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घोर कॉर्पोरेट माहौल में सहकारिता की याद कैसे आई, नए नवेले सहकारिता मंत्रालय से क्या हैं उम्मीदें
जनता से रिश्ता वेबडेस्क | संयम श्रीवास्तव नरेंद्र| मोदी सरकार (Narendra Modi Government) ने अब तक अपने सात साल के कार्यकाल में कई ऐसे निर्णय लिए हैं जो एतिहासिक हैं. ऐसी एक एतिहासिक घटना दोहराई गई 6 जुलाई को जब केंद्र सरकार ने घोषणा किया कि अब सहकारिता मंत्रालय (Ministry Of Cooperatives) के नाम से एक नए मंत्रालय का गठन होगा. केंद्र सरकार के इस निर्णय के एतिहासिक होने का कारण है इस घोषणा से जुड़े लगभग 30 करोड़ लोग. दरअसल देश में इस वक्त 8 लाख सहकारी समितियों से लगभग 30 करोड़ लोग जुड़े हैं. भारत के ग्रामीण इलाकों और छोटे शहरों में सहकारी बैंक शुरू से मोर्चा संभाले हुए हैं. 90 के दशक में तो किसानों को दिए जाने वाले कर्ज का लगभग 60 फीसदी हिस्सा सहकारी समितियों का हुआ करता था.
लेकिन आज इनकी स्थिति बदतर हो गई है. आज संस्थागत ऋण वितरण में इन सहकारी बैंकों का योगदान महज़ 10 फीसदी रह गया है. लेकिन अब जब मोदी सरकार ने सहकारिता मंत्रालय बनाने की बात की है तो सहकारी समितियों से जुडे़ लोगों के मन में फिर विश्वास की लौ जली है कि ग्रामीण क्षेत्रों के रीढ़ की हड्डी कहे जाने वाले ये सहकारी बैंक अब फिर से जिंदा हो जाएंगे. हालांकि अब इस मुद्दे पर एक नया विवाद भी शुरू हो सकता है कि सहकारिता जो राज्य का विषय है उसमें केंद्र सरकार मंत्रालय बना कर क्या राज्य के मामले में दखल देने की कोशिश कर रही है. क्योंकि संविधान की सातवीं अनुसूची के तहत सहकारिता राज्य सूची का विषय है.
नए सहकारिता मंत्रालय से कैसे सुधरेंगे हालात
सहकारी समितियों में राज्य का वर्चस्व होने के नाते इसमें राजनीतिक दखल और भारी भ्रष्टाचार हमेशा से रहा है. इसकी वजह से सहकारी समितियों की स्थिति में वर्ष दर वर्ष गिरावट दर्ज की गई. इसलिए अब जब केंद्र सरकार इसमें दखल देने का मन बना चुकी है तो उसे इसमें कई सुधार करने होंगे. जैसे, सदस्य केंद्रित व्यवस्था, लोकतांत्रिक स्व शासित और वित्तीय रूप से व्यवस्थित संस्थान बनाने की और कोशिश करना होगा. साल 2005 में जब ग्रामीण सहकारी संस्थानों के पुनरुद्धार पर एक समिति बनाई गई थी तो उसने भी ऐसे ही सुधार करने की बात कही थी.
इसके साथ सहकारी बैंकों के क्षेत्र में सुधार लाने के लिए केंद्र की तरफ से राज्यों को दी जाने वाली वित्तीय सहायता के लिए प्राथमिक कृषि ऋण समितियों को प्रोफेशनल और लोकतांत्रिक तरीके से चलाने की जरूरत है. जाहिर सी बात है सहकारी समितियों का जो आधार है जो उसकी बुनियादी संरचना है वह कृषि ऋण समितियों पर ही टिकी हुई है. इसलिए जब ईएससीएस में सुधार होंगे तो राज्य स्तरीय ऋण समितियां भविष्य में मजबूत होकर उभरेंगी.
100 करोड़ से अधिक जमा राशि वाले यूसीबी के लिए प्रबंधन बोर्ड तैयार होगा
फाइनेंशियल रूप से मजबूत और अच्छे प्रबंधन वाली सहकारी समितियों को शहरी सहकारी बैंक यानि यूसीबी का लाइसेंस दिया जाता है. लेकिन भारतीय रिजर्व बैंक ने इन समितियों को यूसीबी का लाइसेंस देना 17 साल पहले ही बंद कर दिया था. यही कारण थी कि इन बैंकों की संख्या में भी भारी गिरावट दर्ज की गई. 2004 में इन बैंकों की संख्या 1926 थी. लेकिन अब इनकी कुल संख्या 1539 ही बची है. मंत्रालय की घोषणा के बाद अब उम्मीद जागी है कि इन समितियों को फिर से यूसीबी का लाइसेंस मिलना शुरू हो जाएगा.
इसके साथ ही 100 करोड़ रुपए से अधिक जमा राशि वाले यूसीबी के लिए एक प्रबंधन बोर्ड तैयार करने की बातचीत भी चल रही है. दरअसल नया सहकारिता मंत्रालय राष्ट्रीय सहकारिता विकास नीति 2002 को भी एक नया रूप देने का प्रयास कर रहा है. अगर सब कुछ ठीक रहा तो संसद का मॉनसून सत्र समाप्त होने के बाद सहकारिता मंत्रालय, वित्त मंत्रालय और रिजर्व बैंक एक साथ मिलकर इस मुद्दे पर काम कर सकते हैं.
सहकारी बैंकों पर आरबीआई की शक्तियां भी बढ़ी हैं
हाल ही में बैंकिंग नियम अधिनियम 1949 में कुछ संशोधन किए गए थे, जिसके बाद यूसीबी पर यानि शहरी सहकारी बैंकों पर आरबीआई की शक्तियां बढ़ गई हैं. अब शहरी सहकारी बैंकों पर आरबीआई उसी तरह से नियम और निगरानी कर सकता है जैसा कि वह अन्य अनुसूचित वाणिज्यिक बैंकों पर करता है. हालांकि निदेशकों पर फिलहाल आरबीआई ने साफ तौर पर यह नहीं कहा है कि निदेशक मंडल को धारा 10A कि उपधारा 2 के प्रावधानों का पूरी तरह पालन करना होगा या नहीं.
लेकिन प्रबंधन बोर्ड को लेकर 31 दिसंबर 2019 की अधिसूचना में आरबीआई ने कहा था कि प्रबंधन बोर्ड में विशेषज्ञ शामिल होंगे जो लेखाशास्त्र, कृषि एवं ग्रामीण अर्थव्यवस्था, बैंकिंग, सहकारिता, अर्थशास्त्र, वित्त, विधि, लघु उद्योग और सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्रों से चुने जाएंगे.
सहकारी बैंकों से राजनीति और भ्रष्टाचार खत्म होगा
सहकारी बैंकों में राजनीतिक दखल कितना ज्यादा होता है यह बताने की जरूरत नहीं है. इसी राजनीतिक दखल की वजह से ही वहीं भ्रष्टाचार भी चरम पर होता है. पिछले साल ही पंजाब व महाराष्ट्र सहकारी बैंक (PMC) में हुए घोटाले ने पूरे देश को चौंका दिया था. लेकिन अब जब इन बैंकों की निगरानी आरबीआई के हाथों में होगी तो ना यहां पर राजनीतिक नियुक्तियां होंगी ना ही भ्रष्टाचार होंगे. क्योंकि अब आरबीआई की देख रेख में सहकारी बैंक भी वाणिज्यिक बैंकों की तरह काम करेंगे. सरकार के इस घोषणा से सबसे ज्यादा परेशान हैं महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक, बिहार, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल के वो नेता जिनकी पैठ इन सहकारी बैंकों में अंदर तक थी और इनके इशारे पर ही यहां सब काम होते थे.
इन सहकारी बैंकों पर नोटबंदी के समय भी आरोप लगे थे कि यहां नेताओं के काले पैसे को अवैध तरीके से सफेद किया गया है. द प्रिंट में छपी एक खबर के अनुसार 8 नवंबर 2016 को नोटबंदी की घोषणा के बाद देश के 10 जिला केंद्रीय सहकारी बैंकों (DCCB) में सबसे अधिक बैन किए गए हजार और पांच सौ के नोट जमा हुए थे, उनके शीर्ष पदों पर बड़े राजनीतिक दलों के नेता थे. इन दलों में कांग्रेस, शिवसेना, बीजेपी और एनसीपी शामिल थी.
इंडियन एक्सप्रेस की एक खबर के अनुसार नेशनल बैंक फॉर एग्रीकल्चर एंड रूरल डेवलपमेंट (नाबार्ड) द्वारा एक RTI के जवाब में यह जानकारी दी गई थी कि देश के 370 DCCB में 10 नवंबर से 31 दिसंबर, 2016 के बीच 22,270 करोड़ रुपये की राशि के 500 और 1000 रुपये के नोट जमा हुए थे. हालांकि यह एक घोटाला है इस पर आज तक ना कोई जांच हुई ना कार्रवाई.