सम्पादकीय

आखिर कहां तक जाएगा आंदोलन

Rani Sahu
27 Sep 2021 6:30 PM GMT
आखिर कहां तक जाएगा आंदोलन
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नौ महीने से दिल्ली में चल रहे किसान आंदोलन का दायरा देशव्यापी होता जा रहा है

सूर्यकांत द्विवेदी। नौ महीने से दिल्ली में चल रहे किसान आंदोलन का दायरा देशव्यापी होता जा रहा है। तीन कृषि कानूनों के खिलाफ आंदोलित संयुक्त किसान मोर्चा ने भारत बंद करके अपने आक्रोश की आग को और हवा दे दी है। कभी डंकल कानून के खिलाफ भी देश भर का किसान एकजुट हुआ था, लेकिन तब भारत बंद का बहुत अधिक असर नहीं हुआ था। सोमवार के भारत बंद से पहले 26 मार्च को भी किसान संयुक्त मोर्चा ने बंद का आह्वान किया था, लेकिन इसका असर दिल्ली, पंजाब, हरियाणा तक सीमित था। 18 फरवरी को रेल रोको आंदोलन हुआ था, जो लगभग सफल रहा था, लेकिन सोमवार के भारत बंद से ऐसा लगता है कि कृषि कानूनों के खिलाफ बंद ने दिल्ली, पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार से कर्नाटक और केरल तक पैठ जमा ली है। किसान आंदोलनों के इतिहास में यह सबसे बड़ा आंदोलन साबित हो रहा है। वर्तमान आंदोलन के दौरान अब तक पांच बार चक्का जाम, तीन दर्जन से अधिक महापंचायतें हो चुकी हैं। सड़कों पर किसान हैं और आम लोग परेशान हैं। रोजाना मोटा आर्थिक नुकसान हो रहा है। सबसे ज्यादा असर मंडियों की अर्थव्यवस्था पर पड़ा है।

कृषि कानूनों पर कई बार सरकार से किसानों की असफल बात हो चुकी है। पहली बार देश भर के 42 किसान संगठन एक मंच पर आकर सरकार पर कानून वापस लेने का दबाव डाल रहे हैं। सरकार की भी अपनी दिक्कत है। किसी भी कानून में संशोधन तो हो सकते हैं, लेकिन वापस लेना भविष्य के संकट को न्योता देना है। हर कोई कानून वापस करने की मांग करने लगेगा। इस आंदोलन को सियासी चश्मे से देखने वाले भी कम नहीं हैं, लेकिन सियासत के पास भी समाधान नजर नहीं आ रहा है। एनडीए विरोधी घटक भी समाधान का रास्ता नहीं बता पा रहे हैं। यूं किसान आंदोलनों का इतिहास पुराना है। पर पहले के अधिकांश आंदोलन बड़ी जोत वाले किसानों के थे। हालिया आंदोलन भी बड़ी जोत वालों का अवश्य है, लेकिन किसान संगठन अपनी बात गांव-गांव पहुंचाने में कामयाब दिखते हैं, इसलिए आंदोलन का विस्तार दूसरे राज्यों तक होता जा रहा है।
क्या हम वाकई इस आंदोलन के समाधान के बारे में सोच रहे हैं? कुछ पिछले संदर्भ भी लेते हैं। टिकैत बंधुओं के पिता महेंद्र सिंह टिकैत खांटी किसान नेता थे। वह एक बात सभी मंचों से कहते थे,...सरकार को क्या हक कि हमारी फसलों का दाम तय करे। करना ही है, तो महंगाई दर से तय करो। टिकैत ने दिल्ली में किसान एकता मंच बनाकर इस लड़ाई को तेज करने की पहल भी की। सभी फसलों से जुड़े आंदोलनकारी किसान नेताओं को एक मंच पर लाए, जैसे आलू, प्याज, सरसों, गन्ना। यानी जिस राज्य में जो फसल प्रमुख है, उसके नेता इस मंच पर थे। दुर्भाग्यवश, शरद जोशी और महेंद्र सिंह टिकैत में बिखराव हो गया।
चौधरी चरण सिंह ने किसान आंदोलन नहीं किए, लेकिन वह भी इस बात के पक्षधर थे कि बाजार मूल्य से फसलों के दाम तय होने चाहिए। किसानों की पुरजोर मांग पर रफी अहमद किदवई ने फॉर्मूला तैयार किया था, जिसको रफी अहमद किदवई फॉर्मूले नाम से जाना जाता है, मतलब जो चीनी का रेट हो, उसी अनुपात में गन्ने का भाव तय कर दिया जाए। यही फॉर्मूला अन्य फसलों पर भी लागू हो, लेकिन आज तक यह फॉर्मूला लागू नहीं हुआ। वर्तमान में चीनी भाव 3,800 रुपये प्रति क्विंटल के आसपास है, जबकि गन्ने का भाव प्रति क्विंटल 400 रुपये के पार भी नहीं गया है। किसानों को गन्ने से बहुत लाभ नहीं मिल रहा है, राजनीतिक पार्टियों को सियासी लाभ भले हो रहा हो। ब्राजील में भी गन्ना प्रमुख फसल है। ब्राजील ने गन्ने के अन्य उत्पादों पर ध्यान दिया है। वहां गन्ने के सवा सौ से भी ज्यादा प्रत्युत्पाद हैं, जो उसकी अर्थव्यवस्था की रीढ़ माने जा सकते हैं, जैसे शराब, कागज और पेट्रोल।
लंबा खिंचते जा रहे किसान आंदोलन को समझने के लिए कृषि और विकास के रिश्ते को भी समझना जरूरी है। दसवीं कृषि गणना के मुताबिक, कृषि जोत घट रही है। बड़ी जोत कम हो रही है, छोटी जोत की संख्या बढ़ रही है। छोटी जोत 85 फीसदी, जबकि बड़ी जोत 0.57 प्रतिशत तक रह गई है, इससे किसान समाज और गांवों में तनाव बढ़ रहा है।
आज किसानों के मुद्दों पर एक व्यापक आर्थिक नीति की आवश्यकता है। देश में जिस तेजी से विकास बढ़ा है, हमने इसके पीछे की चुनौतियों और संकटों को ठीक से नहीं समझा है। किसी वक्त जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) में कृषि क्षेत्र की भागीदारी 55 फीसदी थी, जो अब घटकर 20.2 फीसदी रह गई है। यानी जैसे-जैसे विकास ने रफ्तार पकड़ी, खेत पीछे होते चले गए। फिर भी बड़ी संख्या में किसान हार नहीं मान रहे हैं। गौर करने की बात है, किसान आंदोलन और कोरोना के बावजूद देश में रिकॉर्ड 30.54 करोड़ टन खाद्यान्न का उत्पादन हुआ है। कृषि उत्पादों के निर्यात में 16.88 फीसदी, जबकि कृषि प्रसंस्करणों के निर्यात में 25.5 फीसदी वृद्धि हुई। कृषि विकास दर 3.4 रही है। अब आशा की जा रही है कि 2023-24 में जीडीपी में सात फीसदी की वृद्धि होगी, जिसमें कृषि का योगदान अधिक होगा। कोई भी अर्थव्यवस्था मांग और आपूर्ति के नियम से चलती है। भारत की अर्थव्यवस्था 70 फीसदी तक कृषि से प्रत्यक्ष या परोक्ष जुड़ी है। किसी भी बाजार के प्रतिदिन के टर्न ओवर में खाद्यान्न का योगदान 65 फीसदी से अधिक होता है। आज किसानों का तर्क है कि जिस तेजी से पेट्रोल-डीजल सहित सभी चीजों पर महंगाई हो रही है, उसका असर खेती पर भी पड़ा है, अत: फसलों के दाम भी बाजार मूल्य पर तय हों। अब सवाल उठता है कि सबसे बड़े किसान आंदोलन का समाधान क्या हो? सत्तारूढ़ पक्ष की दलील है कि ये कानून नहीं, बल्कि विकल्प हैं। ऐसे में, एक रास्ता तो न्यूनतम समर्थन मूल्य का नजर आता है। किसानों का तर्क है कि एमएसपी पर गारंटी देने वाला कानून बन जाए, तो बात बन सकती है। खाद्यान्न से प्रत्युत्पाद बनाने वाली कंपनियों (बिस्कुट आदि) को छूट न दी जाए। उनके लिए एमएसपी पर खरीद अनिवार्य कर दी जाए, ताकि पचास फीसदी खाद्यान्न एमएसपी पर बिके और किसानों को लाभ हो। उम्मीद की जानी चाहिए कि वर्तमान किसान आंदोलन का कोई न कोई समाधान अवश्य निकलेगा। अब देर की गुंजाइश नहीं है।


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