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By: divyahimachal
पुन: कुल्लू घाटी और आसमान से बिगड़े बादलों का खेल तहस-नहस कर गया, जहां जीने की उम्मीदें पलकों पे सवार थीं, वहां आशियाना लुट गया। गड़सा में बादल फटने का कहर हर तरह की संपत्ति पर नहीं बरपा, बल्कि अमन-चैन के वातावरण को भी आहत कर गया। फिर यहीं कहीं बादलों ने दो पुल लील दिए और लील दिए दो दर्जन घरौंदे। वे तमाम खिड़कियां बंद हो गईं, जहां से आती थी भविष्य की उम्मीदें। प्रदेश में अब तक करीब दो दर्जन पुल बह गए हैं, जबकि हर तरह की सडक़ों को कुरेद गई है बारिश। करीब छह दर्जन पुल बरसाती घावों के कारण यातायात के काबिल ही नहीं रहे। इस तरह अगर हिमाचल का मूल्यांकन करें, तो सामान्य स्थिति के विपरीत हम आपातकालीन स्थिति से गुजर रहे हैं। दरअसल आपदा प्रबंधन की तमाम तैयारियों के बीच हिमाचल राष्ट्रीय प्राथमिकताओं में हार रहा है। आश्चर्य यह कि पड़ोसी राज्यों के प्रशासन को हिमाचल के बड़े बांधों से शिकायत है, लेकिन बारिश में बहते पर्वतीय प्रदेश के बारे में देश ने आज तक कुछ हटकर नहीं किया। बारिश के तमाम कारणों का दोषी केवल पहाड़ नहीं, बल्कि राष्ट्रीय योजनाओं, बजटीय प्रावधानों, वित्तीय आबंटन के तौर तरीकों, शोध-अनुसंधान व तकनीक की कमी तथा पर्यावरणीय चिंताओं व जलवायु परिवर्तन के समाधानों में पर्वतीय राज्यों को बराबरी का दर्जा न देना, इस दिशा में पर्वतीय सुरक्षा को कमजोर करता है।
आपदा प्रबंधन का राष्ट्रीय एजेंडा जिस बरसात, पानी, तूफान या अन्य चुनौतियों से जूझ रहा है, उससे कहीं भिन्न पर्वत के अपने अस्तित्व का संघर्ष है। यह प्रक्रिया समुद्र तटीय क्षेत्रों को समझने, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हवाओं या हवा की आद्र्रता-रुखेपन को जानने तथा अलग-अलग भौगोलिक परिस्थितियों एवं विक्षोभ को समझने की है। आपदा से बाहर निकलने के लिए हिमाचल ऐड़ी-चोटी का प्रयास करता रहा है और राहत एवं बचाव के कार्य इस बार भी बड़ी शिद्दत तथा सफलता के साथ चल रहे हैं, लेकिन मौसम के साथ जीने का हुनर ताकीद कर रहा है कि ऐसे अप्रत्याशित नुक्सान से बचने के लिए क्षेत्रों के आधार पर भेद्यता का विश्लेषण होना चाहिए। इसके लिए समाज की भूमिका, ग्रामीण एवं शहरी योजना में सुधार, आधुनिक जीवन शैली के दबाव कम करने के उपायों के अलावा निर्माण की आचार संहिता तय करनी होगी। इतना ही नहीं, कृषि प्रौद्योगिकी, आधुनिक उपकरणों का प्रयोग तथा जंगल को फिर से परिभाषित करने की जरूरत है। हमारा विकास कहीं तो भौगोलिक अवरोध पैदा कर रहा है। ऐसे में हर विभाग में भविष्य की चुनौतियों के समाधान के आंकड़ों का खुराफाती खेल भी समझना होगा। खास तौर पर विकास की दौड़ में बहुत कुछ नजरअंदाज हो रहा है। यह सडक़ व सरकारी भवन निर्माण से शुरू होकर निजी तौर पर इमारतों व व्यावसायिक परिसरों के निर्माण तक चिंता का विषय है।
आश्चर्य यह कि हमारी विकास योजनाएं ज्यादातर वनापत्तियों से निजात पाने में ही समय गुजार देती हैं, जबकि निर्माण के लक्ष्य आगे चलकर घातक सिद्ध होते हैं। आवश्यक भूमि की कमी ने विकास को रेत का टीला बना दिया, यानी जहां और जैसी जमीन भी उपलब्ध हो, निर्माण शुरू हो जाता है। न शहरी विकास योजना का कोई अर्थ और न ही ग्रामीण विकास में नियोजन की जरूरत समझी गई। हैरानी तो यह कि सरकारी इमारतें भी निर्माण की आचार संहिता निर्धारित नहीं कर पाईं। प्रदेश की प्राथमिकताओं में आवासीय बस्तियों को ही अगर मांग के आधार पर सही ढंग से बसाया होता तो निर्माण की आवारगी में हादसे न होते। हिमाचल में जलवायु, पर्यावरण, बारिश, पानी और बर्फबारी के बदलते तेवरों को समझते हुए एक ओर नवनिर्माण की आचार संहिता व टीसीपी कानून का दायरा बढ़ाते हुए सशक्त करना पड़ेगा, जबकि दूसरी ओर पहाड़ों से जल प्रवाह को प्रलय के सुपुर्द करने से रोकना होगा। नदियों, नालों व खड्डों पर राज्यस्तरीय सर्वेक्षण से खनन के वैज्ञानिक आधार की अवहेलना तथा जल निकासी की स्थिति का पता लगाना चाहिए और साथ ही साथ नालों, खड्डों व नदियों के चैनलाइजेशन की राष्ट्रीय नीति बननी चाहिए। लौटकर प्राकृतिक जल स्रोतों, जल निकासी के पारंपरिक रास्तों और भौगोलिक रूप से जल आबंटन को वर्ष भर कार्यशील बनाना पड़ेगा, वरना हर शहर और हर गांव का कोई न कोई नाला या खड्ड गाद व कूड़े-कर्कट से भरकर भटकने को तैयार है।

Rani Sahu
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