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- मकान बनाम घर
Written by जनसत्ता: कहते हैं, घर घरनी से बनता है, वरना वह मकान होता है। घरनी यानी स्त्री। पारंपरिक भारतीय परिवारों में घर की स्वामिनी दरअसल स्त्री ही मानी जाती है। मगर पितृसत्तात्मक मानसिकता के चलते जब मालिकाना हक की बात आती है, तो उस पर नाम घर के मुखिया पुरुष का ही दर्ज होता है। हालांकि शहरों में अब बहुत से पढ़े-लिखे प्रगतिशील विचारों के लोग मकान खरीदते समय साझीदार के तौर पर मालिकाना हक पत्नी का भी दर्ज कराते हैं।
मकानों के आगे लगी नाम पट््िटकाओं पर पत्नी का भी नाम लिखते हैं। मगर ग्रामीण समाजों में अब भी मकान और अन्य संपत्ति में महिला की हिस्सेदारी तय नहीं होती। खेती-बाड़ी, बाग-बगीचों के मालिकाना हक परंपरागत तरीके से सरकारी दफ्तरों में भी पिता के बाद पुत्रों के नाम चढ़ता जाता है। ऐसे में महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले की एक ग्राम पंचायत ने नजीर पेश की है। करीब चौदह साल पहले वहां के बाकापुर गांव की पंचायत ने फैसला किया कि गांव के हर घर के बाहर पट््िटका पर पुरुष के साथ-साथ महिला का नाम भी लिखा जाएगा। आज वहां एक भी ऐसा घर नहीं, जिस पर पुरुष के साथ उस घर की महिला का नाम न लिखा हो।
बेशक इससे महिला को मालिकाना हक प्राप्त न हो जाता हो, पर उसे जो सम्मान का अनुभव होता है, उससे उसका मनोबल बढ़ता है। यह कदम वहां की पंचायत ने लैंगिक समानता को बढ़ावा देने के मकसद से उठाया था। मगर महिला सशक्तिकरण की दृष्टि से इसके कई आयाम खुलते हैं। जिस घर को सजाने-संवारने, उसमें खुशियां और खुशहाली भरने में वह पूरा जीवन खपा देती है, उसके आगे लिखा उसका नाम उसकी अस्मिता को रेखांकित करता है। उसे गर्व से भर देता है कि सचमुच उस घर को बनाने में उसका योगदान है। वह भी उसकी स्वामिनी है।
जिस पितृसत्तात्मक समाज में घरेलू महिला के श्रम का कोई मोल नहीं समझा जाता, वहां ऐसे प्रयास उसे अहमियत देते हैं। निस्संदेह बाकापुर पंचायत का यह प्रयास बहुत सारी पंचायतों के लिए प्रेरणा का काम करेगा और वे महिलाओं के सम्मान के लिए ऐसे छोटे-छोटे ही सही, पर सार्थक और मनोबल बढ़ाने वाले प्रयास करेंगी।
देश में अनेक ग्राम पंचायतों ने अपने प्रयास से बहुत सारे उल्लेखनीय काम किए हैं, जो सामुदायिक सहभागिता से समाज की दशा और दिशा बदलने की मिसाल हैं। सबसे अच्छी बात है कि उल्लेखनीय काम करने वाली पंचायतों में उनकी संख्या अधिक है, जहां की सरपंच महिलाएं हैं। पंचायती राज व्यवस्था को इसीलिए अधिक सशक्त बनाया गया था, उन्हें अधिक अधिकार दिया गया था कि वे शासन के विकेंद्रीकरण और विकास कार्यक्रमों को उनके लक्ष्य तक पहुंचाने में मददगार साबित होंगी। बहुत सारी जगहों पर इसके उत्साहजनक नतीजे भी देखे गए हैं।
कई पंचायतों ने न सिर्फ सरकारी धन का उपयोग कर गांवों की बुनियादी सुविधाओं को बेहतर बनाया है, बल्कि गांवों में व्याप्त अनेक सामाजिक रूढ़ियों को तोड़ने में भी कामयाबी हासिल की है। शादी-विवाह में अनावश्यक आडंबर और कम उम्र में विवाह रोकने, लड़कियों की शिक्षा आदि को लेकर सराहनीय बदलाव किए हैं। मगर अफसोस कि देश की बहुसंख्य पंचायतों के सरपंच विकास कार्यों के बजाय सरकारी धन की हेराफेरी पर ज्यादा ध्यान केंद्रित किए देखे जाते हैं। उनकी वजह से पंचायती राज व्यवस्था की प्रासंगिकता पर ही अंगुलियां उठती रहती हैं। काश, वे भी बाकापुर जैसी नजीर पेश करने वाली पंचायतों से प्रेरणा ले सकें।