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सभी पदार्थों के अणु में चुम्बकीय क्षेत्र होता है, लेकिन
पंकज त्रिपाठी। सभी पदार्थों के अणु में चुम्बकीय क्षेत्र होता है, लेकिन उनका चुम्बकीय क्षेत्र अलग-अलग दिशाओं में पाया जाता है, जबकि चुम्बक में मौजूद सभी चुम्बकीय क्षेत्र एक ही दिशा में संरचित हो जाते हैं. इसी वजह से चुम्बक का चुंबकीय क्षेत्र यानि आसपास की चीज़ों को अपनी ओर आकर्षित करके साथ जोड़ लेने वाली ताक़त बहुत तीव्र हो जाती है. जब सभी पदार्थों का चुम्बकीय क्षेत्र एक दिशा में आकर एक हो जाता है, तब और ज़्यादा शक्तिशाली मैग्नेटिक फील्ड पैदा होता है. समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष और यूपी के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के आसपास आजकल कुछ ऐसा ही चुम्बकीय क्षेत्र तैयार हो रहा है.
क्योंकि छोटे-छोटे दल या उत्तर प्रदेश में अपना सियासी वजूद बनाने की तैयारी करने वाली पार्टियां, राजनीतिक वर्चस्व को दोबारा हासिल करने वाले दल और चुनावी वजूद को बरक़रार रखने वाले नेता अखिलेश यादव के साथ मुलाक़ातें कर रहे हैं, समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन कर रहे हैं. SBSP के ओमप्रकाश राजभर, RLD के जयंत चौधरी, AAP की ओर से संजय सिंह और जनवादी पार्टी के संजय चौहान (जौनपुर, ग़ाज़ीपुर और मऊ में नोनिया चौहान वोटबैंक) अखिलेश यादव से हाथ मिलाकर BJP के ख़िलाफ़ चुनावी चक्रव्यूह रचने में जुट गए हैं. लेकिन, सवाल ये है कि इन सभी मुलाक़ातों को जब चुनावी कसौटी पर रखकर देखेंगे, तो ये वजह साफ हो जाएगी कि आख़िर अखिलेश ही BJP के ख़िलाफ़ सबसे बड़ी धुरी क्यों हैं, मायावती क्यों नहीं.
राजभर और अखिलेश का राजनीतिक समीकरण
उत्तर प्रदेश में 2022 के विधानसभा चुनाव के लिए सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के ओम प्रकाश राजभर ने समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन कर लिया है. इसका ऐलान 27 अक्टूबर को पार्टी के 19वें स्थापना दिवस के मौके पर किया गया. पूर्वांचल के मऊ में एक रैली में SP प्रमुख अखिलेश यादव की मौजूदगी में इस गठबंधन पर मुहर लगी. दरअसल, सपा-सुभासपा के बीच गठबंधन का राजनीतिक दायरा बहुत बड़ा नहीं है. अनुमानित तौर पर पूर्वांचल के क़रीब 18 ज़िलों में राजभर बिरादरी क़रीब 3 फीसदी है. हालांकि छोटा अनुपात होने के बावजूद पूर्वांचल में इस समुदाय का राजनीतिक असर ठीक-ठाक है. या यूं कहें कि किसी की जीत-हार में इनकी भूमिका बहुत अहम है.
पूर्वांचल में कई सीटें ऐसी भी हैं, जहां राजभर समाज का वोट ख़ासा प्रभावशाली है. ऐसे में अखिलेश यादव चाहते हैं कि SBSP का पूरा जातिगत गणित वाला वोटबैंक उन्हें मिले और नतीजों में उनकी सीटें बढ़ें. राजभर समाज के लोग वाराणसी, गाजीपुर, मऊ, बलिया, आजमगढ़, जौनपुर, देवरिया, गोरखपुर, बस्ती, गोंडा, सिद्धार्थ नगर, संत कबीर नगर, महाराजगंज, मिर्जापुर, अयोध्या, श्रावस्ती, बहराइच, कुशीनगर और सुल्तानपुर में रहते हैं.
2017 में BJP के साथ थे ओपी राजभर
अखिलेश यादव की नज़र इस बार राजभर समुदाय तक ही सीमित नहीं है, क्योंकि वो जानते हैं कि इस समाज के लोगों का प्रभाव चौहान, पाल, प्रजापति, विश्वकर्मा, भर और मल्लाह जैसे अन्य सबसे पिछड़े वर्गों तक भी फैला है. पूर्वांचल के 18 जिलों की 90 सीटों में से लगभग 25-30 सीटें ऐसी हैं, जहां राजभर समुदाय की संख्या ज़्यादा है. इनमें से कुछ सीटों पर इनकी संख्या एक लाख तक है. यानि राजभर जिसे चाहें उसे चुनाव जिताने की ताक़त रखते हैं. राजभर लोगों के इसी प्रभाव के चलते 2017 में BJP को इसका फायदा मिला था.
बता दें कि ओम प्रकाश राजभर 2017 विधानसभा चुनाव में BJP के साथ गठबंधन में थे. इसका फायदा भी BJP को मिला. 2017 में BJP और उसके सहयोगी दलों ने 403 सीटों में से 325 पर जीत दर्ज की थी. अगर राजभर की SBSP की बात करें, तो उसने 8 सीटों पर चुनाव लड़ा और 4 सीटें जीती. अखिलेश जानते हैं कि पूर्वांचल में उनकी पार्टी की स्थिति विधानसभा के लिहाज़ से मज़बूत है, इसलिए राजभर वोटबैंक का साथ मिल जाए और 4-6 सीटें और मिल जाएं तो उनकी आगे की लड़ाई में राजभर बड़ा हथियार साबित हो सकते हैं.
कितने कारगर होंगे ओपी राजभर?
BJP सरकार में पूर्व मंत्री रहे और SBSP के अध्यक्ष ओमप्रकाश राजभर ने पहले BJP के साथ गठबंधन की पुरज़ोर कोशिश की, लेकिन बात नहीं बनी तो उन्होंने समाजवादी पार्टी का दामन थाम लिया. अब उनका टारगेट अपनी जीत से ज़्यादा BJP की हार है. इस रेस में वो ख़ुद को सबसे आगे दिखाना चाहते हैं, इसलिए तमाम बार ऐसे-ऐसे मुद्दों पर बेबाक़ बयान दे देते हैं, जो बतौर गठबंधन साथी समाजवादी पार्टी की चुनावी सेहत के लिए नुकसानदेह साबित हो सकते हैं.
अखिलेश यादव और ओम प्रकाश राजभर एक साथ मंच साझा करते हुए. (फाइल फोटो)
ख़ैर, BSP भी भीम राजभर को यूपी का प्रदेश अध्यक्ष बनाकर पूर्वांचल में अपना गणित दुरुस्त करने की कोशिश कर रही है. हालांकि, ये कहना जल्दबाज़ी होगा कि ओमप्रकाश राजभर अपने जातिगत वोटबैंक पर पूरा असर रखते हैं. क्योंकि, BJP ने SBSP के साथ गठबंधन में रहते हुए इस बिरादरी के वोटबैंक पर अपनी संगठनात्मक पकड़ और पहुंच मज़बूत करने का काम काफ़ी पहले ही शुरू कर दिया था. फिर भी राजभर समुदाय ने अपनी चुम्बकीय ताक़त को एक ही दिशा में केंद्रित करने के लिए अखिलेश के साथ गठबंधन किया है. ताकि यादव और राजभर समेत बाक़ी पिछड़ी जातियों के संगम से चुनावी वैतरणी को पार करने में आसानी हो.
क्योंकि, पूर्वांचल में वाराणसी, जौनपुर, चंदौली, गाजीपुर, आजमगढ़, देवरिया, बलिया और मऊ में राजभर समाज के लोग लगभग 20 फीसदी तक हैं, जबकि गोरखपुर, अयोध्या, अंबेडकर नगर, बहराइच, श्रावस्ती, बस्ती, सिद्धार्थ नगर, संतकबीरनगर, महराजगंज, कुशीनगर में भी 10 फीसदी तक हैं. BJP के लिए पूर्वांचल में राजभर बहुल सीटों का रास्ता SBSP के साथ से आसान हो जाता, लेकिन अब वो अखिलेश यादव के साथ हैं, जिससे BJP की चुनौतियां दोगुनी हो सकती है.
जयंत चौधरी से गठबंधन के मायने
2017 में 277 सीटों पर लड़कर सिर्फ़ 1 सीट जीतने वाली RLD पहली बार बिना अजीत चौधरी के विधानसभा चुनाव लड़ेगी. यूपी चुनाव 2022 के लिए लखनऊ में अखिलेश के घर पर जाकर जयंत चौधरी ने उनसे मुलाक़ात की. पिछले विधानसभा चुनाव में राहुल गांधी के साथ सियासी जोड़ी बनी और नारा दिया 'UP के लड़के'. कांग्रेस को 7 सीटें मिलीं और समाजवादी पार्टी को 47 सीटें. नुक़सान इतना बड़ा हुआ, जिसका अंदाज़ा किसी को नहीं था. 'UP के लड़के' अलग हो गए. 2022 के लिए UP के लड़कों की नई जोड़ी बनी है. जयंत चौधरी अपने राजनीतिक वजूद की कसौटी पर हैं, क्योंकि उन्हें RLD को बचाना है. उसके लिए उन्हें अखिलेश ही सबसे ज़्यादा सूट करते हैं, क्योंकि BJP 385 या 390 सीटों पर लड़ने का मन बना रही है, यानि किसी भी सहयोगी क्षेत्रीय दल को ज़्यादा सीटें नहीं देगी.
वहीं, जयंत चौधरी ने भी इस बार ख़ुद को अपने वोटबैंक वाली सीटों पर समेट लिया है, लेकिन वो जितनी सीटें मांग रहे हैं, वो डील सिर्फ़ समाजवादी पार्टी के साथ ही फ़ाइनल हो सकती है. फिर भी अब तक कुछ भी फ़ाइनल नहीं हुआ है. इतना ज़रूर है कि दोनों ने दो तस्वीरों के ज़रिए संकेतों और संदेशों की सियासत को ज़रिया बनाया. जयंत ने अखिलेश से मिलने के बाद ट्विटर पर फोटो अपलोड करके लिखा 'बढ़ते कदम'. कुछ देर बाद अखिलेश ने भी जयंत से हाथ मिलाने वाली तस्वीर पोस्ट की और लिखा, 'जयंत चौधरी के साथ बदलाव की ओर'.
पश्चिमी UP की 36 सीटों पर क्या गणित बैठेगा?
ख़बर है कि पश्चिमी यूपी की 36 सीटों पर चुनाव लड़ने की इच्छा रखने वाली RLD को 30 सीटें मिल सकती हैं, जबकि 6 सीटों पर RLD और SP एक दूसरे के सिंबल पर अपने उम्मीदवारों को चुनाव लड़वा सकती हैं. यानि जहां RLD मज़बूत है वहां SP उसे सिंबल और समर्थन देगी और जहां समाजवादी पार्टी का प्रत्याशी मज़बूत स्थिति में होगा, वहां जयंत चौधरी की पार्टी का समर्थन तथा सिंबल मिलेगा. मसलन मुजफ्फरनगर, शामली, सहारनपुर, मेरठ, बुलंदशहर, बिजनौर, मथुरा आदि जिलों में समाजवादी पार्टी अपने ज्यादा से ज्यादा उम्मीदवार लड़ाना चाहती है. हालांकि, RLD को पिछले विधानसभा चुनाव में 1.78 फीसदी वोट मिले थे, इसलिए वो सीटों की सौदेबाज़ी को लेकर अखिलेश यादव पर ज़्यादा दबाव नहीं डाल पाएंगे.
वहीं, समाजवादी पार्टी को 21.82 फीसदी वोट मिले थे, जो BSP के 22.23 फीसदी से दशमलव 41 फीसदी कम हैं. यानि अखिलेश यादव के लिए एक-एक फ़ीसदी वोट वाले नेता, पार्टी और वोटबैंक सब अहम हो जाते हैं. क्योंकि, BSP भी अपने राजनीतिक वजूद की लड़ाई लड़ रही है. इस बार OBC और दलित वोटों का संगम नहीं हो सका, तो मायावती का वोटबैंक सिर्फ़ वोटकटवा की श्रेणी में आ सकता है.
AAP को भी चाहिए अखिलेश का साथ
'बिजली हाफ़, पानी माफ़' का नारा देकर दो-दो बार दिल्ली में सरकार बनाने वाली आम आदमी पार्टी ने यूपी में एक बार फिर सियासी ज़मीन तलाशने की कोशिश की है. 2014 में वाराणसी से प्रधानमंत्री मोदी (5,80,000 वोट) के ख़िलाफ़ दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल (2,07,000 वोट) बुरी तरह हार गए थे. यूपी की हार से सबक लेने के बाद उन्होंने कसम खाई थी कि दिल्ली छोड़कर कहीं नहीं जाएंगे. 2017 और 2019 के चुनाव में AAP ने चुनाव के बजाय अपना संगठन तैयार करने की कोशिश की. अब एक बार फिर केजरीवाल की पार्टी ने ताल ठोक दी है.
लेकिन, इस बार वो अकेले नहीं बल्कि अखिलेश यादव के साथ जुड़ना चाहते हैं. संजय सिंह ने अखिलेश के घर जाकर उनसे मुलाक़ात की. उसके बाद अखिलेश यादव ने ट्विटर पर तस्वीर शेयर करते हुए लिखा- 'एक मुलाक़ात बदलाव के लिए'. दरअसल, आम आदमी पार्टी सोशल कैम्पेन में माहिर है, लेकिन ज़मीन पर उसके पास मज़बूत संगठन और वोटबैंक नहीं है. पार्टी के पास कोई बड़ा चेहरा नहीं है, जो यूपी में अपने दम पर कुछ सीटों पर प्रभाव डाल सके. इसलिए, अलग-अलग लड़कर हारने से बेहतर है कि गठबंधन में शामिल होकर असरदार तरीके से लड़ाई लड़ने के मूलमंत्र पर AAP के नेता काम कर रहे हैं. इससे AAP को ज़्यादा फ़ायदा हो या ना हो लेकिन अखिलेश को होने वाला संभावित नुक़सान कम हो जाएगा.
कृष्णा पटेल भी आईं अखिलेश के साथ
अपना दल (K गुट) की कृष्णा पटेल ने भी अखिलेश के साथ गठबंधन कर लिया है. हालांकि, उनकी पार्टी के पास एक भी विधायक नहीं है और उनका परंपरागत वोटबैंक वही है, जो उनकी बेटी और अपना दल (S) की अध्यक्ष अनुप्रिया पटेल का है, यानि कुर्मी वोटबैंक. लेकिन, कृष्णा पटेल अपनी बेटी के वोटबैंक में कितनी सेंध लगा पाएंगी, ये तो चुनावी नतीजे ही बताएंगे. फिर भी कृष्णा पटेल अपना राजनीतिक दमखम बरक़रार रखने के लिए समाजवादी पार्टी के साथ आ गई हैं.
अपने वोट प्रतिशत से विपक्ष की धुरी बने अखिलेश
समाजवादी पार्टी को भले ही 2017 के चुनाव में 47 सीटें मिली थीं, लेकिन वोट 21.82 फिसदी मिले थे. जबकि BJP को 39.67 फिसदी वोट मिले थे. पिछली बार BJP से क़रीब 18 फीसदी वोट पीछे चल रही समाजवादी पार्टी और अखिलेश इसलिए, कई छोटे दलों के साथ गठबंधन कर रहे हैं, क्योंकि अगर 5-7 दल मिलकर 5-6 फीसदी वोट का खेल कर सके, तो समाजवादी पार्टी पूरे यूपी में बड़ा गेम कर सकती है. वहीं, विपक्ष के तौर पर समाजवादी पार्टी ना केवल नंबर दो की पोज़िशन पर है, बल्कि विजय संकल्प रथयात्रा से लेकर BJP को हर मोर्चे पर घेरने में उनकी पार्टी सोशल मीडिया से लेकर सड़क तक सक्रिय है.
अखिलेश का सपना है कि '22 में साइकिल' की सत्ता में वापसी हो, लेकिन ये तभी मुमकिन हो सकेगा जब समाजवादी पार्टी के साथ जितने भी दल गठबंधन कर रहे हैं, वो सब अपने दम पर कुछ ना कुछ सीटें और वोट बैंक लाएं. अखिलेश ने 1 जुलाई को अपने जन्मदिन पर कहा था, वो बड़े दलों के बजाय छोटे-छोटे दलों पर भरोसा करेंगे. ये भी सच है कि अखिलेश भले ही विपक्ष की लड़ाई का चेहरा हैं, लेकिन चुनावी जंग की जीत हार तो सीटों से तय होगी.
इसलिए, हर छोटी-बड़ी सीट पर प्रभाव रखने वाले दल अपना भविष्य बचाने के लिए अखिलेश के साथ आ रहे हैं. क्षेत्रीय दल और छोटे-छोटे वोटबैंक वाले नेता अपने असर वाली सियासी चुम्बकीय शक्ति को समाजवादी पार्टी की ओर मोड़ देना चाहते हैं. ताकि अखिलेश यादव शक्तिशाली राजनीतिक चुम्बक की तरह असर दिखाए और परंपरागत वोटबैंक से थोड़ा आगे बढ़कर बाक़ी लोगों का विश्वास और वोट पा सकें.
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