सम्पादकीय

कितना मरहम बाकी

Rani Sahu
4 April 2022 6:56 PM GMT
कितना मरहम बाकी
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हिमाचल की सरकारें कर्मचारी मैत्री माहौल बनाने की हरसंभव कोशिश करती रही हैं

हिमाचल की सरकारें कर्मचारी मैत्री माहौल बनाने की हरसंभव कोशिश करती रही हैं और इसी तापमान में वर्तमान सरकार के फैसले भी गर्मजोशी दिखा रहे हैं। फैसलों की फेहरिस्त में दो साल के नियमित सेवाकाल के बाद उच्च वेतनमान तथा जूनियर आफिस असिस्टंेट (आईटी) को भी लिपिक दर्जे का वेतनमान मिलेगा। इस तरह राइडर पर अटकी आशंकाएं समाप्त हो गईं, लेकिन कर्मचारी उम्मीदों के साथ इनसाफ की परिभाषा का तिलक होगा या नहीं, कोई नहीं कह सकता। जयराम सरकार काफी शिद्दत से कर्मचारी मसलों पर मरहम लगा रही है और यह क्रम निर्बाध रूप से जारी है। यानी छठे वेतन आयोेग की सिफारिशें लागू करने से लेकर आज तक सरकारी कर्मचारी की पगार मान-मनौव्वल के दौर से गुजर रही है। सरकार लगातार सिक्के उछालकर कर्मचारी हित के फैसले कर रही है, लेकिन यह नहीं कहा जा सकता है कि इस वर्ग से साधुवाद हासिल करना आसान होगा।

सरकारी रोजगार, सरकारी पगार और सरकारी नौकरी की वेतन विसंगतियों को समझने की क्रिया में छुपी प्रतिक्रिया अकसर बुलंद रहती है, तो हम यह मान सकते हंै कि छत्तीस के आंकड़े में राज्य का बजट कभी भी सौ प्रतिशत नहीं हो पाता। न्याय और न्यायोचित फैसलों में आरंभिक द्वंद्व इसलिए भी है, क्योंकि हिमाचल में हर सरकार ऐसे नियुक्ति पत्र तैयार करती रही, जो पहले रोजगार का अवसर और बाद में वेतन विसंगतियां बढ़ाती रही हैं। यहां कॉडर में विवाद, पद उपनाम के रहस्य और नए पदों के अधूरे सृजन की लोरियां तंग करती हैं। कर्मचारी होना और सरकारी नौकर होना एक तरह से ऐसा विशेषाधिकार है, जिसके ऊपर सरकारें मेहनत करते-करते आज खुद ही इस ट्रैप में ऐसी उलझी हैं कि कभी राइडर बचाव करता है, तो कभी अवसाद पैदा करता है। कभी अस्थायी या आउटसोर्स जैसी नौकरी बेरोजगारों की कतार भरती है, तो कभी यही विसंगतियों की तार में उलझकर आक्रोश का आकार लेती है। सवाल कर्मचारी संतोष से कहीं ज्यादा उस असंतोष से ताल्लुक रखता है जो गाहे-बगाहे कॉडर असमानताओं को सामने ले आता है। नौकरी का हुजूम आज जिन राहों पर तलवे चाटता है, वही कल वेतन विसंगतियों की आड़ में ऐसा आखेट करता है कि सरकारें ही घुटनों के बल आ जाती हैं। यही शहादत का ऐसा फलक या मछली पकड़ने का ऐसा कांटा है, जिसे हलक में महसूस किया जा सकता है। हिमाचल में इस समय दो गाने एक साथ चल रहे हैं।
एक तरफ सरकार को अधिकतम सरकारी रोजगार के अवसर सुनाने हैं, तो दूसरी ओर सरकारी नौकरी की बिगड़ी सूरत संवारनी है। यह अजीब असंतुलन है जिसे कभी खत्म नहीं किया जा सकता। मसलन इस बार सरकार मल्टी टास्क वर्कर जैसे रोजगार के माध्यम से अपनी आंख में भले ही सुरमा भर ले, लेकिन दूसरी ओर पहले से चले आ रहे इसी पैमाने के अस्थायी व परोक्ष उपनामों को नई संज्ञा देने की जिम्मेदारी से नहीं बच सकती। ऐसे में न कर्मचारी संगठन वेतन विसंगतियों व सेवा शर्तों में सुधार लाने के लिए फरियादी बनते हैं और न ही सरकारें भी ऐसे झंझटों से कदम खींच पाने की जगह तलाश करती हैं। ऐसा कोई निरीक्षण-परीक्षण भी नहीं होता कि पता चल जाए कि किस कॉडर में विसंगतियों के सुराख कहां-कहां हैं। सबसे अहम होगा कि अप्रत्यक्ष या अस्थायी नौकरी के सरकारी प्रयास रोके जाएं। इसके लिए कर्मचारी चयन की वर्तमान पद्धति में पारदर्शिता चाहिए, जबकि सेवा शर्तों में सुधार की गुंजाइश है। दरअसल सरकार और कर्मचारियों के बीच विश्वास के सेतु विकसित होने चाहिएं, लेकिन यह राजनीतिक किस्तों या चुनाव की बहारों में नहीं, एक सद्भावना के तहत और कड़े वित्तीय अनुशासन की परिपाटी में हांे, तो इसके परिणाम पूरी तरह फलीभूत होंगे।

क्रेडिट बाय दिव्याहिमाचल


Rani Sahu

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