जमा होने वाले हैं

जी हां, वो हम ही थे जो कभी इस जुमले पर मर मिटे थे कि बस जल्दी ही हमारे खाते में 15 लाख जमा होने वाले हैं, पर अब हमें ही वो पैसे नहीं चाहिए। सात साल पहले तक हमें सरकारी नौकरी चाहिए थी, पर अब हम लोग देश के एक बड़े नेता के कहने पर पकौड़े तलने के लिए भी तैयार हैं। कुछ ही साल पहले तक हमें डालर एक रुपए के बराबर चाहिए था, पर अब हम डालर का जिक्र ही भूल चुके हैं। तब हमें भ्रष्टाचारियों द्वारा जमा सारा काला धन वापस चाहिए था, पर अब कभी काले धन का जि़क्र उस तरह से नहीं करते। कुछ साल पहले तक हमें पेट्रोल 40 रुपए लीटर चाहिए था, पर अब पेट्रोल के दाम 100 रुपए लीटर से भी ऊपर हों, पर हमें कोई फर्क नहीं पड़ता। आज हमारे मुद्दे यह हैं कि राम मंदिर का निर्माण शुरू हो चुका है, जम्मू-कश्मीर का बंटवारा करके समस्या का हल हो चुका है, तीन तलाक कहने वाले को सजा देने का कानून लागू हो चुका है, विश्व में भारत को एक शक्ति के रूप में पहचाना जा रहा है, कोविड पर प्रभावी नियंत्रण से हम गर्वित हैं और आज हिंदू समाज खुद को हिंदू कहने में गर्व महसूस करता है, खुलकर खुद को हिंदू कहता है। अभी तीन साल पहले तक शासक दल के समर्थकों की ओर से ऐसे संदेश मिलते थे कि गाडि़यों के नए माडलों पर वेटिंग चल रही है, और ग्राहकों को 6-6 महीने तक गाडि़यों का इंतजार करना पड़ रहा है। रेस्टोरेंट में खाली टेबल नहीं मिल रहे हैं और शॉपिंग मॉल में इतनी भीड़ है कि पार्किंग की जगह नहीं है। सिनेमा हॉल अच्छा खासा बिजनेस कर रहे हैं, कई मोबाइल कंपनियों के माडल आउट ऑफ स्टाक हैं और एप्पल जैसे महंगे फोन का भी नया माडल लांच होते हुए ही आउट ऑफ स्टाक हो जाता है। ऑनलाइन शॉपिंग इंडस्ट्री अपने बूम पर है, मगर लोगों को कह रहे हैं कि पट्रोल एक रुपया बढ़ने से उनकी कमर टूट गई है।

साथ में उपदेश यह भी होता था कि हमारे घरों में जब बेमतलब की बत्तियां जलती रहती हैं, पंखा चलता रहता है, टीवी चलता रहता है, तब हमें तकलीफ नहीं होती, पर बिजली का दाम दस पैसे बढ़ते ही हमारी अंतरात्मा कराह उठती है। जब हमारे बच्चे सोलह डिग्री के तापमान पर एसी चलाकर कम्बल ओढ़कर सोते हैं, तब हम कुछ नहीं बोल पाते, लेकिन बिजली का रेट बढ़ते ही हमारा पारा चढ़ जाता है। जब हमारा गीजर चौबीसों घंटे स्विच ऑन रहता है, तब हमें दिक्कत नहीं होती, लेकिन बिजली का रेट बढ़ते ही हम परेशान हो जाते हैं। जब हमारी कामवाली कुकिंग गैस बर्बाद करती है तब हमारी जुबान नहीं हिलती, लेकिन गैस का दाम बढ़ते ही हम विरोध प्रदर्शन करने लगते हैं। रेड लाइट पर कार का इंजन बंद करना हमें गंवारा नहीं, घर से दो गली दूर दूध लेने हम गाड़ी से जाते हैं, छुट्टी वाले दिनों में हम बेमतलब दस-बीस किलोमीटर गाड़ी चला लेते हैं, लेकिन अगर पेट्रोल का दाम एक रुपया बढ़ जाए तो मानों हमें मिर्ची लग जाती है। एक रात दो हज़ार का खर्च करके डिनर करने में हमें तकलीफ नहीं होती, लेकिन बीस रुपए की पार्किंग फीस हमें बहुत चुभती है, वगैरह-वगैरह। कोविड ने सब कुछ बदल दिया, वरना इन संदेशों का अंत नहीं था। संदेश तो अब भी हैं, थोड़ी टोन बदल गई है, गर्व का अहसास कुछ और बढ़ गया है और गालियों की मात्रा भी बढ़ गई है। इस विश्लेषण का मतलब न तो सत्ताधारी दल की आलोचना से है और न ही खुशामद से। मैं न विपक्ष की प्रशंसा कर रहा हूं न आलोचना।
मैं सिर्फ यह बताना चाह रहा हूं कि प्रचार का प्रभाव हम पर किस तरह से असर करता है और जाने-अनजाने खुद हम कितना बदल जाते हैं। कभी हिटलर ने यह मंत्र अपनाया था कि एक झूठ को हज़ार बार बोलो तो वह सच लगने लगता है। आज लगभग हर देश का हर शासक इस मंत्र का पुजारी है। हर शासक इतनी बार और इतनी तरह से झूठ बोलता है कि झूठ ही सच बन जाता है। मोदी की उपलब्धियों की कमी नहीं है। जिस प्रकार पंजाब के तत्कालीन मुख्यमंत्री बेअंत सिंह ने अपने दृढ़ निश्चय से पंजाब को आतंकवाद के लंबे दौर से बाहर निकाला था, वैसे ही मोदी ने जम्मू-काश्मीर की समस्या का कल्पनाशील समाधान किया है। यह भी सच है कि कोविड के नियंत्रण को लेकर उनका ठोस रवैया प्रशंसनीय रहा है। मोदी राज की समस्या यह है कि गलती हो जाए तो वे गलती मानने को तैयार ही नहीं होते, बल्कि किसी भी हद तक जाकर उसे जस्टीफाई करने लग जाते हैं, उनके आईटी सेल की फौज उनके गुणगान में जुट जाती है और बाकी सारी दुनिया को गालियां देने पर उतर आती है। नोटबंदी एक बड़ी गलती थी, वह दरअसल भ्रष्टाचार रोकने के लिए नहीं, और काला धन समाप्त करने के लिए नहीं लाई गई थी, वह सिर्फ विरोधियों का भ्रष्टाचार समाप्त करने और भ्रष्टाचार के केंद्रीयकरण का एक ज़रिया थी। इलेक्शन बॉण्ड भी ऐसा ही हथियार है। एक नेता ने एकछत्र नेता बनने के लिए इन्हें और ऐसे कितने ही हथियार ईज़ाद कर लिए और उन्हें यूं पेश किया मानो जनता का उद्धार कर रहे हों।
इन असफलताओं को इतनी बड़ी सफलताओं के रूप में इतना अधिक प्रचारित किया गया कि उन्हें सफलता मान लिया गया। मैं न मोदी की प्रशंसा कर रहा हूं न निंदा। मैं न विपक्ष की प्रशंसा कर रहा हूं न निंदा। वह मेरा मंतव्य नहीं है। मेरा मंतव्य सिर्फ यह है कि हम किसी प्रचार के प्रभाव में अपना स्वतंत्र चिंतन न खोएं और हर शासक के हर काम का निष्पक्ष दृष्टि से विश्लेषण करें। ह्वाट्सऐप, फेसबुक, इंस्टाग्राम, ट्विटर आदि सोशल मीडिया के मंच भी निष्पक्ष नहीं हैं, अगर हमारे देश में मीडिया, 'गोदी मीडिया' और 'विरोधी मीडिया' में विदेशी मीडिया भी निष्पक्ष नहीं है। हाल ही में बिज़नेसवर्ल्ड पत्रिका के मुख्य संपादक अनुराग बत्रा ने एक लंबा लेख लिखकर इस बात पर अफसोस ज़ाहिर किया कि पश्चिमी मीडिया ने कोविड के समय जनता की तकलीफों को तो खूब उछाला, लेकिन अब जब 100 करोड़ लोगों की वैक्सीनेशन हो गई तो वही पश्चिमी मीडिया इसकी प्रशंसा करने से कतरा रहा है। न्यूयार्क टाइम्स की एक रिपोर्ट में यह बताया गया है कि फेसबुक और ट्विटर का एल्गोरिद्म कुछ ऐसा है कि यह भारत विरोधी बातों को ज्यादा उछालता है। यह एक स्थापित तथ्य है कि लगातार का प्रचार, चाहे वह पॉजिटिव हो या नेगेटिव, हमारे विचारों को बदल सकता है, बदल ही देता है, हम पहले ही बहुत बदल गए हैं, देश बदल गया है। समझने की बात यह है कि हम सावधान रहकर एक निष्पक्ष नगारिक के तौर पर स्थितियों का आकलन और विश्लेषण करने की आदत डालें ताकि देश के विकास के लिए हम सही फैसला ले सकें।
पी. के. खुराना
राजनीतिक रणनीतिकार
ईमेलः [email protected]


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