सम्पादकीय

कन्हैया कुमार के भरोसे बिहार में आरजेडी को कांग्रेस का चैलेंज कितना रास आएगा?

Shiddhant Shriwas
25 Oct 2021 5:16 AM GMT
कन्हैया कुमार के भरोसे बिहार में आरजेडी को कांग्रेस का चैलेंज कितना रास आएगा?
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बिहार में कुशेश्वर स्थान सीट पर हो रहे उपचुनाव में कांग्रेस और आरजेडी गड़े हुए मुर्दे उखाड़ रही हैं. कन्हैया कुमार तेजस्वी यादव की खानदानी राजनीति की विशेषण सहित व्याख्या कर रहे हैं.

अंकुर झा बिहार कांग्रेस के नेता थे राधानंदन झा. खांटी खादीधाऱी कांग्रेसी. बिहार में कांग्रेस के सत्ता से दूर होने के बावजूद राधानंदन झा पावर सेंटर में रहे. इसकी वजह थे लालू यादव. जिस कांग्रेस से लालू यादव ने सत्ता छीनी थी, उसी कांग्रेस के नेता लालू यादव के मेंटर थे. संकट मोचक थे. चारा घोटाले के बाद की सियासत हो, या फिर अलग RJD बनाने के बाद की स्थिति, हर वक्त राधानंदन झा का हाथ लालू यादव की पीठ पर रहा. कहते हैं कि राधा बाबू के कहने पर ही लालू यादव ने राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री बनाया. जब जनता दल का चक्का तोड़कर लालू यादव ने राजनीति में लालटेन की रोशनी जलाई तो जरूरत पड़ने पर कांग्रेस से समर्थन का फ्यूल राधाननंदन झा ने ही दिलवाई थी. राजनीति का रट्टा मारने वाले दोनों के रिश्तों के बारे में अच्छी तरह वाकिफ़ हैं.

राधानंदन झा और लालू यादव के करीब होने की ये कहानी इसलिए बताई है, क्योंकि कांग्रेस और RJD की दोस्ती फिर से नई मोड़ पर खड़ी है. तल्खी इस कदर कि कांग्रेसी अनिल शर्मा ने लालू यादव को धर्मनिरपेक्ष ढोंगी बता रहे हैं. कन्हैया कुमार ने तेजस्वी यादव की खानदानी राजनीति की विशेषण सहित व्याख्या कर रहे हैं. आरजेडी की शाब्दिक मिसाइलें जेडीयू-बीजेपी के समानांतर कांग्रेस की तरफ चल रही है. गड़े हुए मुर्दे उखड़ रहे हैं. अब लालू यादव ने बिहार कांग्रेस के प्रभारी भक्तचरण दास को 'भकचोंधर' दास कहा है. ये वही भक्तचरण दास हैं, जिन्होंने आगे बिहार में सारे चुनाव अकेले लड़ने का ऐलान किया था.
RJD के बगैर कांग्रेस वापसी की करामात दिखा पाएगी?
सवाल है कि क्या वाकई ऐसा मुमकिन है? क्या 2019 के चुनाव में कांग्रेस और RJD अलग-अलग चुनाव लड़ेगी? क्या कन्हैया कुमार की एंट्री होने के बाद से कांग्रेस का हौसला बुलंद है? क्या RJD के बगैर कांग्रेस वापसी की करामात दिखा पाएगी? बिहारी राजनीति के ढाई दशकों का इतिहास बताता है कि दोनों ज्यादा दिनों तक एक-दूसरे से जुदा नहीं रह पाए हैं. पिछले 23 सालों में दोनों पार्टियां 8 बार एक साथ चुनाव लड़ चुकी है, जबकि ये 5वां मौका है, जब दोनों आमने-सामने खड़ी है.
1998 में ही कांग्रेस ने लालू यादव का हाथ थाम लिया था. फिर 1999 के लोकसभा चुनाव में दोनों साथ मिलकर चुनाव मैदान में उतरे. 2000 के विधानसभा चुनाव में अलग हुए. 2004 के विधानसभा चुनाव में साथ-साथ उतरे. केंद्र की यूपीए सरकार में लालू यादव रेल मंत्री बने. लेकिन 2005 के फरवरी में हुए चुनाव में अलग-अलग हो गए. उसी साल अक्टूबर के चुनाव में फिर दोनों मिलकर चुनावी मैदान में उतरे. लेकिन 2009 के लोकसभा चुनाव में गठबंधन टूट गया. 2010 के विधानसभा चुनाव भी अलग होकर लड़े. लेकिन 2014 से फिर दोनों में साथ आ गए. लोकसभा में कांग्रेस की 4 से 2 सीट आ गई.
फिर आया साल 2015 का. तारीख थी 30 अगस्त. जगह थी पटना का गांधी मैदान. पटलिपुत्र की राजनीति नया अध्याय लिख रही थी. विशाल मंच पर सोनिया गांधी थीं, लालू यादव थे. और साथ में बैठे थे नीतीश कुमार. बिहार में बीजेपी को परास्त करने के लिए बने महागठबंधन की प्राण प्रतिष्ठा की गई थी. शक्ति प्रदर्शन किया गया था. बिहार में एंटी बीजेपी महागठबंधन के सेंटर में थे लालू यादव. वही लालू यादव जिनकी पार्टी बिहार की सियासत में तब हाशिए पर खड़ी थी. जिनकी रणनीति बार-बार विफलता की कहानी गढ़ रही थी. उन्होंने तिनका-तिनका जोड़कर बीजेपी के विरूद्ध महागठबंधन की दीवार खड़ी की थी.
90 के बाद जब पहली बार सत्ता में भी लौट पाई कांग्रेस
यूं तो उस महागठबंधन में नीतीश कुमार का शरीक होना बड़ी घटना थी, लेकिन उतना ही अहम था सोनिया गांधी का मंच पर मौजूद रहना. उनका बेधड़क भाषण. और फिर एक साथ मिलकर तीनों का चुनाव लड़ना. फिर जो हुआ वो न सिर्फ लालू यादव के लिए महत्वपूर्ण था, बल्कि कांग्रेस के लिए भी ऑक्सीजन की तरह था. क्योंकि 2015 के चुनाव में 80 सीटें जीतकर वो RJD सबसे बड़ी पार्टी जरूर बन गई थी, जिसे 2015 के चुनाव में सिर्फ 22 सीटें मिली थीं. लेकिन अरसे बाद कांग्रेस को 27 सीटें मिली थीं. 90 के बाद पहली बार सत्ता में भी लौट पाई.
1995 के बाद पहली बार बिहार में कांग्रेस को 27 सीटें मिली थीं. इससे पहले 1995 में हाथ छाप पार्टी को 29 सदस्य विधानसभा की चौखट लांघ पाए थे. वो भी तब, जबकि बिहार अखंड था. पूरे सूबे में 324 सीटें थी. और कांग्रेस ने 320 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे थे. साल 2000 में कांग्रेस को 324 में से सिर्फ 23 सीटें हासिल हुई थीं. 2005 में दो बार चुनाव हुए. पहली बार फरवरी में कांग्रेस 84 उम्मीदवार उताकर 10 सीटें पाईं, जबकि नवंबर में 51 में से सिर्फ 9 सीटें. 2010 में 243 सीटों पर चुनाव लड़ने के बावजूद सिर्फ 4 सीटें कांग्रेस के पास आई थी. 2015 में जब महागठबंधन बना तो कांग्रेस फायदे में रही.
कांग्रेस की जगह बीजेपी का विस्तार होता गया
बड़ी बात ये है कि 1990 में सत्ता से बेदखल होने के बाद कांग्रेस बिखरती गई. उसी के समानांतर बीजेपी का विस्तार होता गया. कांग्रेस का वोटबैंक का एक हिस्सा लालू यादव के पास और दूसरा भगवा पार्टी में खिसकता गया. हाथ छाप झंडा ढोने वाले बडे़-बड़े नेता मौकापरस्ती की लकीर खींचते रहे. आज़ादी के बाद से बिहार पर राज करने वाली पार्टी कमजोर होती गई. और स्थिति ये बन गई कि 2015 में जब 27 सीट लेकर सत्ता में लौटी तो कांग्रेस के लिए बिहार में एक ऐतिहासिक पल था.
हालांकि सरकार की दूसरी सालगिरह से पहले महागठबंधन का एक पाया ढह गया. नीतीश कुमार अलग हो गए. लेकिन लालू यादव और कांग्रेस दोनों एक साथ खड़े रहे. बीजेपी के ख़िलाफ डटे रहे. 2019 के लोकसभा चुनाव में भी बीजेपी और नीतीश कुमार के खिलाफ अड़े रहे. जो एक सीट मिली, वो भी कांग्रेस के खाते में आई. संसद में बिहार से गैर एनडीए राजनीति का संसद में प्रतिनिधित्व कांग्रेस के सांसद ही कर रहे हैं.
निर्णायक होगा कुशेश्वर स्थान सीट पर उपचुनाव
2020 में फिर विधानसभा चुनाव हुए. ये चुनाव लालू यादव के बगैर हुआ था. तेजस्वी यादव के हाथ में महागठबंधन की कमान थी. 2015 में 41 सीटों पर चुनाव लड़ने वाली कांग्रेस को चुनाव लड़ने के लिए 70 सीटें मिली. जबकि लेफ्ट पार्टियों को 29. लालू यादव की पार्टी ने अपने 144 कैंडिडेट्स उतारे. पिछले चुनाव के मुकाबले करीब-करीब दोगुना ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़ने वाली कांग्रेस को सिर्फ 19 सीटें मिली. जबकि लेफ्ट पार्टियों को 29 में से 16 सीटें. उसी वक्त तेजस्वी यादव के शब्दों में कांग्रेस की तरहीज देने की गलती झलक गई थी.
साल भर बाद जब विधानसभा के उपचुनाव हो रहे हैं तो कांग्रेस और RJD दोनों आमाने सामने हैं. जिस कुश्वेश्वर स्थान सीट पर पिछली बार कांग्रेस ने कैंडिडेट उतारे थे, वहां से इस बार तेजस्वी ने अपने उम्मीदवार खड़े कर दिए. लड़ाई त्रिकोणीय हो चुकी है. NDA बनाम RJD बनाम कांग्रेस. RJD और कांग्रेस दोनों एक-दूसरे पर प्रचंड पलटवार कर रहे हैं. कांग्रेस को कहैन्या कुमार के रूप में नये चहेरे की आमद हुई है. बेबाक, बेलौस और बेधड़क बोलने वाले कन्हैया सीधे तेजस्वी यादव पर तीखा हमला कर रहे हैं. थाती और छाती की याद दिला रहे हैं. कांग्रेस और RJD के बीच वही हो रहा है जो दो दोस्तों के दुश्मन बनने बाद जो होता है. हालांकि इसकी शुरूआत तभी हो गई थी, जब कन्हैया की कांग्रेस में एंट्री हुई थी.
कुछ लोग इस लड़ाई को सिर्फ उपचुनाव के ईर्द-गिर्द ही देख रहे हैं. लेकिन जो स्थिति बन रही है उससे साफ है कि कन्हैया में बिहारी राजनीति का भविष्य देखने वाली कांग्रेस अगला विधानसभा चुनाव अकेले लड़ेगी. क्योंकि तेजस्वी यादव अगले चुनाव में कांग्रेस को तेजस्वी यादव किसी भी कीमत पर 70 सीटें नहीं देने वाले हैं. कांग्रेस से ज्यादा RJ और लेफ्ट पार्टियों को तरजीह मिलेगी. और 70 सीटों से कम शायद ही कांग्रेस को मंजूर हो. ऐसे में जब सबसे पुरानी पार्टी कन्हैया के आसरे नई उम्मीद देख रही है, तो हाथ में लालटेन का होना नामुमकिन सा दिख रहा है. हालांकि उससे पहले 2024 के चुनाव में स्थिति बहुत साफ हो जाएगी.
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