सम्पादकीय

कासे कहूं मन की बात

Subhi
14 May 2022 5:40 AM GMT
कासे कहूं मन की बात
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कहने को तो सबके नजदीकी और दूर के रिश्तेदारों, यार-दोस्तों और परिचितों की एक विशाल दुनिया होती है। नौकरी, व्यवसाय से जुड़े अनेक चेहरे होते हैं, मगर दुनिया के मेले में भागते-दौड़ते, चमचमाते बाजार की दिलकश रौनक के बीच भीड़ में व्यक्ति अकेला नजर आता है।

मोहन वर्मा: कहने को तो सबके नजदीकी और दूर के रिश्तेदारों, यार-दोस्तों और परिचितों की एक विशाल दुनिया होती है। नौकरी, व्यवसाय से जुड़े अनेक चेहरे होते हैं, मगर दुनिया के मेले में भागते-दौड़ते, चमचमाते बाजार की दिलकश रौनक के बीच भीड़ में व्यक्ति अकेला नजर आता है। कभी यहां मन बहलाता नजर आता है, कभी वहां कोई सुकून का कोना ढूंढ़ता है। मगर दुनिया के मेले में अकेले खड़े व्यक्ति के मन से पूछो तो बस एक ही आवाज सुनाई देती है- कासे कहूं मन की बात।

सच पूछो तो मन की बात कहना और किससे कहना यह आज के समय की बड़ी जटिल समस्या है। सच यह है कि सार्वजनिक बातें तो साझा की जा सकती हैं, मगर व्यक्तिगत और निजी बातें साझा करना किसी के लिए भी आसान नहीं होता। यांत्रिक जीवन की आपाधापी, जटिल होते रिश्तों और प्रतिद्वंद्विता, ईष्या के इस समय में जब व्यक्ति चारों तरफ से अकेला महसूस कर रहा हो, यह बहुत मुश्किल नजर आता है कि वह किससे अपने मन की बात साझा करे।

चूंकि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। भावनाओं का पुतला है। मन में हर पल उठती दुख-सुख, खुशी-गम, अच्छा-बुरा, आर्थिक-सामाजिक और निजी तरंगों को अनदेखा करना उसके लिए संभव ही नहीं है।

जीवन से जुड़ी कैसी भी छोटी-बड़ी समस्या के समाधान के लिए उन्हें किसी के साथ साझा कर अगर समय रहते उससे बाहर न निकला जाए, तो निश्चित ही व्यक्ति और बड़ी उलझनों में उलझ सकता है। ऐसे में बेहद जरूरी है कि किसी न किसी से अपने मन की बात साझा की जानी चाहिए, मगर सवाल फिर वही है- कासे कहूं मन की बात।

किसी आर्थिक, पारिवारिक समस्या से जूझता व्यक्ति हो या शारीरिक बीमारी से संघर्षरत, अहंकार की चादर डाले नजदीकी और दूर के रिश्तेदारों से लेकर समाज के अपने समझे जाने वालों तक से मन की बात करने में सकुचाता है, क्योंकि तिल का ताड़ बनाने वालों और समस्या, परेशानी, उलझन से उसे बाहर निकाल कर मदद करने वाले कम और अनदेखा, अनसुना करने वाले बहुतायत हैं। ऐसे में उसे हर कहीं से सिवाय निराशा के कुछ हाथ नहीं लगता।

आज सोशल मीडिया के अलग-अलग मंचों पर रोजाना दरियादिली और ज्ञान के ऐसे हजारों-लाखों संदेश बिखरे दिखाई देते हैं कि कुछ मत पूछो। जरूरत पड़ने पर ऐसे ही किसी नेकदिल ज्ञानी से अगर व्यक्ति अपनी मदद की उम्मीद से संपर्क करता है तो उसे सिर्फ निराशा हाथ लगती है।

अपने अच्छे दिनों में जो रोजाना यह कहते नहीं थकते थे कि आपमें बहुत ऊर्जा है, रिटायर कब हो रहे हो, मिलकर बहुत काम करना है। जब रिटायरमेंट के बाद बुरे दिनों ने आ घेरा तो उन सज्जन ने पहचानना ही बंद कर दिया।

आज जब बात-बेबात परिवार से लेकर समाज तक में बेहद छोटी-छोटी बातों पर आपस में बोलचाल की जगह अबोला ले लेता है और अपने-अपने अहंकार के कारण व्यक्ति एक-दूसरे से बात करना भी पसंद नहीं करता, तो समझा जा सकता है कि कैसे और किससे मन की बात साझा की जाए। परिवार में भी अपनी-अपनी दुनिया में मस्त छोटा हो या बड़ा, किसी का कोई हस्तक्षेप पसंद नहीं करता। अपवादों को छोड़ दें तो अनुशासन और आदर तो दूर की बात है।

मन की बात मन में ही रखने से हमारे मन और शरीर पर जो नकारात्मक प्रभाव पड़ते हैं, उसके परिणाम शारीरिक और मानसिक बीमारियों से लेकर समाज में अपराधों के रूप में सामने आते हैं, जो सब जानते हैं। सवाल है कि बढ़ती संवादहीनता के इस दौर में अपने और परायों में भेद करना ही बड़ा मुश्किल होता जा रहा है, तो किसी से भी अपने मन की बात कैसे साझा की जाए?

अपनी-अपनी उलझनों और सोशल मीडिया की विस्तृत होती दुनिया में आकंठ डूबे परिवारों के परिजनों में बढ़ता अहंकार, आपसी संवादहीनता, बुजुर्गों का हाशिए पर होना, आपसी समझ की जगह बेरुखी दुनिया से झूठी उम्मीदें रखना, व्यक्ति को नितांत अकेला करता जा रहा है। एकल परिवारों के एकल होते व्यक्ति के इस दर्द को समय रहते समझना जरूरी है। न सिर्फ दूसरों को, बल्कि खुद व्यक्ति को भी, क्योंकि कासे कहूं मन की बात वाली समस्या हर किसी की है।

मगर बुरे के साथ अच्छा और नाउम्मीदी के साथ उम्मीदें भी हैं। जरूरत इस बात की है कि बहुत सोच-समझ कर, अगर अपने आसपास नजरें दौड़ाएं तो निश्चित ही हमारे आसपास जरूर ऐसा कोई न कोई चेहरा होगा, जिसे हमारी और हमें उसकी तलाश है।

परिवार में भी आए दिन सामने आने वाली संवादहीनता को तोड़ कर एक-दूसरे को समझ कर वह कांधा देखा जा सकता है, जिसे पास में होते हुए भी शायद अनदेखा किया जा रहा हो। अपनी ओर से सकारात्मक पहल करने के बाद फिर शायद हमें यह न कहना पड़े- कासे कहूं मन की बात।


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