सम्पादकीय

कितना सच बोलते हैं आंकड़े

Rani Sahu
20 Sep 2021 6:51 PM GMT
कितना सच बोलते हैं आंकड़े
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आंकड़ों के बारे में आम सहमति है कि वे हमेशा या पूरा सच नहीं बोलते और उनमें तैयार करने वालों की व्यक्तिगत पसंद-नापसंद की झलक हमेशा दिखती रहती है

विभूति नारायण राय आंकड़ों के बारे में आम सहमति है कि वे हमेशा या पूरा सच नहीं बोलते और उनमें तैयार करने वालों की व्यक्तिगत पसंद-नापसंद की झलक हमेशा दिखती रहती है। पर यह भी सच है कि आंकड़ों का कोई विकल्प नहीं है, खासतौर से भारत जैसे एक वैविध्यपूर्ण समाज में, जहां नीति-निर्धारकों के पास धर्मों, जातियों, भाषाओं और भिन्न राष्ट्रीयताओं में बंटे समाजों के लिए योजनाएं बनाते समय इनके अलावा कोई दूसरा बेहतर आधार न हो।

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की वर्ष 2020 की रिपोर्ट छपकर आ गई है। देश के विभिन्न राज्यों में अपराधों की स्थिति समझने के वास्ते किसी भी जिज्ञासु शोधार्थी के लिए ब्यूरो की रिपोर्टें एक प्रस्थान बिंदु की तरह होती हैं। यह याद रखने की जरूरत है कि 1986 में स्थापित राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो का काम सिर्फ राज्यों से प्राप्त अपराधों के आंकडे़ संकलित कर प्रकाशित कर देना है। उसमें इतनी बौद्धिक क्षमता नहीं है कि इनका समाजशास्त्रीय अध्ययन कर वह अपराधों के घटने या बढ़ने की प्रवृत्तियों की शिनाख्त कर सके। इस काम को तो दूसरे शोध संस्थानों को ही करना होगा और निश्चित रूप से ब्यूरो के संकलित आंकड़े उनके लिए बहुमूल्य सिद्ध होते हैं। आंकड़ों से किसी निष्कर्ष पर पहुंचते समय यह जरूर याद रखना होगा कि सभी राज्य सरकारों की तरफ से कोशिश होती है कि अपराध को कम करके दिखाया जाए। अपवाद-स्वरूप भी ऐसा राज्य तलाशना मुश्किल होगा, जो इन आंकड़ों के स्रोत पुलिस थानों में शत-प्रतिशत आपराधिक मामले दर्ज कराने पर जोर देते हों। उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में तो सर्वविदित है कि आधे से भी कम मामलों में एफआईआर दर्ज होती हैं।
बहरहाल, ब्यूरो की यह रिपोर्ट वर्ष 2020 की है, जब कोविड महामारी के चलते देश का अधिकांश हिस्सा बंद था। सड़कों पर कम लोग निकलते थे और ज्यादातर कारखानों, दफ्तरों या शिक्षा संस्थानों में ताले लटके हुए थे। ऐसे में, यह स्वाभाविक ही है कि घरों के बाहर होने वाले अपराधों में गिरावट आई और चारदीवारियों के भीतर घरेलू हिंसा या यौन उत्पीड़न की घटनाएं बढ़ी होंगी। अवसादजन्य हिंसा या आत्महत्याओं में भी वृद्धि हुई ही होगी, पर लीक से हटकर सोचने की बौद्धिक सलाहियत से वंचित ब्यूरो ने अपराध के पारंपरिक खानों में इनके लिए गुंजाइश नहीं रखी है, इसलिए उन पर बातचीत नहीं हो सकती। इसके बावजूद इस रिपोर्ट से समकालीन समाज को समझने में मदद मिलेगी।
कोविड महामारी और परिणामस्वरूप लॉकडाउन के चलते महिलाओं, बच्चों व वरिष्ठ नागरिकों के विरुद्ध अपराधों में कमी आई है, ऐसा ब्यूरो का मानना है, पर यह अन्य समाजशास्त्रीय स्रोतों के निष्कर्षों से भिन्न है। तमाम विश्वविद्यालयों और शोध संस्थानों के जमीनी अध्ययन बताते हैं कि बडे़ पैमाने पर रोजगार जाने, आमदनी में कटौती और जीवन में तरह-तरह की अनिश्चितताओं से उत्पन्न तनाव ने मध्य आयु वर्ग के सदस्यों का जीवन एक खास तरह के अवसाद से भर दिया है और यह घरेलू हिंसा के रूप में प्रकट हुआ है। बहुत से सर्वेक्षणों और अध्ययनों ने इसकी पुष्टि की है। ऐसे में, ब्यूरो के आंकडे़ चौंकाते हैं। मुझे नहीं लगता कि वे विश्वसनीय हैं। इसी तरह से शिक्षा संस्थानों की बंदी के चलते घरों में कैद बच्चे भी चिड़चिड़े हुए हैं और उनके व्यवहार में भी रेखांकित किया जा सकने वाला परिवर्तन आया होगा, जिनको पकड़ने में राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकडे़ मदद नहीं करते। हालांकि, यह समझ में आता है कि चोरी, सेंधमारी, राहजनी और डकैती जैसे मामलों में कोविड-काल में कमी आई है।
अनुसूचित जातियों के खिलाफ होने वाली ज्यादतियों के मामलों में 9.4 प्रतिशत और अनुसूचित जनजातियों द्वारा दर्ज मुकदमों में 9.3 फीसदी की वृद्धि हुई है। यह समझ आने वाली स्थिति है, क्योंकि कोविड के लॉकडाउन से अमूमन ग्रामीण भारत, जहां अधिकतर अनुसूचित जातियां या जंगलों के नजदीकी रिहायशी इलाके, जहां अनुसूचित जनजातियां रहती हैं, अप्रभावित रहे। इन इलाकों में जीवन चलता रहा, इसलिए इतनी वृद्धि सामान्य कही जाएगी।
लेकिन इन आंकड़ों में दो क्षेत्र दिलचस्प हैं। इस दौरान सरकारी आदेशों के उल्लंघन के मामलों में वृद्धि हुई। यह स्वाभाविक ही है कि कोविड-काल के निर्देशों, यथा मास्क पहनने या सामाजिक दूरी बनाए रखने के आदेश का अनुपालन करना भारतीय जन के लिए सांस्कृतिक आघात की तरह था और इस संबंध में बड़ी संख्या में मुकदमे कायम हुए। दूसरा क्षेत्र भ्रष्टाचार से जुड़ा है, जहां अपराध कम हुए बताए गए। यह कैसे हुआ? नागरिकों के सामान्य संपर्क में आने वाले सरकारी कार्यालय आमतौर से बंद रहे, इसलिए स्वाभाविक रूप से संपर्क में कम नागरिक आए, और परिणामस्वरूप उनके उत्पीड़न की घटनाएं भी कम हुईं, लेकिन उस एक क्षेत्र का क्या हुआ, जिसका एक बड़ी आबादी से महामारी के दौरान पाला पड़ा। यह क्षेत्र था स्वास्थ्य।
अमूमन आम दिनों में आबादी के छोटे हिस्से से सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं का संपर्क होता है और उनका अनुभव कोई बहुत अच्छा नहीं होता, लेकिन इस बार तो महामारी के चलते बड़ी संख्या में लोगों को सरकारी अस्पतालों का रुख करना पड़ा और बड़े पैमाने पर उन्हें ऐसे अनुभवों से गुजरना पड़ा, जो प्रचलित कानूनों के अंतर्गत भी भ्रष्टाचार की परिधि में आते हैं और इन मामलों में मुकदमे दर्ज होने चाहिए थे। देश भर के अखबार ऐसी खबरों से भरे पड़े थे, जिनमें मरीजों या तीमारदारों के साथ दुव्र्यवहार, दवाओं और अन्य सुविधाओं के लिए अवैध उगाही या फिर सरकारी तंत्र की अक्षमता के किस्से बयान किए गए थे।
महामारी के दौरान जनता को मिले तल्ख अनुभवों पर गीत रचे गए, कहानियां लिखी गईं, फिल्में बनीं और इन सबके बावजूद ब्यूरो की रिपोर्ट अगर भ्रष्टाचार के मामले कम दिखा रही है, तो स्पष्ट है कि इसे गहराई से परखने की जरूरत है। पूरी संभावना है कि बहुत कम प्रकरण थानों में लिखे गए। यह भी संभव है कि बहुत से मामलों में पीड़ित पुलिस के पास न गए हों। लोगों को उम्मीद नहीं रहती कि उनकी शिकायतें दर्ज होंगी या वे सरकारी मशीनरी से ऐसे ही व्यवहार की उम्मीद करते हों और जब तक कोई बड़ी दुर्घटना न घटे, वे थाना-कचहरी के चक्कर में नहीं पड़ना चाहते। कुछ भी हो, भ्रष्टाचार के मामलों में गिरावट हमारी सामाजिक संरचना पर एक टिप्पणी की तरह तो है ही।


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