सम्पादकीय

पापड़ी-चाट का सदन!

Gulabi
5 Aug 2021 4:43 PM GMT
पापड़ी-चाट का सदन!
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तृणमूल कांग्रेस के राज्यसभा सांसद डेरेक ओ’ब्राउन ने यह अपराध किया है

क्या भारतीय संसद को पापड़ी-चाट का सदन कहा जा सकता है? संसद है या सड़क किनारे कोई खोमचेवाला पापड़ी-चाट तल कर बेच रहा है? क्या अब संसद की यही गरिमा शेष है? क्या पापड़ी-चाट के लिए ही देश की जनता अपने प्रतिनिधियों को चुन कर संसद में भेजती है? बौद्धिकता का मुखौटा ओढ़े जब कोई सांसद संसद की कार्यवाही की तुलना पापड़ी-चाट बनाने से करता है, तो भारत की संसद ही नहीं, संविधान, लोकतंत्र और मताधिकार प्राप्त जनता सवालिया हो जाते हैं। उनके अस्तित्व की प्रासंगिकता संदेहास्पद लगती है। प्रधानमंत्री मोदी ने भी ऐसी टिप्पणी को संसद, संविधान और जनता का अपमान करार दिया है। संसद में असंसदीय और अमर्यादित भाषा का चलन इधर बहुत बढ़ गया है। यकीनन यह घोर चिंता का विषय है। क्या औसत सांसद का यह विशेषाधिकार है कि वह अभिव्यक्ति की आज़ादी के संवैधानिक अधिकार की आड़ में, किसी भी हद तक, निरंकुश हो सकता है? वह संसद की दीवारों और कपाटों के पीछे कुछ भी अनर्गल बोल या आपत्तिजनक हरकतें कर सकता है? यदि ऐसा ही है, तो देशहित में सर्वोच्च न्यायालय को दखल देना चाहिए और संविधान संशोधन करा संसदीय व्यवहार की नई परिभाषा और बाध्यता तय करानी चाहिए। बेशक ऐसा हस्तक्षेप न्यायपालिका बनाम विधायिका अथवा कार्यपालिका की श्रेणी में नहीं आएगा, क्योंकि आम आदमी संसद के भीतर की गतिविधियों और सांसदों की बेलगाम जुबां तथा हरकतों से क्षुब्ध और अपमानित महसूस कर रहा है।


तृणमूल कांग्रेस के राज्यसभा सांसद डेरेक ओ'ब्राउन ने यह अपराध किया है। उन्होंने कहा था कि पिछले 10 दिन में 12 बिल पारित किए गए। औसतन 7 मिनट में एक बिल पारित कराया गया है। ऐसा लगता है मानो संसद पापड़ी-चाट बना रही हो! बाद में उन्होंने यह भी जोड़ा कि उन्हें 'ढोकला' कहना चाहिए था, ताकि प्रधानमंत्री खुश हो जाते! क्या यही एक वरिष्ठ सांसद की भाषा है? तृणमूल कांग्रेस की अध्यक्ष ममता बनर्जी तो डेरेक की शख्सियत पर बहुत इतराती हैं और उन्हें बौद्धिक मानती रही हैं। यह बौद्धिकता कैसी है? पूरा देश जानता है कि संसद में आजकल क्या हो रहा है। मॉनसून सत्र समाप्ति की ओर बढ़ रहा है। सदन में हंगामे, सीटियां बजाने, नृत्य की मुद्राएं बनाने और पोस्टर-तख्तियां लहराने के बावजूद एक दर्जन से अधिक बिल पारित कराए जा चुके हैं। देश की निरंतरता के लिए यह संसदीय कार्यवाही अनिवार्य थी। डेरेक राज्यसभा में ही नियमों की किताब के पन्ने फाड़ चुके हैं। उनकी ही पार्टी के अन्य सांसद शांतनु सेन सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री अश्विनी वैष्णव के हाथों से काग़ज़ छीन कर चिंदी-चिंदी कर चुके हैं। सभापति ने उन्हें पूरे सत्र के लिए सदन से निलंबित कर दिया था। डेरेक को भी सजा मिलनी चाहिए। संसद की बाधित कार्यवाही के लिए सरकार और विपक्ष दोनों ही कठघरे में हैं। दायित्व दोनों का है। अकेली सरकार ताली नहीं बजा सकती और न ही विपक्ष की शर्तों पर सदन चलाए जा सकते हैं। कमोबेश सभापति और स्पीकर के विशेषाधिकारों का भी सम्मान किया जाना चाहिए। हम इस राजनीति के पक्षधर नहीं हैं कि विपक्ष में रहते हुए भाजपा ने भी पूरे के पूरे सत्र धो दिए थे। भाजपा सांसदों ने कई दिन तक संसद की कार्यवाही भी नहीं चलने दी थी। क्या राजनीतिक दल इन्हीं परंपराओं की नकल करते रहेंगे? यदि आज भाजपा से बदला लेना है, तो फिर यह प्रलाप क्यों किया जा रहा है कि सरकार सदन की कार्यवाही नहीं चलने देना चाहती? लिहाजा जासूसी कांड सरीखे बेहद संवेदनशील मुद्दे पर बहस और जांच नहीं कराई जा रही है। सदन में हंगामा और नारेबाजी के मायने ये नहीं हैं कि संसद को अभद्र और अराजक बना दिया जाए। लोकसभा की एक घंटे की कार्यवाही पर करीब 1.5 करोड़ और राज्यसभा की कार्यवाही पर 1.1 करोड़ रुपए प्रति घंटा खर्च किए जाते हैं। यह पैसा किसी सांसद या मंत्री के खजाने से नहीं आता। संसद के 13 दिन धुल चुके हैं। औसतन 15-20 फीसदी काम हो पाया है, जबकि 120 घंटे की कार्यवाही जरूर होनी चाहिए थी। वित्त विधेयकों पर भी विपक्ष कार्यवाही के पक्ष में नहीं, जबकि ऐसे बिल पारित होने के बाद ही सांसदों को वेतन-भत्ते मिल सकते हैं।

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