सम्पादकीय

नेताजी सुभाष चंद्र बोस को लेकर फिल्म अभिनेत्री कंगना रनौत के दावे में कितनी सच्चाई?

Tulsi Rao
19 Nov 2021 6:58 AM GMT
नेताजी सुभाष चंद्र बोस को लेकर फिल्म अभिनेत्री कंगना रनौत के दावे में कितनी सच्चाई?
x
दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश भारत के लिए दुर्भाग्य कहें या सौभाग्य, संयोग कहें या प्रयोग कि जब-जब चुनाव सिर पर होता है

प्रवीण कुमार दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश भारत के लिए दुर्भाग्य कहें या सौभाग्य, संयोग कहें या प्रयोग कि जब-जब चुनाव सिर पर होता है, गांधी, नेहरू, पटेल, नेताजी, भगत सिंह आदि को लेकर बेतुका राग छेड़ दिया जाता है. देश कोविड महामारी के दौर से गुजर रहा है, देश महंगाई, गरीबी और बेरोजगारी के दंश को झेल रहा है. ऐसे में एक टीवी चैनल को दिए इंटरव्यू में कंगना रनौत के इस बयान को किस रूप में देखा जाए, जिसमें वो गांधी की अहिंसा का मजाक उड़ाते हुए इस बात का दावा कर रही हैं कि 1947 में देश को जो आजादी मिली थी वो आजादी नहीं भीख थी. असली आजादी तो 2014 में मिली, जब मोदी सरकार सत्ता में आई.

इतने पर ही कंगना नहीं मानीं. एक अखबार की कतरन को अपने इंस्टाग्राम पर शेयर किया जिसकी हेडलाइन थी 'Gandhi, Others Had Agreed To Hand Over Netaji' इस खबर में दावा किया गया है कि महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, मोहम्मद अली जिन्ना और मौलाना आजाद ने एक ब्रिटिश न्यायाधीश से समझौता किया था कि अगर नेताजी सुभाष चंद्र बोस देश वापस लौटते हैं, तो उन्हें ब्रिटिश सरकार को सौंपा जाएगा और उन पर केस चलेगा. कंगना के इन तमाम विवादित बयानों से सोशल मीडिया पर बवाल मचा हुआ है.
नेताजी को लेकर कंगना का दावा कितना सच?
इस बात में कोई दो राय नहीं कि महात्मा गांधी और नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की विचारधारा अलग-अलग थीं, पर इस सच से भी कोई इनकार नहीं कि दोनों का मकसद एक ही था 'भारत की आजादी'. इस सच से भी कोई मुंह नहीं मोड़ सकता कि महात्मा गांधी को सबसे पहले 'राष्ट्रपिता' के संबोधन से नेताजी ने ही संबोधित किया था. ऐसे में इस तरह की बात को उछालना कि नेताजी को लेकर ब्रिटिश सत्ता और तत्कालीन कांग्रेस के बीच कोई समझौता हुआ था, एक राजनीतिक षड्यंत्र के तहत गढ़ी गई कहानी के सिवा और कुछ भी नहीं है.
2014 में सत्ता में आने के बाद पीएम मोदी ने नेताजी से संबंधित तमाम दस्तावेजों को जुटाने में खुद पहल की थी. गृह मंत्रालय से लेकर राष्ट्रीय अभिलेखागार तक नेताजी से जुड़े सभी दस्तावेजों को खंगालने के बाद भी इस तरह के कोई सुबूत हाथ नहीं लगे जिससे इस बात की पुष्टि होती हो कि नेताजी को लेकर कांग्रेस का ब्रिटिश सत्ता से कोई समझौता हुआ था. इस संबंध में आरटीआई से भी जानकारी जुटाने की खूब कोशिश की गई, लेकिन नतीजा सिफर ही रहा. ऐसे में जब-जब देश में चुनाव की बयार तेज होती है, इस तरह का इमोशनल अत्याचार जनता पर किया जाता है. जो लोग इस तरह के मुद्दों को उछालते हैं उन्हें इतिहास में झांककर जरूर अंदाजा लगाना चाहिए कि गांधी, पटेल, नेहरू, नेताजी, भगत सिंह के आपसी रिश्ते कैसे थे?
नेताजी की नजर में गांधी क्या थे?
नेताजी सुभाष चंद्र बोस की नजर में गांधी क्या थे, इसको लेकर समय-समय पर बहुत कुछ कहा जाता रहा है. अक्सर आजादी की लड़ाई में योगदान को लेकर गांधी और नेताजी को दो अलग-अलग छोरों पर खड़ा किया जाता रहा है. ऐसे में कुछ ऐतिहासिक तथ्यों को जानना जरूरी हो जाता है. 6 जुलाई 1944 को नेताजी ने जापान से गांधीजी के नाम जो संदेश दिया था उसमें नेताजी कहते हैं… दुनियाभर के हिंदुस्तानी आपके स्वास्थ्य को लेकर चिंतित हैं. अंग्रेजों की जेल में कस्तूरबा जी की दुखद मृत्यु के बाद देशवासियों के लिए आपके स्वास्थ्य के बारे में चिंतित होना स्वाभाविक था. ये ईश्वर की कृपा है कि तुलनात्मक तौर पर आपके स्वास्थ्य में सुधार हुआ है. अब 48 करोड़ 80 लाख हिंदुस्तानियों को आपके मार्गदर्शन और सलाह का लाभ मिल सकेगा.
1941 में भारत छोड़ने के बाद मैं जिन देशों में भी गया और जो अंग्रेजी प्रभाव से मुक्त हैं, वहां आपको उच्चतम सम्मान से देखा जाता है, ऐसा सम्मान जो अन्य किसी भारतीय नेता को पिछली शताब्दी में नहीं मिला है. देश के बाहर रहने वाले भारतीयों और भारत की स्वतंत्रता के विदेशी मित्रों के मन में आपके प्रति जो आदर है, वो सौ गुना अधिक बढ़ गया, जब आपने अगस्त 1942 में भारत छोड़ो प्रस्ताव का समर्थन किया. महात्मा जी, मैं आपको भरोसा दिला सकता हूं कि मैं और मेरे साथ काम करने वाले लोग खुद को भारत के लोगों का सेवक मानते हैं. अपने प्रयासों, कष्टों और बलिदान के लिए हम केवल एक ही पुरस्कार जीतना चाहते हैं और वो है भारत की आजादी. एक बार भारत आजाद हो जाए तो हममें से ऐसे बहुत से लोग हैं जो राजनीति से संन्यास लेना चाहेंगे. बाकि बचे लोग आजाद भारत में कोई भी पद, चाहे कितना ही छोटा क्यों ना हो, स्वीकार करने में संतोष का अनुभव करेंगे. हमारे राष्ट्रपिता, भारत की स्वतंत्रता के इस पावन युद्ध में हम आपका आशीर्वाद और आपकी शुभकामनाएं मांगते हैं.
गांधी की नजर में नेताजी क्या थे?
नेताजी सुभाष चंद्र बोस को देशबंधु चित्तरंजन दास से मिलाने का काम महात्मा गांधी ने ही किया था. लेकिन असहयोग आंदोलन के अचानक समाप्त किए जाने से नाराज मोतीलाल नेहरू और चित्तरंजन दास ने जब कांग्रेस से अलग होकर स्वराज पार्टी बना ली थी तो नेताजी भी स्वराजियों के साथ चले गए थे. लेकिन गांधी का व्यक्तित्व ऐसा था कि एक बार जब वे किसी व्यक्ति में गुणदर्शन कर लेते थे, तो फिर कोई भी वैचारिक मतभेद उन्हें उनसे अलग नहीं कर सकती थी और कमोबेश यही गुण सुभाष बाबू में भी था. कलकत्ता नगर निगम का अध्यक्ष रहने के दौरान जब नेताजी को बिना कोई कारण बताए गिरफ्तार कर लिया गया और बाद में उन्हें बहुत ही गंभीर बीमारी की हालत में रिहा किया गया तो महात्मा गांधी ने ब्रिटिश सरकार के इस रवैये के खिलाफ एक जबरदस्त लेख लिखा था.
26 मई, 1927 को यंग इंडिया में लिखे इस लेख में गांधी कहते हैं, 'इस दुःखद मामले से भी अगर जनता कोई सांत्वना की चीज ढूंढ़ निकालना चाहे, तो उसे एक चीज जरूर मिल जाएगी और वह यह कि अंतिम क्षण तक श्रीयुत सुभाष चन्द्र बोस सरकार द्वारा समय-समय पर रखी गई उन अपमान भरी शर्तों को बड़ी जवांमर्दी के साथ मानने से इनकार करते रहे. अब हमें आशा और प्रार्थना करनी चाहिए कि परमात्मा उन्हें फिर स्वस्थ करे और वे चिरकाल तक अपने देश की सेवा करते रहें.'
'पट्टाभि की हार मेरी हार है' प्रसंग का सच
नेताजी और गांधी के बीच के वैचारिक मतभेद को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने वाले लोग अक्सर 1939 में कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव वाला प्रसंग जरूर याद दिलाते हैं जिसमें गांधी को यह कहते हुए दिखाया जाता है कि 'पट्टाभि सीतारमैया की हार मेरी हार है'. इसी एक वाक्य से लोगों में तब से लेकर अब तक भ्रम पैदा किया जाता रहा है. 4 फरवरी, 1939 को 'यंग इंडिया' में छपे लेख में गांधी कहते हैं, '…तो भी मैं उनकी (सुभाष बाबू की) विजय से खुश हूं और चूंकि मौलाना अबुल कलाम आजाद द्वारा अपना नाम वापस ले लेने के बाद डॉ. पट्टाभि को चुनाव से पीछे न हटने की सलाह मैंने दी थी, इसलिए यह हार उनसे ज्यादा मेरी है. इस हार से मैं खुश हूं….सुभाष बाबू अब उन लोगों की कृपा के सहारे अध्यक्ष नहीं बने हैं जिन्हें अल्पमत गुट वाले लोग दक्षिणपंथी कहते हैं, बल्कि चुनाव में जीतकर अध्यक्ष बने हैं.
इससे वे अपने ही समान विचार वाली कार्य-समिति चुन सकते हैं और बिना किसी बाधा या अड़चन के अपना कार्यक्रम अमल में ला सकते हैं. सुभाष बाबू देश के दुश्मन तो हैं नहीं. उन्होंने उसके लिए कष्ट सहन किए हैं. उनकी राय में उनका कार्यक्रम और उनकी नीति दोनों अत्यंत अग्रगामी हैं. अल्पमत के लोग उसकी सफलता ही चाहेंगे.' तब जबलपुर के त्रिपुरी अधिवेशन में 29 जनवरी 1939 को अपने भाषण में नेताजी ने कहा था…कांग्रेस का वर्तमान वातावरण धूमिल हो चुका है और मतभेद उभर आए हैं. फलस्वरूप हमारे अनेक मित्र खिन्नचित्त और हतोत्साह हो गए हैं. किन्तु मैं अपरिवर्तनीय आशावादी हूं.
आप जिस मेघ को देख चुके हैं वह जानलेवा मेघ है. मुझे अपने देशवासियों के देशप्रेम पर विश्वास है. हमें भरोसा है शीघ्र ही हम इन कठिनाइयों पर विजय पाएंगे. हमारे कार्यकर्ताओं में एकता कायम हो जाएगी. इस तरह की स्थिति 1922 में गया कांग्रेस में भी उत्पन्न हुई थी और उसके बाद देशबंधु तथा पंडित मोतीलाल नेहरू ने स्वराज पार्टी का गठन किया था. मेरी प्रार्थना है कि मेरे पूज्य गुरु मोतीलाल तथा भारत के अन्य सपूतों की आत्मा हमें इस संकट में उत्साह प्रदान करे और महात्मा गांधी जो हमारे हैं राष्ट्र का मार्गदर्शन एवं सहायता कर कांग्रेस को इस उलझन से उबारें. इस तरह की ढेर सारी कहानियां इतिहास के पन्नों में दर्ज हैं जो इस विवादित बोल को नकारती हैं कि नेताजी या फिर भगत सिंह के खिलाफ गांधी या फिर पंडित नेहरू ने कुत्सित चाल चली थी.
गांधी के विचार को खत्म करने की साजिश
ऐसा पहली बार नहीं हुआ है जब गांधी के चाल-चरित्र और चेहरे पर सवाल खड़े किए गए हों. याद हो तो 2019 में लोकसभा चुनाव के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक साक्षात्कार में कहा था कि वह नाथूराम गोडसे के बारे में उस बयान के लिए प्रज्ञा ठाकुर को कभी माफ नहीं करेंगे जिसमें उन्होंने गांधी के हत्यारे गोडसे को देशभक्त करार दिया था. लेकिन हकीकत में उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई. साध्वी प्रज्ञा ठाकुर जो वर्तमान में बीजेपी की सांसद भी हैं, ने बाद में संसद में खड़े होकर गोडसे को देशभक्त करार दिया.
बीजेपी नेता अनंत हेगड़े ने पिछले साल महात्मा गांधी के स्वतंत्रता संग्राम को बनावटी बता दिया था. एक और बीजेपी नेता साक्षी महाराज ने अपने विवादित बयान में कहा था, 'सुभाष चंद्र बोस को समय से पहले ही मौत के गाल में भेज दिया गया था. कांग्रेस ने ही सुभाष चंद्र बोस की हत्या कराई. बोस की लोकप्रियता के आगे पंडित नेहरू तो कहीं ठहरते ही नहीं थे. महात्मा गांधी भी उनकी लोकप्रियता के आगे कहीं नहीं ठहरते थे.
हरियाणा सरकार में मंत्री और वरिष्ठ बीजेपी नेता अनिल विज ने 2017 में अपने बयान में यहां तक कह दिया था कि गांधी का नाम जुड़ने से खादी की दुर्गति हुई थी और अब धीरे-धीरे नोटों से भी गांधी हटेंगे. इस तरह के विवादित और बकवास बयानों से सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि एक खास विचारधारा के लोग जो नाथूराम गोडसे से प्रेम करते हैं, गांधी के नाम को मिटाने की साजिश में जी-जान से जुटे हैं. क्योंकि बीजपी के बीते सात साल से अधिक के शासनकाल में गांधी के विचार और उनके आदर्श के साथ बार-बार खिलवाड़ किया जा रहा है.
आज इस बात को गहराई से समझने की जरूरत है कि गांधी और नेताजी जैसे लोगों का दिल बहुत बड़ा था. लिहाजा उनके आपसी संबंधों को समझने के लिए हमें भी अपना दिल बड़ा करना पड़ेगा. बीजेपी सांसद वरुण गांधी ने ठीक ही कहा है, 'कभी महात्मा गांधी जी के त्याग और तपस्या का अपमान, कभी उनके हत्यारे का सम्मान और अब शहीद मंगल पाण्डेय से लेकर रानी लक्ष्मीबाई, भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद, नेताजी सुभाष चंद्र बोस और लाखों स्वतंत्रता सेनानियों की कुर्बानियों का तिरस्कार.
इस सोच को मैं पागलपन कहूं या फिर देशद्रोह?' कंगना रनौत हों या साध्वी प्रज्ञा ठाकुर, अनंत हेगड़े हों या फिर अनिल विज. अगर ये लोग गांधी के खिलाफ आग उगलते हैं तो इसके पीछे आज की सत्ता के शिखर में बैठे लोगों का वरदहस्त है. अगर आप गोडसे को पूजते हैं तो निश्चित रूप से आप गांधी से घृणा करेंगे. मतलब साफ है, नेताजी या भगत सिंह तो बहाना हैं, असल में गांधी को मिटाना है.
Next Story