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- कर्मचारी सियासत में...
क्या हिमाचल कर्मचारी राजनीति के बाहुपाश में फंस गया है या अब चुनाव का यही दस्तूर चलेगा। यह सवाल इसलिए भी कि दोनों प्रमुख राजनीतिक दल इसी आईने के सामने चेहरा साफ कर रहे हैं। शीतकालीन सत्र से पहले जेसीसी बैठक के बहाने सरकार ने दिल खोलकर आजमाइश की तो, सदन के बहाने विपक्षी कांग्रेस ने भी अपने अरमान पूरे किए। सदन के भीतर रोष स्वरूप कांग्रेस की हरकतें उस कालीन पर बिछ गईं, जहां राजनीति के सपने भी कर्मचारी चाटुकारिता में तल्लीन देखे गए। एक असामान्य घटनाक्रम में सोमवार का सत्र, विपक्ष को अकल्पनीय मुद्रा में अपनी नाटकीय सरकार की दरी बिछाते हुए देखता है। आक्रोश की भूमिका में विपक्षी साज अगर बजे, तो वहां प्रदेश के अहम मुद्दों में सिर्फ कर्मचारी ही रहे यानी काल्पनिक प्रस्तावों में ओल्ड पेंशन स्कीम, आउटसोर्स कर्मियों को अनुबंध, पुलिस कर्मियों को नियमित पे बैंड व एसएमसी कर्मियों के नियमितिकरण को कांग्रेस अपना औजार मान रही है। आक्रोश की गलियों में कांगे्रस की आंखें सिर्फ कर्मचारी ही देख रही हैं, तो गुस्से की लाली भी फरेबी है। झूठमूठ की सरकार बनाकर कांग्रेस नौटंकी कर सकती है, लेकिन इस नाटक का विधवा विलाप केवल कर्मचारी मसले ही रहेंगे। क्या राजनीति की यही अवधारणा प्रदेश को आत्मनिर्भर बना सकती है। क्या हिमाचल के सारे मसले केवल कर्मचारी हित ही रहेंगे या बारह लाख बेरोजगारों के लिए भी कोई पार्टी सामने आएगी। हम कांग्रेस को विधानसभा से सड़क तक संघर्ष में देखना चाहेंगे और यह भी कि पार्टी अपने मंतव्य के ग्रॉफ में जितना उठना चाहे, मीडिया के लिए यह संतोष की बात होगी, लेकिन प्रदेश के भविष्य को केवल कर्मचारी सियासत में गूंथना सही नहीं होगा। हिमाचल के अस्तित्व और भविष्य के लिए कई गम हैं। रोजगार के अवसरों को लेकर चिल्ल पौं हो सकती हैं, लेकिन इसके पैमाने में सिर्फ सरकारी नौकरी ही क्यों। हिमाचल का सबसे अधिक रोजगार निजी क्षेत्र में उद्योग, व्यापार, पर्यटन, परिवहन, शिक्षा-चिकित्सा और स्वरोजगार के जरिए फल फूल रहा है।
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