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By: divyahimachal
लगातार तीन दिनों तक हिमाचल के मुख्यमंत्री सुखविंदर सुक्खू ने भारी बरसात से प्रभावित इलाकों में शिविर लगाया, तो राहत के पैमाने बदल गए। यानी बाढ़ व अत्यधिक बारिश की स्थिति में फंसे हिमाचल की जनता के नासूर दिखाई दिए और हजारों लोगों को बरसात की फांस से सुरक्षित निकाला गया। कुल्लू-मनाली से चंद्रताल झील या पार्वती वैली में फंसे पर्यटक अगर सुरक्षित अपने घरों को रवाना हो पाए, तो यह सरकार का शिमला के बाहर मौके पर मौजूद रहने का स्पर्श है। ऐसे में सवाल यह कि राजधानी शिमला के राजनीतिक-प्रशासनिक गलियारे क्यों नहीं राजस्तरीय दृष्टि को मजबूत होने देते। हालांकि सच यह है कि विभिन्न विभागों ने शिमला में बैठे-बैठे जरूर सोचा होगा कि मानसून के चक्र में प्रदेश की रखवाली कैसे की जाए, लेकिन हिमाचल का चक्कर किसी ने नहीं लगाया। राजधानी को फुर्सत नहीं कि प्रदेश के कोने-कोने को देखा जाए। ऐसे में मुख्यमंत्री का आपदाग्रस्त क्षेत्रों में होना साबित करता है कि मौके की तासीर में फैसले कितने चुस्त दुरुस्त व सच्चे होते हैं। दरअसल हिमाचल के भीतर कई-कई हिमाचल दौडऩे लगे हैं, लेकिन राजधानी की अकड़ में प्रशासनिक पकड़ का फासला दिखाई देता है। एक दौर शुरू हुआ था जब प्रशासनिक विकेंद्रीकरण की राह पर कुछ क्षेत्रीय दफ्तरों की पौध उगी, लेकिन अब ये अप्रासंगिक व निहत्थे कबूतर हैं, जो सिर्फ अधिकारियों को पदोन्नत होने का अवसर देते हैं। जरूरत तो आज भी यही है कि शिमला से भरमौर और सिरमौर एक सरीखा लगे या चनौर से किन्नौर तक हिमाचल एक जैसा सोचे। यह असंभव है कि राजधानी की दमक में फाइलों के हस्ताक्षर महंगे और लंबे होते रहें। हिमाचल में सुशासन की पद्धति आज भी सचिवालय की बाबूगिरी के तहत नौकरशाही की आबरू में चलती है। हिमाचल की फाइलों का रिकार्डरूम भले ही राजधानी की ताजपोशी करे, लेकिन जब क्षेत्रीय अस्मिता के प्रश्र उभरते हैं, तो बर्फबारी, बाढ़ या अन्य आपदा के समय दर्द बढ़ जाता है।
उदाहरण के लिए हिमाचल का शिक्षा विभाग वार्षिक स्कूली अवकाश को लेकर प्रदेश के इतने टुकड़े कर देता है कि इसे खुद मालूम नहीं होता कि कब बारिश और कब बर्फबारी होगी। बागबानी विभाग सेब के कूलिंग आवर्स गिनते-गिनते भूल जाता कि बिलासपुर-हमीरपुर के बूटों पर आम क्यों नहीं लगे या क्यों कांगड़ा का किन्नू टहनियों पर सूख गया। शिमला हिमाचल के औद्योगिक विकास को परवाणू व बीबीएन के बीच समेट कर देखता है, तो राजधानी से करीब होने की वजह से सारी ट्रैफिक प्लानिंग वहीं के ट्रैफिक जाम में उलझी रह जाती। हिमाचल की बरसात को जानने के लिए हर नदी, खड्ड या नाले के दर्द को समझना होगा। जख्म अगर बार-बार ऊना के डूबने के हैं, तो पिछले साल मांझी के उग्र रूप में बहे तटों का भी है। किसे याद होगा कि धर्मपुर का बस स्टैंड अब बरसात में डूबने की कहानी है। शिमला में बैठक करके परिवहन विभाग नीति तो बना सकता है, लेकिन सार्वजनिक परिवहन की टूटती श्रृंखला को नहीं देख सकता। आती होंगी नई बसें और हरी झंडी भी दी जाती होगी, लेकिन हर दिन सरकारी बसों की टूटी यात्राओं का वर्णन तो शिमला नहीं देगा। कौन बताएगा कि वर्षों पुरानी वोल्वो बस इस बरसात में कहां-कहां टपकी। कौन दिखाएगा कि हरिद्वार जाने वाली वोल्वो का टिकट अब सामान्य बस की यात्रा में पूरा हो जाएगा। जाहिर है सियासत और सुशासन में अंतर है। सियासत के लिए राजधानी शिमला स्वर्ग हो सकती है, लेकिन सुशासन के लिए दुरुह क्षेत्रों को नरक होने से बचाना होगा। क्या शिमला में बैठकर यह पता चल जाएगा कि इस मौसम में कितने बर्र (भूंड) मक्की के खेत से सीधे उडक़र लोगों पर प्रहार करते हैं। बरसात के दौरान ही सैकड़ों सांप निकल कर लोगों को डसते होंगे। बरसात में धान की खेती में नारी के पांव को कितने विषैले जीवों से खतरा रहता है। ऐसे में बहुत दूरियां हैं शिमला की सोच में आज भी हिमाचल को परखने के लिए। बेहतर होगा तमाम क्षेत्रीय कार्यालयों को जीवंत करें ताकि पूरे हिमाचल की नब्ज से सुशासन का पता चले।
Rani Sahu
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