सम्पादकीय

दिल्ली कैसे बनेगी विश्वस्तरीय शहर, शहरीकरण के लिए स्मार्ट नीति की जरूरत

Triveni
30 Jun 2021 8:04 AM GMT
दिल्ली कैसे बनेगी विश्वस्तरीय शहर, शहरीकरण के लिए स्मार्ट नीति की जरूरत
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दिल्ली विकास प्राधिकरण (डीडीए) ने हाल में दिल्ली के चौथे मास्टर प्लान-2041 का मसौदा जारी किया है।

संजय पोखरियाल| दिल्ली विकास प्राधिकरण (डीडीए) ने हाल में दिल्ली के चौथे मास्टर प्लान-2041 का मसौदा जारी किया है। इसका प्राथमिक मकसद दिल्ली महानगर को पर्यावरण के लिहाज से जिम्मेदार और भविष्य के लिए तैयार शहर बनाना है, जिसमें स्वच्छ और सुरक्षित रहन-सहन की परिस्थितियों पर ध्यान केंद्रित किया गया है। मास्टर प्लान अगले दो दशकों के लिए दिल्ली महानगर के विकास का एक विजन दस्तावेज है। इससे अगले 20 वर्षो में दिल्ली की पूरी तस्वीर बदल सकती है।

मास्टर प्लान के मुताबिक अब जो भी योजनाएं तैयार की जाएंगी, उन्हें सिर्फ दिल्ली ही नहीं, बल्कि पूरे राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र यानी एनसीआर को दिमाग में रखकर तैयार किया जाएगा। जिससे दिल्ली का जनसांख्यिकी बोझ नजदीकी स्थित गाजियाबाद, ग्रेटर नोएडा, गुरुग्राम और फरीदाबाद जैसे शहरों के साथ साझा किया जा सके। इसमें मेट्रो, रैपिड रेल, सड़कों का नेटवर्क समेत आवासीय योजनाओं को भी शामिल किया जाएगा। इसमें भविष्य की संभावित महामारियों को ध्यान में रखते हुए आइसोलेशन के लिए भी जगह बनाने की बात कही गई है। रात्रिकालीन अर्थव्यवस्था (नाइट इकोनॉमी) को बढ़ावा देने के लिहाज से वाणिज्यिक परिसरों को 24 घंटे खुला रखने का भी प्रस्ताव है। हालांकि इसके लिए सुरक्षा सहित बाजार में मौजूदा सुविधाओं को और बेहतर करना होगा।
अनियोजित विकास : दिल्ली एक ऐसा महानगर है, जो 65 प्रतिशत तक अनियोजित तरीके से बसा है। यहां 1700 अनियमित कॉलोनियां हैं, जहां ड्रेनेज सिस्टम ही नहीं है। राजधानी दिल्ली का ड्रेनेज सिस्टम 45 साल पुरानी व्यवस्था पर टिका हुआ है। पहला मास्टर प्लान 1976 में तैयार किया गया था, तब दिल्ली की आबादी 60 लाख थी। वर्तमान में दिल्ली की आबादी करीब दो करोड़ है। 45 वर्षो में दिल्ली की आबादी करीब तीन गुना से ज्यादा बढ़ी है, लेकिन सीवरेज सिस्टम ठीक से नहीं बन पाया है। वर्तमान में दिल्ली में लगभग 50 बड़े नाले हैं, जिनका प्रबंधन अलग-अलग एजेंसियों द्वारा किया जाता है। इनकी खराब स्थिति और अतिक्रमण जैसी समस्याओं के कारण इनके आस-पास की भूमि भी प्रभावित होती है। अब नवीन मास्टर प्लान के मुताबिक डीडीए द्वारा अन्य एजेंसियों के सहयोग से इन्हें एकीकृत किया जाएगा और अनुपचारित अपशिष्ट जल के स्नेत की जांच कर इन्हें प्रदूषण मुक्त किया जाएगा।
तमाम अधिकार और शक्तियां होने के बावजूद यह डीडीए की लापरवाह कार्यशैली ही है कि यहां हर सुविधा आधी अधूरी है। आवास से इतर चाहे बात बिजली-पानी-सीवरेज की हो या लैंडफिल साइट, अस्पताल और स्कूलों की, पाìकग एवं परिवहन सेवाओं की हो अथवा पुलिस स्टेशन, दमकल केंद्र, अनाथालय, वृद्धाश्रम अथवा जेल की। सभी जगह पर आबादी का दबाव साफ नजर आता है। द दिल्ली डेवलपमेंट एक्ट, 1957 के तहत जब डीडीए का गठन हुआ तो इसका एकमात्र उद्देश्य दिल्ली का हर स्तर पर सुनियोजित विकास करना था, लेकिन गत 60 वर्षो में भी डीडीए अपने इस उत्तरदायित्व की कसौटी पर खरा नहीं उतर पाया है।
सार्वजनिक परिवहन को बढ़ावा : दिल्ली में मौजूदा समय में एक करोड़ 30 लाख से अधिक वाहन हैं। वाहनों की बढ़ती संख्या के कारण पाìकग और प्रदूषण की समस्या में लगातार इजाफा हो रहा है। सरकारी आंकड़ों मुताबिक केवल वाहनों के कारण राजधानी में रोजाना 217.7 टन कार्बन मोनो ऑक्साइड पैदा होती है। इसके अलावा हाईड्रोकार्बन 66.7 टन, नाइट्रोजन ऑक्साइड 84.1 टन, पार्टिकुलेट मैटर 9.7 टन और सल्फर डाईऑक्साइड 0.72 टन रोजाना जहरीली गैस के रूप में दिल्ली की आबोहवा में घुल रही हैं, जो लोगों में तमाम गंभीर बीमारियां पैदा कर रही हैं। अच्छी बात है कि वाहनों की तेजी से बढ़ती संख्या को ध्यान में रखते हुए मास्टर प्लान में बताया गया है कि कैसे लोगों को पब्लिक ट्रांसपोर्ट इस्तेमाल करने के लिए प्रोत्साहित किया जाएगा। इसमें हाई स्पीड कनेक्टिविटी को मजबूत करने के लिए रणनीतिक कॉरिडोर से लेकर ऐतिहासिक रिंग रेल नेटवर्क के पुनíवकास तक की बातें शामिल हैं। यहां एक अहम बात पर विचार करना चाहिए कि क्या दिल्ली में लक्जमबर्ग की तरह पब्लिक ट्रांसपोर्ट को पूरी तरह मुफ्त करने की दिशा में आगे बढ़ा जा सकता है? अगर हां, तो ऐसा करने से पब्लिक ट्रांसपोर्ट के इस्तेमाल को बढ़ावा दिया जा सकता है।
बढ़ेगी पानी की उपलब्धता : अभी दिल्ली को रोज करीब 450 से 470 करोड़ लीटर पानी चाहिए, लेकिन आपूíत सिर्फ 75 प्रतिशत ही है। चिंता की बात यह है कि दिल्ली के अलग-अलग इलाकों में भू-जल स्तर दो मीटर तक प्रति वर्ष के हिसाब से घट रहा है। भारतीय मानक ब्यूरो द्वारा जारी एक रिपोर्ट में सामने आया था कि दिल्ली जल बोर्ड द्वारा सप्लाई किया जाने वाला पानी पीने योग्य नहीं है। गौरतलब है कि राष्ट्रीय राजधानी में जल संरक्षण के प्रयास के तहत मास्टर प्लान के मसौदे में घरेलू उपभोक्ताओं के लिए पेयजल की मांग को तर्कसंगत बनाने और इसे रोजाना प्रति व्यक्ति 60 गैलन से घटाकर 50 गैलन प्रति व्यक्ति करने की आवश्यकता बताई गई है। दिल्ली के लिए अभी कोई जल नीति नहीं है। 2012 में ही वर्ष 2021 तक पेयजल आपूíत के लिए एक मास्टर प्लान बना था। वर्ष 2021 करीब आधा बीत चुका है, इसके बाद भी उसे जल बोर्ड से मंजूरी नहीं मिली है। जल नीति एवं मास्टर प्लान दोनों दो चीजें हैं। जल नीति का मतलब ऐसे दिशा निर्देश हैं, जिसमें यह तय होता है कि उपलब्ध पानी का किस तरह इस्तेमाल किया जाएगा। पानी के मास्टर प्लान का मतलब अपनी जनसंख्या के अनुसार अगले 10-20 वर्षो की जरूरत के लिए योजनाएं बनाकर पेयजल उपलब्धता बढ़ाना है। जिस राज्य के पास ये दो प्रमुख टूल नहीं हैं वहां पेयजल किल्लत दूर करना आसान नहीं है।

इसमें दो राय नहीं कि कागज पर दिल्ली की सूरत बदलने और ट्रैफिक के जंजाल से मुक्त करने के लिए दिल्ली का मास्टर प्लान-2041 एक आदर्श दस्तावेज की तरह दिखता है, लेकिन जब एजेंसियां इसे जमीन पर उतारने की कोशिश करेंगी तो उन्हें राजनीतिक टकराव, संसाधनों और धन की कमी तथा विभिन्न विभागों में भ्रष्टाचार, नौकरशाही की कमी जैसी समस्याओं से जूझना पड़ सकता है। ऐसे में शासन-प्रशासन पर यह जिम्मा है कि मास्टर प्लान केवल कागजी पुलिंदा न रहे, इसके प्रविधानों का क्रियान्वयन भी सुनिश्चित किया जाए।
वर्ष 2001 तक भारत की आबादी का 27.8 प्रतिशत हिस्सा शहरों में रहता था। वर्ष 2018 में यह आंकड़ा बढ़कर 33.6 प्रतिशत हो गया। वर्ष 2011 से इसमें तीन प्रतिशत की दर से सालाना बढ़ोतरी हो रही है। भारत की वर्तमान शहरी जनसंख्या इसी तरह बढ़ती रही तो आने वाले समय में न केवल मूलभूत आवश्यकताओं का बड़ा संकट खड़ा होगा, बल्कि पर्यावरणीय दोहन बढ़ने से अनेक प्राकृतिक या मानव प्रेरित आपदाओं का मानव जाति को सामना करना पड़ेगा। वर्ष 2050 तक भारत की शहरी आबादी 81 करोड़ हो सकती है। फिर भी भारत में शहरी नियोजन का कार्य योजनाबद्ध रूप से नहीं हो रहा है। हमारे शहरों में बुनियादी ढांचो की बेहद कमी है। इसके चलते आज देश के अधिकांश शहर अभूतपूर्व जनसांख्यिकीय, पर्यावरण, आíथक और सामाजिक चुनौतियों का सामना कर रहे हैं।
आज देश के सामने शहरीकरण का प्रबंधन सबसे जटिल समस्या है। विडंबना यह है कि भारत के अधिकांश शहर अतिशहरीकरण के शिकार हैं। जब शहरी आबादी इतनी बढ़ जाए कि शहर अपने निवासियों को अच्छा जीवनशैली देने में असफल हो जाए तो वह स्थिति अतिशहरीकरण कहलाती है। आने वाले समय में हम शहरीकरण का किस तरह प्रबंधन करते हैं, उसी से यह निर्धारित होगा कि हम भविष्य में किस सीमा तक शहरीकरण का लाभ उठा सकेंगे।
कोरोना महामारी के बाद नीति निर्माताओं को शहरीकरण को लेकर नए सिरे से सोचने की जरूरत होगी। हमें अपने शहरों को अधिक मानवीय और समावेशी बनाना होगा। हमें अपने शहरों को भूमि उपयोग के लिए उपयुक्त स्थान मानने का भाव त्यागना होगा। इसके बजाय मानव पूंजी के आसपास भारतीय शहरों के पुनíनर्माण पर बल देना होगा। हम जिस तरह के लचीले और टिकाऊ शहर चाहते हैं या जिनकी हमें आज जरूरत है, उसके लिए स्वास्थ्य को केंद्र में रखना होगा। इसके अलावा शहरों के मौजूदा खाली स्थानों का बेहतर इस्तेमाल, साफ-सफाई की व्यवस्था का विस्तार और पैदल चलने वालों के लिए अधिक जगह छोड़ने जैसे कदम उठा कर भविष्य में संभावित महामारियों से लड़ने लायक शहर बसाए जा सकते हैं।

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