सम्पादकीय

एक जुआ से कैसे होगा उत्तर प्रदेश में कांग्रेस पार्टी की किस्मत का फैसला

Gulabi
7 Sep 2021 7:31 AM GMT
एक जुआ से कैसे होगा उत्तर प्रदेश में कांग्रेस पार्टी की किस्मत का फैसला
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उत्तर प्रदेश में कांग्रेस पार्टी की बढ़ती बेचैनी समझी जा सकती है

अजय झा.

उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) में कांग्रेस पार्टी (Congress Party) की बढ़ती बेचैनी समझी जा सकती है. हाल ही में आये एक सर्वे में बताया गया है कि पार्टी आगामी विधानसभा चुनाव (Assembly Election) में राज्य में 3 से 7 सीटों पर ही जीत पायेगी, जो पार्टी के आंकलन से कुछ हद तक मेल भी खाता है. अब पार्टी में मंथन चल रहा है कि कैसे जीत की संख्या को बढ़ाया जाए. पहले एक नज़र डालते हैं पिछले कुछ विधानसभा चुनावों में कांग्रेस पार्टी की क्या स्थिति रही थी. 2017 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी का समाजवादी पार्टी (Samajwadi Party) से गठबंधन था. माना जा रहा था कि राहुल गांधी (Rahul Gandhi) और अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) की जोड़ी खासा धमाल मचायेगी, पर बीजेपी (BJP) की ऐसी आंधी चली की गठबंधन चारों खाने चित हो गया.

जहां समाजवादी पार्टी 47 सीटों पर चुनाव जीतने में सफल रही, कांग्रेस पार्टी 7 सीटों पर ही निपट गयी. 2012 के चुनाव में दोनों दल अलग अलग-चुनाव लड़े थे. समाजवादी पार्टी 224 सीटों पर चुनाव जीत कर बहुमत की सरकार बनाने में सफल रही थी, कांग्रेस पार्टी को महज़ 28 सीटों पर ही जीत नसीब हुई थी. 2007 के चुनाव में बहुजन समाज पार्टी के हाथी ने सबको रौंद दिया था,और कांग्रेस पार्टी को 22 सीटों पर ही जीत हासिल हुई थी. 2002 में यह तालिका 25 थी और1996 के चुनाव में कांग्रेस पार्टी की झोली में 33 सीटें आईं थी. 1993 में 28 और 1991 में 46. 1989 में कांग्रेस पार्टी 94 सीटों पर विजयी रही थी और 1985 में 269 सीटों पर जीत हुई थी. यह आखिरी अवसर था जब उत्तरप्रदेश में कांग्रेस पार्टी की सरकार बनी थी.
32 वर्षों में कांग्रेस की साख गिरी है
पिछले 32 वर्षों में यानि 1989 से कांग्रेस पार्टी की लोकप्रियता लगातार घटती गयी. 1989 में कांग्रेस पार्टी पर बोफोर्स घोटाले का आरोप था और पूरे देश में विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस के खिलाफ हवा चल रही थी. केंद्र और उत्तर प्रदेश दोनों में कांग्रेस पार्टी को इसका खामियाजा भुगतना पड़ा था. और उसके बाद जहां बीजेपी का हिन्दू कार्ड चलने लगा था, दो क्षेत्रीय दल समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी का असर भी बढ़ने लगा था, और कांग्रेस पार्टी ऐसे लुढ़कने लगी कि आज स्थिति यह आ गयी है कि पार्टी दहाई का आंकड़ा कैसे पार करे यही सबसे बड़ी चुनौती बन गयी है.
32 वर्षों में काफी कुछ बदल गया. राजीव गांधी की हत्या के बाद पार्टी की कमान पी.वी. नरसिम्हा राव के हाथो में आई, फिर कुछ वर्षों के लिए सीताराम केसरी कांग्रेस अध्यक्ष बने और 1997 से पार्टी की कमान गांधी परिवार के हाथों में है. सोनिया गांधी का 'करिश्मा' और राहुल गांधी का 'आकर्षण' भी पार्टी को डूबने से नहीं बचा पाया. पहले पायदान से लुढ़कती हुई कांग्रेस पार्टी 2017 में पांचवे पायदान पर आ गयी. अब पार्टी की बेचैनी इस बात से है कि प्रदेश में पार्टी की कमान उन हाथों में है जिसे कुछ वर्ष पहले तक अगर पूरे देश में नहीं तो कम से कम उत्तर प्रदेश में तुरुप के इक्के की रूप में देखा जा रहा था.
प्रियंका गांधी का भविष्य दांव पर है
प्रियंका गांधी का 2019 में सक्रिय राजनीति में पदार्पण हुआ और उत्तर प्रदेश की कमान उनकी माता और बड़े भाई राहुल गांधी ने उन्हें सौप दिया. अगर कांग्रेस पार्टी की स्थिति में सुधार नहीं हुआ तो इसका असर प्रियंका गांधी के भविष्य पर पड़ सकता है. 2017 में समाजवादी पार्टी ने कांग्रेस पार्टी की हैसियत की बिना जांच पड़ताल किए और बिना सोचे समझे 105 सीटें थमा दी थीं, वह भी तब जबकि प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार थी. एक तरह से समाजवादी पार्टी ने चुनाव के पहले ही अपनी हार मान ली थी.
कांग्रेस पार्टी के निराशाजनक प्रदर्शन से समाजवादी पार्टी को भी भारी नुकसान उठाना पड़ा था. लिहाजा इस बार समाजवादी पार्टी ने अकेले चुनाव लड़ने का ऐलान कर दिया है और बहुजन समाज पार्टी ने भी कांग्रेस पार्टी को ठेंगा दिखा दिया. जीतना तो दूर की बात है, कांग्रेस पार्टी की सबसे बड़ी समस्या है सभी 403 सीटों पर चुनाव लड़ने लायक उम्मीदवारों की तलाश.
छोटे दलों के साथ समझौता करेगी कांग्रेस
कांग्रेस पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष अजय कुमार लल्लू का अब बयान आया है कि उनकी पार्टी सिर्फ छोटे दलों के साथ ही समझौता करेगी. यह कांग्रेस पार्टी की मजबूरी है, ना कि उनकी नीति का हिस्सा, क्योंकि कोई भी पार्टी कांग्रेस पार्टी के साथ प्रदेश में मंच साझा करने को तैयार नहीं है. पर अगर सूत्रों की माने तो एक ऐसी नीति पर काम चल रहा है जिससे कांग्रेस पार्टी की साख भी बच जाए और विपक्ष के वोट में प्रत्याशित बंटवारे को भी किसी हद तक रोका जा सके.
सूत्रों के अनुसार 2024 के लोकसभा चुनाव के मद्देनजर शरद पवार और ममता बनर्जी जैसे विपक्षी नेताओं का समाजवादी पार्टी पर दबाव बढ़ता जा रहा है कि वह कांग्रेस पार्टी को साथ ले कर चले. प्रस्ताव है कि एक बार फिर से पिछले चुनाव की ही तरह कांग्रेस पार्टी को लगभग 100 सीटें दी जाएं, जिसके तहत जहां कांग्रेस पार्टी के अपने लगभग 50 प्रत्याशी मैदान में होंगे, वहीं कोई 50 के आसपास समाजवादी पार्टी के नेता कांग्रेस पार्टी के चुनाव चिन्ह पर लड़ेंगे.
इसका फायदा यह होगा कि कांग्रेस पार्टी पर चुनाव लड़ने लायक प्रत्याशियों को इकठ्ठा करने का दबाव कम हो जाएगा और गैर-बीजेपी वोटों का बंटवारा भी कम हो जाएगा.पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भी आन्दोलनकारी किसान कुछ ऐसा ही चाहते हैं, ताकि बीजेपी को वह चुनाव में पराजित कर में सबक सिखा सकें.
एक जुए पर टिकी है यूपी में कांग्रेस की किस्मत
इस प्रस्ताव पर चर्चा फिलहाल शुरुआती दौर में हैं और चर्चा गुप्त रूप से चल रही है. कांग्रेस पार्टी को यह प्रस्ताव मंज़ूर है. हो भी क्यों ना अगर पार्टी का आंकड़ा 7 से ऊपर चला जाए और प्रियंका गांधी की साख भी बच जाए. बस समाजवादी पार्टी को सीटों में मामले में थोड़ी क़ुरबानी देनी होगी, हालांकि इस तरह के गठबंधन से अखिलेश यादव के मुख्यमंत्री बनने की संभावनाओं पर प्रतिकूल असर नहीं पड़ेगा. यह विवाद का विषय हो सकता है कि इस तरह के किसी समझौते का दूरगामी प्रभाव क्या पड़ेगा.
क्योंकि यह एक तथ्य है कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस पार्टी के इस बुरे हाल का सबसे बड़ा कारण है पूर्व में कांग्रेस ने अपनी पार्टी को समाजवादी पार्टी के पास गिरवी रख दिया था, जिसके कारण कांग्रेस का वोट बैंक खिसक गया. देखना होगा कि अगर शरद पवार और ममता बनर्जी की योजना सफल होती है तो इससे कांग्रेस का फायदा होगा या फिर उसका अंत ही हो जाएगा. यह एक जुआ है जिसे शायद कांग्रेस पार्टी को खेलना ही पड़ेगा, क्योंकि डूबते को एक तिनके का सहारा है.
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