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By: divyahimachal
हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय के प्रांगण में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू के आगमन तथा 26वें दीक्षांत समारोह के बहाने, शिक्षा की बात जुबां तक आई वरना अब तो केवल सियासी आंखों में ही ऐसे संस्थान बसते हैं। समारोह का आंखों देखा हाल बताता है कि छात्रों ने गौरव के कई क्षण और उपलब्धियों के कई खजाने सौंप कर प्रदेश के सबसे पुराने व अहम विश्वविद्यालय की आंखों में फिर से सुरमा डाला है। यही वजह है कि अति शिक्षित हिमाचल प्रदेश के आंकड़े देख कर देश की पहली नागरिक इस तथ्य को जानकर प्रफुल्लित हुईं कि उच्च शिक्षा में एक लाख छात्रों की तादाद की सत्तर फीसदी बेटियां, समाज के दर्पण को ऊंचा कर रही हैं। विश्वविद्यालय में 99 पीएचडी उपाधि प्राप्त छात्रों के नाम पर बजी तालियों में से 59 छात्राओं का योगदान, हर घर में बेटी का सम्मान है, तो 111 स्वर्ण पदकों का वितरण भी 77 बेटियों को आगे कर देता है। यह उपलब्धियों में उपलब्धि है कि शिक्षा के आधुनिक अवतरण में हिमाचल की बेटियां मीलों आगे हैं। स्कूल, कालेज से विश्वविद्यालय ही नहीं, बल्कि खेल के मैदान से सेना के अधिमान तक हिमाचल की बेटियां नित नए कीर्तिमान हासिल कर रही हैं। अभी दो दिन पहले ही जिस जिद्दत से पर्वतारोही बलजीत कौर ने बर्फ के पहाड़ से लड़ाई कर, खुद को बचाया वह पूरे विश्व के लिए प्रेरणादायक है। इसमें दो राय नहीं कि इस पर्वतीय राज्य ने पहाड़ पर शिक्षा का पहाड़ चढ़ा दिया, लेकिन बात सिर्फ डिग्री धारक बनने की नहीं, जीवन में सफलता के एहसास को जीतने की है।
शिमला विश्वविद्यालय के माध्यम से हिमाचल का शैक्षणिक इतिहास कभी डिग्रियों को ही स्वर्णिम बना देता था। हर विभाग के कक्ष में विचारों का तापमान जब तक उच्च रहा, तब तक शिक्षा के उस दौर ने कई नगीने पैदा किए, लेकिन अब छात्र जिज्ञासाओं के समुद्र से अध्ययन की परिपाटी अतृप्त क्यों है। क्यों एमबीए की डिग्री अब उस वातावरण को हार रही है, जो कभी सीधे देश की श्रेष्ठ यूनिवर्सिटियों के मुकाबले नाम कमाती थी। आए दिन शिमला विश्वविद्यालय अपने ही कारणों से ऐसी चिंताओं का घर बन गया, जहां प्रदेश भी अब कई विश्वविद्यालयों में विभक्त हो चुका है। छात्र राजनीति के कई सूरमा पैदा करके भी यह उच्च शिक्षा संस्थान आए दिन क्यों हिंसक उन्माद के नंगे नाच में फंस जाता है। बहरहाल हिमाचल में एक विवाद शिमला के बर अकस खड़े किए गए मंडी विश्वविद्यालय के औचित्य पर उठा है और जहां पूर्व मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने इसे बंद करने की आशंका प्रकट की है। आश्चर्य यह कि शिक्षा के तर्कों से परे राजनीतिक फैसलों की छांव में विश्वविद्यालयों की स्थापना भी अब एक खास तरह की सियासी जरूरत बना दी गई है। प्रदेश में कृषि, बागबानी, मेडिकल, तकनीकी, केंद्रीय व मंडी विश्वविद्यालयों की खेप में उपलब्धियां अगर डिग्रियां हैं, तो हम युवाओं का सही नेतृत्व नहीं कर रहे। किसी समय कृषि विश्वविद्यालय की जरूरत समझी गई होगी, लेकिन अगर हिमाचल में कुल दस गेहूं खरीद केंद्र स्थापित करके भी चार मंडियों में एक भी किसान गेहूं बेचने नहीं आता, तो कहीं संबंधी विश्वविद्यालय के औचित्य पर भी प्रश्र उठता है। जहां फलोत्पादक निजी नर्सरियों के भरोसे फल पौधों की खरीद पर भरोसा करते हों या किसान के लिए हर तरह के बीज शहर से आते हों, तो बागबानी तथा कृषि विश्वविद्यालयों की प्रासंगिकता का सवाल पैदा होता है। हिमाचल शिक्षा को विस्तृत और उच्च आयाम तक पहुंचाने के बजाय शिक्षण संस्थानों के कंगूरे खड़े कर रहा है।
स्वास्थ्य सेवाओं की दृष्टि से मेडिकल कालेजों की मिट्टी भले ही पलीद हो चुकी है, लेकिन दिल है कि एक अदद मेडिकल यूनिवर्सिटी बना कर भी मानता नहीं। तकनीकी विश्वविद्यालय को सजाने से पहले कितने इंजीनियरिंग कालेज मनहूस होकर मर गए, किसी के पास जवाब नहीं। ऐसे में फैकल्टी के नाम पर हुई विसंगतियों पर चर्चा के बजाय सियासत सिर्फ यह छाती पीट रही है कि हाय! मेरी यूनिवर्सिटी, हाय उसकी यूनिवर्सिटी। यूनिवर्सिटी जैसे संस्थान भी अगर क्षेत्रवाद की जद में हैं तो शिमला विश्वविद्यालय का इतिहास और गौरव यूं ही छीना जाएगा ताकि कहीं अन्यत्र खुला विश्वविद्यालय पुचकारा जा सके। राज्य के पहले विश्वविद्यालय के प्रति सरकार को गंभीरता से इसकी श्रेष्ठ दमक को बरकरार रखने के उपाय सोचने होंगे।
Rani Sahu
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