सम्पादकीय

कितनी परवाह करते हैं लोग?

Subhi
10 July 2022 4:05 AM GMT
कितनी परवाह करते हैं लोग?
x
कई बार मुझे आश्चर्य होता है कि भारत में वाकई एक ऐसा मध्यवर्ग है, जो संवैधानिक सच्चाई, सरोकार और परवाह के मूल्यों के साथ बना हुआ है। मैं जानता हूं कि कई ऐसे लोग हैं जो इन मूल्यों के साथ जीते हैं

पी. चिदंबरम; कई बार मुझे आश्चर्य होता है कि भारत में वाकई एक ऐसा मध्यवर्ग है, जो संवैधानिक सच्चाई, सरोकार और परवाह के मूल्यों के साथ बना हुआ है। मैं जानता हूं कि कई ऐसे लोग हैं जो इन मूल्यों के साथ जीते हैं, लेकिन 'वर्ग' के तौर पर देखने पर ये मूल्य आज मोटे तौर पर गायब लगते हैं।

इसके उलट, स्वतंत्रता आंदोलन को देखिए। उन्नीसवीं सदी के भारत में अमीरों की संख्या थोड़ी-सी ही थी और बाकी लोग गरीब थे। पाश्चात्य शिक्षा पद्धति- खासतौर से अंग्रेजी पढ़ाने और अंग्रेजी में पढ़ाने- और पश्चिमी न्याय-व्यवस्था को अपनाने से शिक्षित मध्यवर्ग की संख्या बढ़ी, जो मध्यवर्ग के रूप में सामने आया। पहली बार शिक्षकों, चिकित्सकों, वकीलों, जजों, सरकारी अधिकारियों, सैन्य अधिकारियों, पत्रकारों और लेखकों का प्रबुद्ध वर्ग उभरा, जिसने मध्यवर्ग के वास्तविक तबके को बनाया।

मुट्ठी भर को छोड़ दें, तो भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के ज्यादातर नेता, जिन्होंने आजादी की लड़ाई का नेतृत्व किया, मध्यवर्ग से ही थे। इन कुछ प्रमुख नामों में नवरोजी, गोखले, लाजपत राय, तिलक, सीआर दास, राजेंद्र प्रसाद, पटेल, आजाद, राजगोपालाचारी, सरोजिनी नायडू, केलप्पन और पोट्टी श्रीरामुलु शामिल थे। डॉक्टर ताराचंद ने भारत में स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में लिखा है- 'देश के लोगों में राष्ट्रीय चेतना पैदा करने, राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन को संगठित करने और अंतत: विदेशी शासकों से मुक्ति दिलाने का श्रेय इस वर्ग को दिया जाना चाहिए।'

इन नेताओं के आह्वान पर लोग साथ आए। किसानों के संघर्ष और औद्योगिक कामगारों के संघर्ष को साथ लेकर स्वतंत्रता आंदोलन ने ऐसा रूप ले लिया था, जिसे रोका नहीं जा सकता था। मध्यवर्ग के इन नेताओं और इनके समर्थकों की खूबी यही थी कि इनमें कोई स्वार्थ नहीं था। उन्होंने अपने लिए कुछ नहीं मांगा, सिर्फ लोगों के लिए आजादी मांगी।

आजादी के लिए मध्यवर्ग के नेतृत्व वाले इस संघर्ष का गंभीर सरोकार देश में होने वाली हर घटना से संबंधित था। चंपारण सत्याग्रह, जलियांवाला बाग कत्लेआम, पूर्ण स्वराज प्रस्ताव, दांडी मार्च, भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी, भारत छोड़ो आंदोलन और नेताजी सुभाष चंद्र बोस के नेतृत्व वाली इंडियन नेशनल आर्मी की सफलता ने लोगों के भीतर जोश पैदा कर दिया था, उस ऊर्जा और नेतृत्व का शुक्रिया, जिसकी वजह से मध्यवर्ग ने आजादी का आंदोलन का खड़ा कर दिया था।

वह मध्यवर्ग आज मुख्य रूप से गायब है। ऐसा कुछ होता नहीं लगता, जो मध्यवर्ग को उनके अपने द्वारा थोपे गए एकांतवास से बाहर निकाले। लगातार बेहताशा बढ़ती कीमतें, दबाता कर-बोझ, भारी बेरोजगारी, वर्ष 2020 में हुआ लोगों का त्रासद पलायन, कोविड से हुई लाखों लोगों की मौत, मानवाधिकारों का खुल्लमखुल्ला हनन, नफरती भाषण, फर्जी खबरें, व्यवस्थागत तरीके से मुसलमानों और ईसाइयों का बहिष्कार, भयंकर रूप से संविधान का उल्लंघन, दमनकारी कानून, संस्थाओं को खत्म करने, चुनावी जनादेश को पलट देने, चीन के साथ सीमा विवाद- लगता है इनमें से कुछ भी मध्यवर्ग को विचलित नहीं कर रहा।

मैं हाल की कुछ घटनाओं का जिक्र करता हूं। नाना पटोले ने फरवरी 2021 में महाराष्ट्र विधानसभा के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया था। विधानसभा के नियमों के अनुसार अध्यक्ष का चुनाव गुप्त मतदान के जरिए होता है। चुनाव खुले मतदान से कराने के लिए विधानसभा ने इन नियमों को बदल दिया था।

उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री और भाजपा से जुड़े राज्यपाल, जिनका दायित्व सिर्फ नए अध्यक्ष के चुनाव के लिए तारीख तय करना था, उन्होंने इस आधार पर चुनाव रोक दिया कि नियमों में परिवर्तन को लेकर उठा विवाद अदालतों में है! उन्होंने सत्रह महीने चुनाव नहीं होने दिया और इस दौरान विधानसभा बिना अध्यक्ष के चलती रही! भाजपा की मदद से एकनाथ शिंदे ने सरकार गिरा दी और 30 जून, 2022 को मुख्यमंत्री बन गए।

नए विधानसभा अध्यक्ष के चुनाव के लिए उन्होंने राज्यपाल से तारीख तय करने का अनुरोध किया, राज्यपाल ने तुरंत यह कर दिया और चार जुलाई को खुले मतों से विधानसभा अध्यक्ष का चुनाव हो गया। नियमों में बदलाव को लेकर राज्यपाल की जो आपत्तियां थीं, वे रहस्यमय रूप से खत्म हो गईं! सिर्फ कुछ संपादकीयों को छोड़ दें, तो इसे लेकर सार्वजनिक रूप से कोई नाराजगी या हो-हल्ला मचाता नहीं दिखा।

स्पष्ट है कि महाराष्ट्र के लोगों, खासतौर से शिक्षित मध्यवर्ग को राज्यपाल के इस सवालिया व्यवहार या कि सत्रह महीने से विधानसभा अध्यक्ष पद खाली पड़े रहने या संविधान नाम की पुस्तक से कुल मिला कर कोई लेना-देना नहीं है। अमेरिका या ब्रिटेन में अगर ऐसा हुआ होता तो क्या आप अध्यक्ष के पद को लेकर सरोकार न होने की कल्पना कर सकते हैं?

यहां एक और उदाहरण है। जीएसटी परिषद की सैंतालीसवीं बैठक (जिसमें भाजपा का वर्चस्व था) में पैकेट बंद अनाज, मछली, शहद, गुड़, आटा, बिना जमा मांस-मछली, मुरमुरे आदि पर पांच फीसद जीएसटी लगा दिया गया। छपाई, लिखने और ड्राइंग बनाने की स्याही, चाकू, चम्मच, कांटेदार चम्मच, कागज कटाई का चाकू, पेंसिल शार्पनर और एलईडी बल्बों पर जीएसटी बारह से बढ़ा कर अठारह फीसद कर दिया गया।

एक हजार रुपए रोजाना किराए वाले होटल के कमरे पर बारह फीसद जीएसटी लगा दिया गया, जो अभी तक इससे मुक्त था। यह कर-बोझ तब डाला गया है जब थोक मूल्य सूचकांक आधारित मुद्रास्फीति 15.88 फीसद और उपभोक्ता मूल्य सूचकांक आधारित मुद्रास्फीति 7.04 फीसद है। रेजीडेंट वेलफेयर एसोसिएशन (आरडब्ल्यूए), लायंस क्लब, महिलाओं के समूह, उद्योग संगठन, व्यापारी संघ, उपभोक्ता संगठन आदि किसी को परवाह नहीं। मैं निश्चित रूप से कह सकता हूं कि कम ही लोगों को याद होगा कि महात्मा गांधी ने नमक सत्याग्रह क्यों शुरू किया था।

रोजाना सुबह रस्म की तरह अखबार पढ़ लेने, नेटफ्लिक्स से चिपक कर बैठ जाने और आइपीएल क्रिकेट से मनोरंजन करने वाले मध्यवर्ग ने अपने को स्वैच्छिक रूप से राष्ट्रीय चर्चा से अलग कर लिया है। किसानों ने लड़ाई लड़ी। सेना में जवान बनने की इच्छा रखने वाले संघर्ष कर रहे हैं। थोड़े से पत्रकार, वकील और कार्यकर्ता भी संघर्ष कर रहे हैं। मुझे हैरानी है कि मध्यवर्ग क्या यह महसूस कर रहा होगा कि इन लड़ाइयों के नतीजे इस देश का भविष्य तय करेंगे।


Next Story