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- पापड़ी-चाट का सदन!
क्या भारतीय संसद को पापड़ी-चाट का सदन कहा जा सकता है? संसद है या सड़क किनारे कोई खोमचेवाला पापड़ी-चाट तल कर बेच रहा है? क्या अब संसद की यही गरिमा शेष है? क्या पापड़ी-चाट के लिए ही देश की जनता अपने प्रतिनिधियों को चुन कर संसद में भेजती है? बौद्धिकता का मुखौटा ओढ़े जब कोई सांसद संसद की कार्यवाही की तुलना पापड़ी-चाट बनाने से करता है, तो भारत की संसद ही नहीं, संविधान, लोकतंत्र और मताधिकार प्राप्त जनता सवालिया हो जाते हैं। उनके अस्तित्व की प्रासंगिकता संदेहास्पद लगती है। प्रधानमंत्री मोदी ने भी ऐसी टिप्पणी को संसद, संविधान और जनता का अपमान करार दिया है। संसद में असंसदीय और अमर्यादित भाषा का चलन इधर बहुत बढ़ गया है। यकीनन यह घोर चिंता का विषय है। क्या औसत सांसद का यह विशेषाधिकार है कि वह अभिव्यक्ति की आज़ादी के संवैधानिक अधिकार की आड़ में, किसी भी हद तक, निरंकुश हो सकता है? वह संसद की दीवारों और कपाटों के पीछे कुछ भी अनर्गल बोल या आपत्तिजनक हरकतें कर सकता है? यदि ऐसा ही है, तो देशहित में सर्वोच्च न्यायालय को दखल देना चाहिए और संविधान संशोधन करा संसदीय व्यवहार की नई परिभाषा और बाध्यता तय करानी चाहिए। बेशक ऐसा हस्तक्षेप न्यायपालिका बनाम विधायिका अथवा कार्यपालिका की श्रेणी में नहीं आएगा, क्योंकि आम आदमी संसद के भीतर की गतिविधियों और सांसदों की बेलगाम जुबां तथा हरकतों से क्षुब्ध और अपमानित महसूस कर रहा है।
divyahimachal