सम्पादकीय

उत्तर प्रदेश के चुनावी नतीजों से कितनी बदलेगी हिंदी पट्टी की दलित राजनीति

Gulabi
13 March 2022 6:25 AM GMT
उत्तर प्रदेश के चुनावी नतीजों से कितनी बदलेगी हिंदी पट्टी की दलित राजनीति
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उत्तर प्रदेश के चुनावी नतीजों
दिनेश गुप्ता।
लगभग चार दशक तक दलित वोटरों (Dalit Voters) पर एकाधिकार जताने वाली बहुजन समाज पार्टी (BSP) से उसके प्रतिबद्ध वोटरों ने दूरी बना ली है. इसका असर हिंदी पट्टी के अन्य राज्यों में दिखाई देगा. खासकर मध्यप्रदेश (Madhya Pradesh) और राजस्थान (Rajasthan) जैसे राज्यों में जहां बसपा सरकार बनाने की स्थिति में कभी रही नहीं, लेकिन उसकी मौजूदगी कांग्रेस (Congress) के लिए हमेशा ही नुकसान देने वाली रही है. इन दोनों राज्यों में अगले साल विधानसभा के चुनाव होना है. भारतीय जनता पार्टी (BJP) बसपा से दूर हुए इस वोटर को अपने पक्ष में बनाए रखने के लिए वही रणनीति अपना सकती है जो उत्तरप्रदेश (Uttar Pradesh) में अपनाई गई.
बसपा के उदय का सबसे ज्यादा राजनीतिक नुकसान कांग्रेस पार्टी को हुआ है. अनुसूचित जाति, जनजाति और मुस्लिम वर्ग कांग्रेस का प्रतिबद्ध वोटर माना जाता था. विभिन्न राज्यों में कांग्रेस पार्टी से निकले क्षत्रपों ने क्षेत्रीय दल बनाकर इस वोट बैंक में काफी हद तक सेंध लगाई. बसपा के कारण कांग्रेस को उत्तरप्रदेश में बड़ा नुकसान हुआ. बसपा प्रमुख मायावती चार बार उत्तरप्रदेश की मुख्यमंत्री अपने दलित वोट बैंक के कारण ही बनीं. दलित वोटर अनारक्षित सीटों को जीतने में काफी अहम भूमिका अदा करता रहा है.
आरक्षित वर्ग सामान्य सीटों पर दिलाता है जीत
वर्ष 2007 के विधानसभा चुनाव में बसपा ने ब्राह्मण वोटरों की मदद से सरकार बनाई थी. वोट बैंक के लिहाज से मायावती सबसे असरदार नेता मानी जाती थीं. प्रधानमंत्री पद की दौड़ में भी उनका नाम सुनाई देता रहा है. भाजपा ने भी एक बार उत्तर प्रदेश में मायावती को समर्थन देकर सरकार बनाई थी. लेकिन,अब इसी भाजपा ने दलित वोटर में काफी हद तक अपनी पैठ बना ली है. उत्तर प्रदेश में आरक्षित वर्ग की कुल 86 विधानसभा सीटें हैं. इनमें 84 सीटें अनुसूचित जाति वर्ग के लिए सुरक्षित हैं. भाजपा ने इस बार 65 सीटें जीतने में सफल रही है. यद्यपि यह पिछले विधानसभा चुनाव की तुलना में पांच सीटें कम हैं. पिछले विधानसभा में भाजपा ने आरक्षित वर्ग की कुल सत्तर सीटें जीती थीं. एक सीट अनुसूचित जनजाति वर्ग की थी.
दलितों के बीच मनुवादी के आरोप से बाहर आ रही है भाजपा
बसपा अपने वोटर के बीच भारतीय जनता पार्टी को मनुवादी पार्टी के तौर पर प्रचारित करती रही है. भाजपा को आरक्षण विरोधी पार्टी भी प्रचारित किया गया. 2015 में बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने आरक्षण की वर्तमान व्यवस्था की समीक्षा किए जाने की जरूरत बताई थी. चुनाव नतीजे भाजपा के खिलाफ आए. इस बयान के बाद भाजपा विरोधी राजनीतिक दलों को यह प्रचारित करने का मौका मिला कि आरक्षण को समाप्त किया जा सकता है. उत्तर प्रदेश में वही राजनीतिक दल सरकार बना सकता है, जो अनुसूचित जाति वर्ग की आरक्षित सीटों को ज्यादा से ज्यादा जीते. भाजपा अपनी बढ़त बनाए रखने के लिए अनुसूचित जाति वर्ग के बीच लगातार काम कर रही थी. अनुसूचित जाति वर्ग के जिन वोटरों को सरकारी योजनाओं का लाभ दिया गया, उनसे भाजपा कार्यकर्ताओं ने बूथ स्तर पर सीधा संपर्क रखा था. हर जिले में इस वर्ग के सम्मेलन भी आयोजित किए गए. कई नेता अनुसूचित जाति वर्ग के वोटर के घर भोजन करते दिखाई दिए थे. अनुसूचित जाति वर्ग को धर्म के जरिए भाजपा से जोड़ने की कोशिश वर्ष 2016 में उज्जैन में हुए सिंहस्थ के दौरान ही शुरू कर दी गई थी.
इसका व्यापक स्वरूप प्रयागराज के कुंभ में भी दिखा. उज्जैन में दलित साधु-संतों के साथ गृह मंत्री अमित शाह का समरसता स्नान काफी चर्चा में रहा था. अमित शाह पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे. मध्यप्रदेश में विधानसभा के चुनाव वर्ष 2018 में हुए. इस चुनाव में भी बहुजन समाज पार्टी का जनाधार कमजोर दिखा. उत्तर प्रदेश की सीमा से लगे मध्यप्रदेश के विंध्य क्षेत्र में बसपा का वोटर भाजपा में शिफ्ट हुआ देखा गया. इसके विपरीत ग्वालियर-चंबल के इलाके में अनुसूचित जाति वर्ग का वोटर कांग्रेस की ओर वापस चला गया.
बसपा का जाटव वोटर रहता है निर्णायक
दरअसल अनुसूचित जाति वर्ग को यह एहसास पहले ही होने लगा था कि बसपा केन्द्र में कभी सरकार नहीं बना सकती. बसपा के साथ होने के कारण अनुसूचित वर्ग को राजनीतिक तौर पर काफी नुकसान हो रहा था. खासकर जाटव वोटर के कारण. जाटव एकतरफा बसपा के पक्ष में मतदान करता है. यह वोटर उत्तर प्रदेश के अलावा राजस्थान और मध्य प्रदेश में भी अपना असर रखता है. जाटव वोटर उत्तर प्रदेश में पूरी तरह से भाजपा के पक्ष में गया है. आगरा,मथुरा अलीगढ़ आदि जिले की सीटें जाटवों के कारण ही भाजपा के पक्ष में गईं हैं. इस वोटर के कारण ही मायावती को सफाई देना पड़ी कि वह भाजपा की टीम बी के तौर चुनाव मैदान में नहीं थी. जाटव वोटर राजस्थान के धौलपुर और भरतपुर इलाके में है. धोलपुर से लगा हुआ मध्य प्रदेश का मुरैना जिला है. यहां भी जाटव वोटर काफी हैं. उत्तर प्रदेश में बसपा को कुल बारह प्रतिशत वोट मिले हैं. जबकि पिछले चुनाव में उसे बाइस प्रतिशत वोट मिले थे.
वोटर के बीच मायावती की विश्वसनीयता भी हुई कम
बसपा प्रमुख मायावती की विश्वसनीयता भी उनके वोटर के बीच समाप्त होती दिखाई दे रही है. इसकी वजह टिकट का वितरण भी है. यह आम धारणा है कि धन बल से कोई भी बसपा का टिकट ले सकता है. इस धारणा को बदलने की कोशिश भी मायावती ने कभी नहीं की. चुनाव जीतने के बाद दलबदल करने में भी बसपा विधायक आगे रहे हैं. दो साल पहले राजस्थान में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने पार्टी के सभी छह विधायकों का एक साथ दलबदल कराकर अपनी अल्पमत की सरकार को बहुमत ले आए थे. मध्य प्रदेश में कमलनाथ चूक गए थे. इस कारण उनकी सरकार भी चली गई. मध्य प्रदेश में बसपा के सिर्फ दो विधायक चुने गए थे. ये विधायक बाहर से कमलनाथ की सरकार का समर्थन कर रहे थे. जबकि स्पष्ट बहुमत के लिए कमलनाथ को सिर्फ एक विधायक के समर्थन की जरूरत थी. कांग्रेस की रणनीति भीम आर्मी के चंद्रशेखर आजाद के जरिए वोटर को अपने पक्ष में लाने की है. वैसे उत्तरप्रदेश के अनुसूचित जाति वर्ग ने आजाद को भी नकार दिया है. उनकी जमानत जब्त हो गई है. आजाद,मायावती के विकल्प के रूप में अपने आपको सामने लाए थे. भीम आर्मी का कोई प्रभाव अभी उत्तर प्रदेश के बाहर देखने को नहीं मिला है.
साल 2023 में होने वाले विधानसभा चुनाव में भाजपा की रणनीति बसपा के वोटर को अपने पक्ष में बनाए रखने की रहेगी. इस वोटर को ध्यान में रखकर ही भाजपा ने 51 प्रतिशत वोट हासिल करने का लक्ष्य तय किया है. उत्तर प्रदेश की तरह मध्य प्रदेश और राजस्थान में ओबीसी और अनुसूचित जाति वर्ग को एक साथ लाने की रणनीति भी बनाई जा रही है. मध्य प्रदेश में अनुसूचित जाति की आबादी सत्रह प्रतिशत है. हिंदी पट्टी के एक अन्य राज्य छत्तीसगढ़ में बसपा का कोई खास असर नहीं है. बिहार में भी इसके वोटर बंट गए हैं.
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